भारत के बारे में पुरातन अवधारणा है कि यह गाँवों का देश है। आज भी देश में तकरीबन छह लाख गाँव हैं। मौजूदा राजनीतिक और लोकतांत्रिक अवधारणा में गाँवों की भूमिका सिर्फ वोट बैंक तक सीमित हो गई है। वह भी उदारवादी सोच के बरक्स जातियों और खेमों में कहीं ज्यादा बँटी हुई है। इसलिये आज राजनीतिक दल सत्ता की राजनीतिक वैधता और समर्थन हासिल करने के लिये इन गाँवों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन जब गाँवों को देने की बारी आती है तो वे गाँवों को भूल जाते हैं।
आजादी के आन्दोलन के दौरान गाँधीजी ने एक बड़ी बात कही थी; अगर अंग्रेज यहीं रह गए, उनकी बनाई व्यवस्था खत्म हो गई और भारतीय व्यवस्था लागू हो गई तो मैं समझूँगा कि स्वराज आ गया। अगर अंग्रेज चले गए और अपनी बनाई व्यवस्था ज्यों का त्यों छोड़ गए और हमने उन्हें जारी रखा तो मेरे लिये वह स्वराज नहीं होगा।विकास की मौजूदा अवधारणा में लगातार पिछड़ते गाँवों, उनमें भयानक बेरोजगारी, कृषि भूमि का लगातार घटता स्तर और शस्य संस्कृति की बढ़ती क्षीणता के बीच गाँधी की यह चिन्ता एक बार फिर याद आती है। आजादी के बाद गाँधी को उनके सबसे प्रबल शिष्यों ने ना सिर्फ भुलाया, बल्कि उनकी सोच को भी तिलांजलि दे दी।
गाँधी को सिर्फ उनके नाम से चलने वाली संस्थाओं, राजकीय कार्यालयों की दीवारों पर टँगी तस्वीरों, राजघाट और संसद जैसी जगहों के बाहर मूर्तियों तक सीमित कर दिया। उनकी सोच को भी जैसे इन मूर्तियों की ही तरह सिर्फ आस्था और प्रस्तर प्रतीकों तक ही बाँध दिया गया। ऐसा नहीं कि आजादी के बाद भारतीयता और भारतीय संस्कृति पर आधारित विचारों के मुताबिक देश को बनाने और चलाने की बातें नहीं हुईं।
जयप्रकाश आन्दोलन का एक मकसद गाँवों को स्वायत्त बनाना और उन्हें भारतीय परम्परा में विकसित करना भी था। खुद लोहिया भी ऐसा ही मानते थे। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में जिस मानव की सेवा और उसे अपना मानकर उसके सर्वांगीण विकास की कल्पना है, वह एक तरह से हाशिए पर स्थित आम आदमी ही है। जिसके यहाँ विकास की किरणें जाने से अब तक हिचकती रही हैं।
मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ उस तक विकास की किरणें पहुँचाने का छद्म ही किया जा रहा है। गाँधी के एक शिष्य जयप्रकाश भी गाँधी की ही तरह भारतीयता की अवधारणा के मुताबिक गाँवों के विकास के जरिए देश के विकास का सपना देखते थे। पिछली सदी के पचास के दशक के आखिरी दिनों गाँधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जयप्रकाश को अपने मंत्रिमण्डल में शामिल होने का निमंत्रण दिया था।
1942 के आन्दोलन के प्रखर सेनानी जयप्रकाश तब तक सक्रिय राजनीति से दूर सर्वोदय के जरिए गाँवों और फिर भारत को बदलने के सपने को साकार करने की कोशिश में जुटे हुए थे। जयप्रकाश ने तब नेहरू के प्रस्ताव को विनम्रता से नकारते हुए लिखा था कि आपकी सोच ऊपर से नीचे तक विकास पहुँचाने में विश्वास है और मैं नीचे से ऊपर तक विकास की धारा का पक्षधर हूँ। इसलिये मेरा आपके मंत्रिमण्डल में शामिल होना ना आपके हित में होगा न ही देश के हित में।
हालांकि उनके तर्क के आखिरी वाक्य पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। क्योंकि नेहरू के विकास मॉडल का हश्र हम देख रहे हैं। न तो गाँव, गाँव ही रह पाये हैं और ना ही शहर बन पाये हैं। यानी अगर उस मंत्रिमण्डल में जयप्रकाश शामिल हुए होते तो शायद सर्वोदय के सपने के मुताबिक देश में नया बदलाव तो आया ही होता। यानी गाँव अधकचरे नहीं रह पाये होते।
भारत के बारे में पुरातन अवधारणा है कि यह गाँवों का देश है। आज भी देश में तकरीबन छह लाख गाँव हैं। मौजूदा राजनीतिक और लोकतांत्रिक अवधारणा में गाँवों की भूमिका सिर्फ वोट बैंक तक सीमित हो गई है। वह भी उदारवादी सोच के बरक्स जातियों और खेमों में कहीं ज्यादा बँटी हुई है। इसलिये आज राजनीतिक दल सत्ता की राजनीतिक वैधता और समर्थन हासिल करने के लिये इन गाँवों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन जब गाँवों को देने की बारी आती है तो वे गाँवों को भूल जाते हैं।
रही-सही कसर मौजूदा नौकरशाही की सोच पूरी कर देती है। नीतियाँ भले ही वह गाँवों के नाम पर बनाएँ, लेकिन उन्हें तय करते वक्त उसका पूरी दृष्टि शहर केन्द्रित ही होती है। विकास की मौजूदा नीतियों का परीक्षण भी कुल जमा तकरीबन 25 करोड़ आबादी के हिसाब से ही होता है और देश की बाकी सौ करोड़ आबादी पीछे रह जाती है।
भारत में छह महानगर हैं और औसतन डेढ़ करोड़ की जनसंख्या के हिसाब से कुल जनसंख्या तकरीबन 9 करोड़ है। इसके साथ ही देश में स्तर एक के करीब 36 और स्तर दो के करीब डेढ़ सौ शहर हैं। स्तर एक यानी राज्यों की राजधानियों की आबादी बीस से लेकर साठ लाख तक है। मोटे तौर पर यह आबादी भी करीब दस करोड़ बैठती है और बाकी छोटे शहरों की आबादी छह करोड़ होगी। यही 25 करोड़ की जनसंख्या के आधार पर देश की नीतियाँ बन रही हैं।
आज भारत में जिस तेज आर्थिक विकास की बात हो रही है, उसका स्याह पक्ष यह है कि इसका आधार बाकी 100 करोड़ की जनसंख्या है ही नहीं। सौ करोड़ लोगों के बरक्स इसी पच्चीस करोड़ जनसंख्या पर बुनियादी ढाँचे का ज्यादा खर्च होता है। बिजली और डीजल-पेट्रोल जैसे ऊर्जा के स्रोत का खर्च भी इन्हीं जगहों के लिये ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित की है। महानगर नाम से यह रिपोर्ट अब हिन्दी में भी है।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर में ऊर्जा स्रोत, विकास और बुनियादी ढाँचे पर सबसे ज्यादा खर्च महानगरों पर ही हो रहा है। लेकिन उसकी तुलना में दुनिया भर में ग्रामीण आबादी को सहूलियतें कम हासिल होती हैं। भारतीय गाँवों की भी हालत अलग नहीं है। भारतीय गाँवों को चौबीसों घंटे बिजली आज भी सपना है। जिन्दगी की बेहतर सहूलियतें भी नहीं के बराबर ही हासिल हो रही हैं।
जब आधुनिकता का बोलबाला नहीं था तो गाँवों का पर्यावास पर्यावरण और मौसम के अनुकूल था। तब उसका काम प्राकृतिक ऊर्जा से ही चल जाता था। लेकिन आज गाँवों में भी सीमेंट और लोहे के सरिए पर आधारित निर्माण हो रहे हैं। चूँकि गाँवों में बिजली आज भी सपना है, इसलिये इसका असर यह हुआ है कि गाँवों में गर्मी बढ़ गई है और आधुनिकता के कथित पर्याय पक्के मकानों में अत्यधिक जाड़े और गर्मी में जिन्दगी दुश्वार हो जाती है। विकास का मतलब है कि जिन्दगी में सहूलियतें बढ़ें। क्या इस दुश्वारताभरी जिन्दगी के आधार पर इसे विकास कहेंगे।
सदियों की भारतीय समृद्धि का प्रतीक इसकी शस्य यानी कृषि संस्कृति रही है। शस्य संस्कृति में मौजूदा अवधारणा के मुताबिक भले ही अभाव था, लेकिन उस जिन्दगी में सामाजिकता पर जोर था। इसके जरिए समाज का ढाँचा बहुत मजबूत था। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास से गुजरें तो पता चलता है कि राज्य के मुकाबले भारतीय समाज कहीं ज्यादा मजबूत रहा है। परिवार व्यवस्था भी कहीं ज्यादा ताकतवर रही है।
इस संस्कृति में जरूरी नहीं था कि पूरा परिवार कमाने के लिये भागता रहे। फिर भी परिवार के सभी सदस्यों की बुनियादी जरूरतों की गारंटी रहती थी। इसके मुकाबले विकास के मौजूदा अवधारणा को देखिए। परिवार भी छिन्न-भिन्न हुए हैं। समाज का ढाँचा भी कमजोर हुआ है और चूँकि बुनियादी सुख-दुख बाँटने की पारम्परिक पारिवारिक अवधारणा टूट रही है, इसलिये अवसाद भी बढ़ रहा हैं और इसके जरिए मौतें भी बढ़ रही हैं। सामाजिक असन्तोष की बुनियाद में यही समस्या भी है।
आर्थिक विकास की जिस मौजूदा अवधारणा पर देश बढ़ रहा है, उसके स्वभाव में ही शस्य संस्कृति का विलोपन है। पिछले चुनाव के लिये अपने घोषणा पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने देश में 300 स्मार्ट सिटी बनाने का वादा किया है। माना गया कि इससे देश के विकास में गति आएगी। इससे सीमेंट और सरिया उद्योग में तेजी आएगी और रोजगार भी बढ़ेगा। लेकिन यह रोजगार कैसा होगा। निर्माण उद्योग में ज्यादातर रोजगार दिहाड़ी मजदूरी वाले होते हैं।
इससे जीवन स्तर कुछ लोगों का ही सुधरता है। बड़ी जनसंख्या सड़कों किनारे कपड़े के तम्बुओं में निम्नस्तरीय जीवन सुविधाओं के साथ जीने के लिये मजबूर होती है। हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि इससे बड़ी जनसंख्या का सिर्फ पेट भर जाता है। अगर मौजूदा विकास की अवधारणा का उद्देश्य यही है तो फिर विकास की इस अवधारणा को मंजूर किया जाना चाहिए।
1999-2000 के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए वेंकैया नायडू ने आन्ध्र प्रदेश से एक काबिल अफसर डॉक्टर मोहन कांडा की अगुआई में देश की बंजर और दलदली जमीन का सर्वे कराया था। उस सर्वे के मुताबिक देश की तकरीबन 40 फीसदी जमीन या तो बंजर है या दलदली है।
विकास की मौजूदा अवधारणा में विशेष आर्थिक जोन या स्मार्ट सिटी बनाने के लिये प्रकृति की तरफ से बेकार पड़ी इन जमीनों की तरफ ध्यान नहीं है। बल्कि कृषि योग्य जमीनों पर उद्योग और निर्माण क्षेत्र की निगाह ज्यादा है। रेगिस्तान में समुद्र के पानी को मीठा बनाकर दुबई प्रशासन ला सकता है और दुबई को हरा-भरा बना सकता है। लेकिन भारतीय विकास की अवधारणा में ऐसी सोच की गुंजाइश ही नहीं है। चीन जैसे देश में सिर्फ 75 विशेष आर्थिक जोन हैं और भारत में दो सौ से ज्यादा की मंजूरी मिल चुकी है।
चीन में ज्यादातर आर्थिक जोन बंदरगाहों के नजदीक बंजर और बेकार जमीनों पर बने हैं और अपने यहाँ हरियाणा और पंजाब की उपजाऊ कृषि भूमि पर स्मार्ट सिटी और विशेष आर्थिक जोन बनाए जा रहे हैं। जाहिर है कि इस पूरी प्रक्रिया में गाँव पर ही चोट पहुँचती है। जब गाँव पर चोट पहुँचती है तो इस बहाने पूरी-की-पूरी संस्कृति पर खतरा बढ़ता है। जिसका असर सामाजिक विघटन के तौर पर नजर आता है।
अंग्रेजी राज के दौरान बेशक गाँवों में गरीबी बढ़ी। लेकिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक शोध -अठारहवीं सदी के जमींदार – में गाँवों की दूसरी ही तस्वीर सामने आती है। इस शोध में जिक्र है कि तब जमींदार गाँवों में किसी के भूखे न सोने देने की गारंटी देता था। ऐसी कहानियाँ किंवदंतियों में आज भी गाँवों में जिन्दा हैं। अंग्रेजी राज में इस व्यवस्था को चोट पहुँची। मौजूदा विकास की अवधारणा भी इसी सोच को आगे बढ़ा रही है।
मौजूदा सरकारी तंत्र इस बात की खुशी जताते नहीं थकता कि सकल घरेलू उत्पाद में आजादी के वक्त जिस खेती की हिस्सेदारी 51 फीसदी थी, वह 2012-13 में घटकर सिर्फ 13.7 फीसदी ही रह गई है। अब सर्विस क्षेत्र की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। सर्विस क्षेत्र में उत्पादन तो होता नहीं। इसलिये इस अर्थव्यवस्था के सातत्य पर भी सवाल उठते रहते हैं। भारतीयता की अवधारणा के भी विपरीत यह अर्थव्यस्था है।
आजादी के सात दशक होने को हैं। इसके बावजूद अगर आबादी के तीन चौथाई से भी ज्यादा हिस्से को पलायन, मजबूरी और संत्रास की जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़े, विकास की मौजूदा अवधारणा से दूर रहना पड़े, पारम्परिकता के विछोह का फायदा उसे ना मिले तो जाहिर है कि इस अवधारणा पर सवाल उठेंगे ही। सवाल उठ भी रहे हैं।
देश भर में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे करीब 1700 आन्दोलन इन सवालों के ही प्रतीक हैं। इनमें से ज्यादातर लोकतांत्रिक हैं। नक्सलवादी आन्दोलन की पूर्व पीठिका गाँवों के सामाजिक तंत्र में विकास की मौजूदा अवधारणा की घुसपैठ ने ही तैयार की। चूँकि इस अवधारणा का प्रतिनिधि राजनेता, अफसर और ठेकेदार की तिकड़ी होती है, लिहाजा नक्सलवाद का मूल इस तिकड़ी पर ही ज्यादा निशाना बनाता रहा है।
इन तथ्यों के आलोक में अब बड़ा सवाल यह है कि क्या इसके बाद भी पाँच हजार साल से भी ज्यादा पुरानी जड़ें रखने वाला अपना समाज चेतेगा...वैसे निराश होने की जरूरत भी नहीं है। वक्त आने पर अपना समाज जागता रहा है, अपनी इकाइयों को झिंझोड़ता रहा है और फिर नए आवेग और उत्साह से पारम्परिकता के आलोक में आगे बढ़ता रहा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं।