विकास की बलि चढ़ते मैंग्रोव वन

Submitted by Hindi on Wed, 08/24/2011 - 10:31
Source
नई दुनिया, 24 अगस्त 2011
सुनामी जैसे आपदा से बचाने वाला मैंग्रोव वन अब विकास की बलि चढ़ रहा हैसुनामी जैसे आपदा से बचाने वाला मैंग्रोव वन अब विकास की बलि चढ़ रहा हैअपनी खास वनस्पतियों और जलीय विशेषताओं के कारण पहचाने जाने वाले मैंग्रोव वन कुछ ही दशकों में मिट सकते हैं। यह आकलन अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक दल का है। इन शोधकर्ताओं का अध्ययन इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय है कि दल ने दुनिया भर के मैंग्रोव वनों का व्यापक अध्ययन किया और पाया कि मैंग्रोव वनस्पतियों की कम से कम 70 प्रजातियों का वजूद खतरे की जद में है। इन प्रजातियों के संरक्षण-संवर्द्धन पर अगर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो दो दशक के भीतर ही ये लुप्त हो सकती हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह का आकलन केवल अमेरिकी दल का है। हाल ही में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आईयूसीएन ने भी एक रिपोर्ट जारी की है,जिसके अनुसार 11 मैंग्रोव प्रजातियों का जीवन तो बिलकुल खतरे में और बाकी 50 से अधिक प्रजातियों की हालत दयनीय है। दरअसल, पूरी धरती से मैंग्रोव वन क्षेत्र प्रतिवर्ष औसतन तीन-चार फीसदी की दर से घटता जा रहा है।

मैंग्रोव के जंगल केवल कार्बन डाईऑक्साइड गैसों को बढ़ने से ही नहीं रोकते बल्कि सुनामी जैसी आपदा भी इनके आगे नतमस्तक हो जाती है। इन वनस्पतियों की मजबूत और सघन जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हैं। मैंग्रोव वन चक्रवाती तूफान से होने वाली तबाही को भी कम करते हैं लेकिन इसके बावजूद इसे बचाने का ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है।

मैंग्रोव वन ब्राजील में भी घटे हैं और इंडोनेशिया में भी। आज ब्राजील में करीब 25000 वर्ग किलोमीटर और इंडोनेशिया में 21000 वर्ग किलोमीटर में मैंग्रोव वन बचे हैं, जबकि 1950 के आसपास इन दोनों देशों को मिलाकर एक लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में मैंग्रोव जंगल फैला था।

भारत और दक्षिण एशियाई देशों की बात करें तो पिछले 50 सालों में यहां मैंग्रोव वनों का 80 फीसदी हिस्सा मिट चुका है। अपने देश में मैंग्रोव प्रजातियों पर संकट कई स्तरों पर है। समुद्र किनारे होता तीव्र शहरी विकास, समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी, तटीय आबादी की जलीय खेती पर बढ़ती निर्भरता और वनों की अंधाधुंध कटाई इसमें सबसे अहम हैं। हाल ही में सुंदरी प्रजाति की मैंग्रोव वनस्पति एक दूसरे कारण से भी तबाह हुई है। इस प्रजाति में 'टाप डाइंग' नाम की बीमारी लग गई जिसने खासतौर से सुंदरवन के मैंग्रोव वन को काफी नुकसान पहुंचाया। ज्ञात हो कि सुंदरवन का नामकरण भी इसी सुंदरी प्रजाति की वनस्पति के कारण हुआ है जो वहां बहुतायत में पाई जाती है। सुंदरवन के निचले इलाके में 70 फीसदी पेड़ इसी प्रजाति के होते हैं। 'टाप डाइंग' का कारण अज्ञात है लेकिन अभी तक विशेषज्ञ जिस नतीजे पर पहुंचे हैं उसका निहितार्थ यही है कि पानी में बढ़ता खारापन और ऑक्सीजन की कमी ही इसके लिए जिम्मेदार है। इस बिंदु पर जल्द ही गंभीरता से ध्यान देना होगा क्योंकि सुंदरवन की सघनता खत्म होने का अर्थ तमाम दुष्प्रभावों के सामने आने के साथ-साथ बाघों के प्राकृतिक आवास छिन जाने से भी है। कई स्थान ऐसे हैं जहां मैंग्रोव के कटने से पेड़ों की सघनता घटी है और बाघ डेल्टा के उत्तरी हिस्से में चले गए हैं, जहां मानव आबादी काफी सघन रूप में है। बाघों के इस प्रवास का प्रतिफल ही है कि मानवों के साथ उनका संघर्ष बढ़ा है।

पर्यावरण हितैषी मैंग्रोव वन अब संकट मेंपर्यावरण हितैषी मैंग्रोव वन अब संकट मेंऐसा नहीं है कि मैंग्रोव वनस्पति सिर्फ सुंदरवन में ही प्रभावित हुई है। समुद्रतटीय शहरी विकास का प्रभाव तो मैंग्रोव से जुड़े हर क्षेत्र में है। पश्चिमी किनारे में शहरी विकास के चलते 40 फीसदी मैंग्रोव वन खत्म हो चुके हैं। मुंबई की स्थिति और भी विकट है। यहां दो-तिहाई से अधिक मैंग्रोव वन खत्म हो गए हैं। इधर के कुछ वर्षों में वहां जल जमाव की जो स्थिति पैदा हुई है, इसके पीछे भी वैज्ञानिक मैंग्रोव का खात्मा मानते हैं। इसी तरह गुजरात के तटीय इलाके भी तेजी से उद्योगीकृत हो रहे हैं। वहां सीमेंट और तेलशोधक कारखाने, पुराने जहाजों को तोड़ने की इकाइयां, नमक बनाने की इकाइयां काफी विकसित हुई हैं। इन कारणों से समुद्री किनारों पर बस्तियों का भी जमाव हो रहा है और वन तेजी से काटे जा रहे हैं। हमें यह भी समझना होगा कि झींगा पालन जैसे व्यवसाय ने भी मैंग्रोव वनों का काफी अधिक नुकसान किया है। इसने एक ओर आर्थिक सुरक्षा तो दी है लेकिन मैंग्रोव पर इससे पड़ने वाले दुष्प्रभाव ने हमें पर्यावरणीय असुरक्षा से भर दिया। दरअसल, जलीय खेती के दौरान प्रदूषक पदार्थ काफी मात्रा में निकलते हैं जिनसे मैंग्रोव वनों को काफी नुकसान होता है। फिर ग्लोबल वार्मिंग के कारण यह तथ्य भी सामने आया है कि एक सदी के भीतर ही सागर तल में 10-15 सेंटीमीटर तक का उछाल आया है और इसका सीधा प्रभाव मैंग्रोव वनों के वानस्पतिक चरित्र में बदलाव के तौर पर दिख रहा है।

जरूरत इस बात की है कि हम इन वनों की भूमिका को गहराई से महसूस करें। मैंग्रोव के जंगल केवल कार्बन डाइऑक्साइड गैसों को बढ़ने से ही नहीं रोकते बल्कि सुनामी जैसी आपदा भी इनके आगे नतमस्तक हो जाती है। इन वनस्पतियों की मजबूत और सघन जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हैं। घने मैंग्रोव वन चक्रवाती तूफान की गति को भी कम कर तटीय इलाकों में होने वाली तबाही को कम करते हैं। मैंग्रोव वनों का इतना महत्व होते हुए और सुनामी के अनुभव के बाद भी हम इसके संरक्षण की दिशा में विशेष प्रयास नहीं कर रहे, न तो संसद में इसके लिए चिंता दिखती है और न सड़कों पर। आज इन विशेष प्रकार के वनों को विनाश से बचाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि उनके अनेक पारिस्थितिक उपयोग हैं और फिर उनका आर्थिक मूल्य भी कुछ कम नहीं।