पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण में जो बदलाव आ रहे हैं, उनके कारण देश भर में इस विषय पर गंभीर बहस चलने लगी है। इन बदलावों को नियमित करने वाले क़ानून पर्यावरण से जुड़े विस्तृत न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा हैं। इस संदर्भ में आम राय यह है कि प्रदूषण एक ऐसी समस्या है जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे है और जिसको नियंत्रित करने की दिशा में हर राष्ट्र को पहल करनी चाहिए। इसके लिए प्रत्येक देश को आगे आना चाहिए। कई साल पहले 1972 के स्टॉकहोम घोषणपत्र के सिद्धांत 21 में अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण क़ानून को विस्तृत रूप से जगह मिली। ग्लोबल वॉर्मिंग को नियंत्रित करने के मामले में अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के लिहाज़ से अच्छे पड़ोसियों की तरह व्यवहार या पड़ोसी धर्म का निर्वाह सबसे अहम है।
वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य के साथ यह बहुपक्षीय कन्वेंशन 1988 में प्रभावी हुआ। हालांकि, इसके प्रावधानों में ऐसी व्यवस्था नहीं थी जिससे सदस्य देशों को ओजोन लेयर में कमी के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने के लिए क़ानूनी रूप से बाध्य ठहराया जा सके, लेकिन इतना ज़रूर था कि पर्यावरण से संबंधित समस्याओं के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा संगठित प्रयास की ज़रूरत को इसने रेखांकित किया।
आज हम ग्लोबल वॉर्मिग से जुड़े क़ानूनों को एक व्यवस्थित स्वरूप देने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन समस्या यह है कि इस मामले में पहले से बने क़ानूनों और परंपराओं का नितांत अभाव है। इसकी वजह यह है कि प्रदूषण ऐसी समस्या है जो आधुनिक युग में विज्ञान के विकास के साथ लगातार गंभीर रूप धारण करता जा रहा है। मानव समुदाय इससे पहले प्रदूषण की समस्या से इस स्तर पर कभी दो-चार नहीं हुआ था। ज़ाहिर है, इससे संबंधित क़ानूनों की ज़रुरत भी पहले महसूस नहीं की गई होगी। इस नज़रिए से देखा जाए तो यह ज़रूरी हो जाता है कि प्रदूषण से निपटने के लिए क़ानूनी तैयारी के लिए आण्विक हथियारों के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के विचारों और अन्य पर्यावरणीय क़ानूनों को एक साथ जोड़कर देखा जाए।
पर्यावरण के परिवर्तन से निबटने की दिशा में पहला क़दम
वायु प्रदूषण और मानवीय कार्यों से पर्यावरण में बदलाव के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का पहला संगठित प्रयास जेनेवा कन्वेंशन ऑन लॉन्ग रेंज ट्रांस बाउंड्री एयर पॉल्यूशन, जिसे अक्सर सीएलआरटीएपी के नाम से पुकारा जाता है, के रूप में हमारे सामने आया। यह मुख्य रूप से वायु प्रदूषण के ख़िला़फ विश्व समुदाय को तैयार करने के लिए आयोजित किया गया था। पर्यावरण को वायु प्रदूषण से बचाना और धीरे-धीरे इसे पूरी तरह ख़त्म करना इसका उद्देश्य था। जेनेवा कन्वेंशन के आयोजन के पीछे दो महत्वपूर्ण कारक थे। इसकी सबसे बड़ी वजह थी दुनिया भर में, और खासकर यूरोप में पैदा हो रही पर्यावरणीय समस्याएं, जैसे तालाबों, झीलों आदि का सूखना या पानी का गंदा होना आदि, और वैज्ञानिकों की एकमत राय कि इसके लिए वायु प्रदूषण ज़िम्मेदार है। इसकी दूसरी वजह थी 1972 में युनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन द ह्यूमन एंवायरेन्मेंट इन स्टॉकहोम (स्टॉकहोम कन्वेंशन) के आयोजन के सिलसिले में दुनिया भर के नीति-निर्माताओं का एक मंच पर जमा होना। हालांकि, यह कहना बेमानी नहीं होगा कि ग्लोबल वॉर्मिंग के बड़े ख़तरे से निबटने के लिए स्टॉकहोम घोषणापत्र में कुछ खास नहीं कहा गया। 51 सदस्यों की सहभागिता वाले इस सम्मेलन ने सल्फर और नाइट्रोजन उत्सर्जन जैसे पर्यावरण पर बुरा असर डालने वाले कई मुद्दों पर विचार किया, लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग का ख़तरा जिस गंभीरता के साथ हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है, उससे मुक़ाबला करने के लिए इसमें कुछ ख़ास व्यवस्था नहीं की गई।
इस दिशा में दूसरा क़दम 1985 में वियना कन्वेंशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ ओजोन लेयर के रूप में सामने आया। वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य के साथ यह बहुपक्षीय कन्वेंशन 1988 में प्रभावी हुआ। हालांकि, इसके प्रावधानों में ऐसी व्यवस्था नहीं थी जिससे सदस्य देशों को ओजोन लेयर में कमी के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने के लिए क़ानूनी रूप से बाध्य ठहराया जा सके, लेकिन इतना ज़रूर था कि पर्यावरण से संबंधित समस्याओं के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा संगठित प्रयास की ज़रूरत को इसने रेखांकित किया। कन्वेंशन की प्रस्तावना में ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समेकित प्रयास की ज़रूरत पर बल दिया गया था। सम्मेलन में विकासशील देशों की समस्याओं पर खास तौर पर बल दिया गया, जिन्हें विकसित देशों के मुक़ाबले प्राकृतिक आपदाओं का ज़्यादा सामना करना पड़ता है। किसी भी मानवीय गतिविधि से पर्यावरण और ओजोन लेयर पर पड़ने वाले असर से मुक़ाबला करने के लिए आपसी सहयोग से नीतियों के निर्माण और उसे लागू करने के लिए एकमत होने की ज़रूरत पर बल दिया गया (धारा 2 (1 )(2) )। इसी के साथ जारी किए गए मॉन्ट्रियल कन्वेंशन में ओजोन परत को कमज़ोर करने वाले तत्वों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए ज़रूरी उपायों और सभी संबद्ध पक्षों के दायित्वों को भी रेखांकित किया गया।
ओजोन परतों के बचाव के लिए वियना सम्मेलन (1985 में अनुमोदन और 1988 से प्रभावी) पारित कुछ खासप्रस्ताव इस प्रकार हैं-
1. सम्मेलन का प्राथमिक उद्देश्य मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को हर ऐसे मानवीय गतिविधि से बचाना है, जिससे अभी या भविष्य में ओजोन की परतों के कमज़ोर होने का ख़तरा है। यह उम्मीद की जाती है कि सभी संबद्ध पक्ष सम्मेलन के प्रस्तावों के अनुरूप इस दिशा में ज़रूरी कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे।
2. इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सभी संबद्ध पक्षों से यह उम्मीद की जाती है कि – वे मानवीय कार्यों से ओजोन लेयर पर पड़ने वाले असर और इससे पैदा होने वाली समस्याओं को समझने और उन्हें दूर करने की दिशा में आपसी सहयोग करेंगे, ओजोन लेयर को प्रभावित करने वाले कार्यों को नियंत्रित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने और नीतियों के निर्माण में आपसी सहयोग करेंगे। इसके साथ ही यह भी तय किया गया कि कन्वेंशन के प्रस्तावों को लागू करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जाएंगे और इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ भी सहयोग करेंगे।
मांट्रियल सम्मेलन में भी अनेक पदार्थों पर ओजोन की परतों के कारण पड़ने वाले प्रभाव ( जो 1987 में अनुमोदित हुए और 1989 से प्रभावी ) की चर्चा की गई थी।
1. ओजोन परतों के कारण अनेक पदार्थों पर पड़ने वाले प्रभावों पर मांट्रियल में जो प्रस्ताव पारित किए गए वे वियना कन्वेंशन का ही एक हिस्सा हैं। इसका उद्देश्य ओजोन लेयर को कमज़ोर करने वाले व्यावसायिक और पर्यावरण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण तत्वों के उत्पादन और उनके इस्तेमाल को नियंत्रित करना है। ऐसे तत्वों के नाम प्रोटोकॉल के अनुलग्नकों में शामिल हैं। मॉन्ट्रियल सम्मेलन की सबसे बड़ी खासियत है, धारा 6, जिसके तहत 1990 से हर चार साल बाद ओजोन लेयर को सुरक्षित रखने हेतु उठाए गए उपायों की समीक्षा आवश्यक है। इस समीक्षा में ओजोन परतों की कमज़ोरी से संबंधित प्रत्येक तथ्यों, चाहे वे वैज्ञानिक, पर्यावरणीय, तकनीकी या आर्थिक हों, को ध्यान में रखना ज़रूरी है। गौरतलब है कि समस्या के बदलते स्वरूप और विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्टों एवं विकासशील देशों की खास ज़रूरतों के मद्देनजर प्रस्तावों को दो बार संशोधित किया भी जा चुका है।
2. मॉन्ट्रियल सम्मेलन से संबद्ध पक्षों ने पारित प्रस्तावों को व्यावहारिक बनाने के लिए अब इसके स्वरूप में पांच बार बदलाव किए हैं। ये हैं लंदन संशोधन (1990), कोपेनहेगन संशोधन (1992), वियना (1995), मॉन्ट्रियल (1997) और बीजिंग (1999)। लंदन संशोधन में तकनीकों के हस्तांतरण और इसके आर्थिक पहलुओं में बदलाव किया गया। प्रोटोकॉल के लिए एक बहुपक्षीय कोष का गठन किया गया जो 1992 के बाद वर्ल्ड बैंक, यूनाइटेड नेशंस एन्वॉरोन्मेंट प्रोग्राम (यूएनइपी), यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (यूएनआईइीओ) द्वारा संचालित एक स्थायी कोष बन गया। कोपेनहेगन संशोधन के अंतर्गत 1993 तक हेलॉन यौगिकों और 1995 तक हैलोकार्बन तत्वों के उत्पादन और उपभोग को समाप्त करने का उद्देश्य निर्धारित किया गया।
ग्लोबल वॉर्मिंग और अंतरराष्ट्रीय क़ानून
ग्लोबल वॉर्मिंग के गंभीर ख़तरे को नियंत्रित करने के लिए पहला बड़ा और सीधा क़दम 1992 के अर्थ समिट (यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन एंवॉयरेन्मेंट एंड डेवलपमेंट) के रूप में सामने आया, जिसे रियो सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। अभूतपूर्व रूप से सफल रहे इस सम्मेलन में 172 देशों ने भाग लिया और इनमें से 108 देशों के राष्ट्राध्यक्ष इसमें शरीक हुए। सम्मेलन में निम्न मुद्दों पर जोर दिया गया :
* उत्पादन के तरीक़ों की सिलसिलेवार समीक्षा, खासकर गैसोलीन जैसे टॉक्सिक यौगिकों और रेडियोएक्टिव तत्वों और अन्य ज़हरीले अवशेषों का।
* ऊर्जा के मौजूदा स्त्रोतों से अलग ऐसे संसाधनों की तलाश करना जो पर्यावरण पर बुरा असर नहीं डालते हैं।
* आवागमन के नए साधनों पर जोर देना ताकि गाड़ियों से निकलने वाले धुएं के चलते होने वाले प्रदूषण में कमी हो और शहरों की प्रदूषित वायु से पैदा होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को कम किया जा सके।
* पानी की कमी की बढ़ती समस्या।
इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का प्राथमिक उद्देश्य वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को ऐसे स्तर पर नियंत्रित करना था जिससे ख़तरनाक मानवजनित कार्यों के चलते ओजोन लेयर को कमज़ोर होने से बचाया जा सके और वातावरण पर कोई खास असर भी न पड़े।
कन्वेंशन के प्रावधान सदस्य देशों के लिए क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं माने जा सकते क्योंकि इसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की कोई सीमा तय नहीं की गई है और न ही इस पर नज़र रखने के लिए किसी संस्था का गठन किया गया है। लेकिन इससे इसकी महत्ता कम नहीं होती क्योंकि इसमें ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो सदस्य देशों को इस संदर्भ में ज़रूरी क़दम उठाने के लिए और इस दिशा में भविष्य के लिए तैयारी करने हेतु प्रेरित करते हैं। दरअसल, कन्वेंशन में सदस्य राष्ट्रों को पर्यावरण सुरक्षा हेतु क़ानूनी ज़िम्मेदारी नहीं दी गई, लेकिन इसने इस दिशा में भविष्य में उठाए जाने वाले क़दमों की पृष्ठभूमि ज़रूर तैयार कर दी। इस लिहाज़ से क्योटो प्रोटोकॉल को सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसका सबसे पहला काम था ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और उसे कम करने के लिए नेशनल ग्रीनहाउस गैस इंवेंट्री का गठन करना जिसके आधार पर परिशिष्ट 1 में उल्लेखित देशों के लिए 1990 में ग्रीनहाउस गैसों के इस्तेमाल और उत्सर्जन की एक सीमा तय की गई और उन्हें इसमें कमी लाने की ज़िम्मेदारी दी गई। साथ ही यह भी कि उन्हें समय-समय पर इससे संबंधित पुनरीक्षित आंकड़े भी पेश करने की ज़िम्मेदारी दी गई।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में न्यापयाधीश हैं)