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राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, जून 5, 2005, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
मौसम विशेषज्ञों के अनुसार तीस वर्ष पहले ही ग्लोबल वार्मिंग पर बहस शुरू हो चुकी है लेकिन अमरीका के प्रोटोकोल से बाहर रहने और क्योटो प्रोटोकोल के तहत दी गयी छूट के कारण 2012 तक औद्योगीकृत उत्तर के देशों में कार्बन के उत्सर्जन में महज एक प्रतिशत की ही कमी हासिल हो पायी है। सही मायने में दुनिया उस समस्या के प्रति गंभीर नहीं है, जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और जो हम सभी को प्रभावित करती है।अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और उनके सहयोगी वैज्ञानिकों के अलावा सभी राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक यह मानते हैं कि अब मौसम में बदलाव आना तय है और इसके घातक परिणाम भी आएंगे। अंततः इसका विनाशकारी प्रभाव समाज व अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा यह कितना विनाशकारी होगा, यह उनको पता नहीं है पर यह विनाश किस तरीके से होगा, यह उन लोगों ने पता करना शुरू कर दिया है। इससे सबसे ज्यादा कौन प्रभावित होगा, इसका अंदाज़ ही किया जा सकता है लेकिन सभी इस बात से सहमत हैं कि गरीब देश इससे बुरी तरह से प्रभावित होंगे।
अब यह कोई सवाल नहीं रहा कि ग्लोबल वार्मिंग सच है या नहीं। अब तो सवाल यह है कि दुनिया इस संदर्भ में क्या उपाय करेगी। हालांकि पंद्रह वर्ष से ही दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने पर विचार किया जाने लगा है। इस बात पर सहमति है कि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन सीधे-सीधे सम्पत्ति से जुड़ा है जिसे विभिन्न देशों ने जमा किया है। यानी कि यह अमीर देशों का ही फर्ज था कि वह इसे रोके। दरअसल अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ना तय है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। यह सभी को मालूम है।
इधर, हाल के वर्षों में तमाम बहसों के बाद ग्लोबल वार्मिंग को लेकर सार्थक पहल तो हुई है लेकिन उसे आगे बढ़ाने की गंभीर कोशिशों की जरूरत है। हालांकि इस संदर्भ में पहला एग्रीमेंट क्योटो प्रोटोकोल के रूप में सामने आया है। इस समझौते के तहत अमरीका और आस्ट्रेलिया को छोड़ कर बाकी औद्योगीकृत दुनिया के देश 2008-2012 तक 1990 के स्तर के मुकाबले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में छह प्रतिशत तक की कटौती करने पर सहमत हुए। अब यह सवाल भी उठने लगा है कि क्योटो के बाद जिंदगी कैसी होगी?
अमरीका इस समझौते को नहीं मानेगा चाहे वहां कोई सरकार हो क्योंकि वह इसे अपने हितों के खिलाफ मानता है। जार्ज बुश और उनके सीनेटर के अनुसार यह समझौता भारत और चीन जैसे बड़े प्रदूषक देशों को शामिल नहीं करता है।
इस तरह क्योटो के बाद जो होना है, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यूरोप, जापान और दूसरे प्रोटोकोल समर्थक देश यह कहेंगे कि उन्होंने मौसम में हो रहे बदलाव को रोकने में भरसक सहयोग किया। ग्लोबल वार्मिंग को कम करने और अर्थव्यवस्था क पुनर्गठित करने की उनकी जो कोशिश रही है, वह शून्य हो जाएगी। अगर और देश इसमें शामिल नहीं होंगे, तब निश्चित तौर पर एशिया के दोनों बड़े देश भारत और चीन पर निगरानी बढ़ा दी जाएगी।
अब सवाल उठता है कि हम लोग कहां खड़े हैं? अगर प्रोटोकोल समर्थक ब्रिटेन को उदाहरण के रूप में लिया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना वहां की सरकार का प्रमुख एजेंडा है। वहां की सरकार ने अपने देश में इसे 20 प्रतिशत तक कम करने के लिए एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है जो प्रोटोकोल के द्वारा निर्धारित लक्ष्य से कहीं ज्यादा है। वहां पिछले दस वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रण में रखने के उपायों के लिए यह एक मॉडल है। पिछले महीने जिन बातों का खुलासा हुआ उसके मुताबिक ब्रिटेन में पिछले दो वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा है। क्योटो प्रोटोकोल के लक्ष्य से कहीं ज्यादा है। जबकि 1999 में जब क्योटो प्रोटोकोल की कवायद चल रही थी तब ब्रिटेन 1990 के स्तर से 14.5 प्रतिशत कम ही था। वर्ष 2004 में पिछले वर्ष की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग 1.5 प्रतिशत बढ़ गयी लेकिन एफओई (फ्रेंड्स ऑफ अर्थ) के अनुसार यदि ब्रिटेन रिन्यूऐवल ऊर्जा के स्रोत का उपयोग करती तो प्रतिवर्ष 2.5 मिलियन टन कार्बन के बराबर उत्सर्जन को रोका जा सकता था। एक साल के अंदर कोयले के उपयोग और परिवहन से जो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या हुई उसे नियंत्रित नहीं किया जा सका और 2.3 मिलियन टन ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन हुआ। सच तो यह है कि ब्रिटेन कुछ प्रयासों से ही क्योटो लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था। लेकिन उससे यह भी नहीं हो सका।
मौसम विशेषज्ञों के अनुसार तीस वर्ष पहले ही ग्लोबल वार्मिंग पर बहस शुरू हो चुकी है लेकिन अमरीका के प्रोटोकोल से बाहर रहने और क्योटो प्रोटोकोल के तहत दी गयी छूट के कारण 2012 तक औद्योगीकृत उत्तर के देशों में कार्बन के उत्सर्जन में महज एक प्रतिशत की ही कमी हासिल हो पायी है। सही मायने में दुनिया उस समस्या के प्रति गंभीर नहीं है, जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और जो हम सभी को प्रभावित करती है।
अब यह कोई सवाल नहीं रहा कि ग्लोबल वार्मिंग सच है या नहीं। अब तो सवाल यह है कि दुनिया इस संदर्भ में क्या उपाय करेगी। हालांकि पंद्रह वर्ष से ही दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने पर विचार किया जाने लगा है। इस बात पर सहमति है कि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन सीधे-सीधे सम्पत्ति से जुड़ा है जिसे विभिन्न देशों ने जमा किया है। यानी कि यह अमीर देशों का ही फर्ज था कि वह इसे रोके। दरअसल अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ना तय है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। यह सभी को मालूम है।
इधर, हाल के वर्षों में तमाम बहसों के बाद ग्लोबल वार्मिंग को लेकर सार्थक पहल तो हुई है लेकिन उसे आगे बढ़ाने की गंभीर कोशिशों की जरूरत है। हालांकि इस संदर्भ में पहला एग्रीमेंट क्योटो प्रोटोकोल के रूप में सामने आया है। इस समझौते के तहत अमरीका और आस्ट्रेलिया को छोड़ कर बाकी औद्योगीकृत दुनिया के देश 2008-2012 तक 1990 के स्तर के मुकाबले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में छह प्रतिशत तक की कटौती करने पर सहमत हुए। अब यह सवाल भी उठने लगा है कि क्योटो के बाद जिंदगी कैसी होगी?
अमरीका इस समझौते को नहीं मानेगा चाहे वहां कोई सरकार हो क्योंकि वह इसे अपने हितों के खिलाफ मानता है। जार्ज बुश और उनके सीनेटर के अनुसार यह समझौता भारत और चीन जैसे बड़े प्रदूषक देशों को शामिल नहीं करता है।
इस तरह क्योटो के बाद जो होना है, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यूरोप, जापान और दूसरे प्रोटोकोल समर्थक देश यह कहेंगे कि उन्होंने मौसम में हो रहे बदलाव को रोकने में भरसक सहयोग किया। ग्लोबल वार्मिंग को कम करने और अर्थव्यवस्था क पुनर्गठित करने की उनकी जो कोशिश रही है, वह शून्य हो जाएगी। अगर और देश इसमें शामिल नहीं होंगे, तब निश्चित तौर पर एशिया के दोनों बड़े देश भारत और चीन पर निगरानी बढ़ा दी जाएगी।
अब सवाल उठता है कि हम लोग कहां खड़े हैं? अगर प्रोटोकोल समर्थक ब्रिटेन को उदाहरण के रूप में लिया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकना वहां की सरकार का प्रमुख एजेंडा है। वहां की सरकार ने अपने देश में इसे 20 प्रतिशत तक कम करने के लिए एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है जो प्रोटोकोल के द्वारा निर्धारित लक्ष्य से कहीं ज्यादा है। वहां पिछले दस वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रण में रखने के उपायों के लिए यह एक मॉडल है। पिछले महीने जिन बातों का खुलासा हुआ उसके मुताबिक ब्रिटेन में पिछले दो वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा है। क्योटो प्रोटोकोल के लक्ष्य से कहीं ज्यादा है। जबकि 1999 में जब क्योटो प्रोटोकोल की कवायद चल रही थी तब ब्रिटेन 1990 के स्तर से 14.5 प्रतिशत कम ही था। वर्ष 2004 में पिछले वर्ष की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग 1.5 प्रतिशत बढ़ गयी लेकिन एफओई (फ्रेंड्स ऑफ अर्थ) के अनुसार यदि ब्रिटेन रिन्यूऐवल ऊर्जा के स्रोत का उपयोग करती तो प्रतिवर्ष 2.5 मिलियन टन कार्बन के बराबर उत्सर्जन को रोका जा सकता था। एक साल के अंदर कोयले के उपयोग और परिवहन से जो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या हुई उसे नियंत्रित नहीं किया जा सका और 2.3 मिलियन टन ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन हुआ। सच तो यह है कि ब्रिटेन कुछ प्रयासों से ही क्योटो लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था। लेकिन उससे यह भी नहीं हो सका।
मौसम विशेषज्ञों के अनुसार तीस वर्ष पहले ही ग्लोबल वार्मिंग पर बहस शुरू हो चुकी है लेकिन अमरीका के प्रोटोकोल से बाहर रहने और क्योटो प्रोटोकोल के तहत दी गयी छूट के कारण 2012 तक औद्योगीकृत उत्तर के देशों में कार्बन के उत्सर्जन में महज एक प्रतिशत की ही कमी हासिल हो पायी है। सही मायने में दुनिया उस समस्या के प्रति गंभीर नहीं है, जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और जो हम सभी को प्रभावित करती है।