विवादित जल उपयोग

Submitted by admin on Wed, 10/22/2008 - 19:10

जल अभाव से ग्रस्त गांव में सामाजिक अंतर संघर्ष
गुजरात के बदाली गांव में उच्च जातियों मुख्यतया अहीरों तथा कोली जैसी निम्न जातियों तथा अन्य दलित वर्गों के बीच जारी टकरावों के कारण जल संकट गहराता जा रहा है। सामाजिक एवं आर्थिक वर्गीय संरचना से जुड़े सत्ता संबंधों और संसाधनों के वितरण में गैर बराबरी को सही नीतियों और जनमत की मदद से सुलझाया जा सकता है। चार दशक से अधिक समय से गुजरात जल संकट और भूमिगत जल के स्तर में गिरावट जैसे विषयों पर विचार-विमर्श में गुजरात अग्रणी भूमिका में रहा हे। आज पीने तथा सिंचाई के लिये पानी का मुद्दा राज्य के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गया है, खासकर उन इलाकों में जहां भूमिगत पानी का पुनर्भरण निम्न है तथा वर्षा भी कम और अनियमित तरीके से होती है। 1999 तथा 2000 के बीच लगातार सूखे के कारण समस्या और गंभीर हो गयी है। 1

सुंदरनगर जिले के चोटिला तालुका में स्थित बदाली गांव सैंकड़ों सूखा प्रभावित गांवों में से एक है। यह गांव चोटिला नगर से 35 किमी दक्षिण में स्थित है जहां 354 परिवारों का निवास है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार गांव की जनसंख्या 1,517 है। इस गांव में अहिरों (करीब 120 परिवार) का प्रभुत्व है। इसके बाद कोली समुदाय के 100 परिवार तथा बाकी बचे परिवार दलितों तथा सुथर, बावा और भरवाद जातियों के हैं। क्षेत्र में एक तरह से अहिरों का राज है और कुल सिंचाई भूमि के 90 प्रतिशत हिस्से पर उन्हीं का मालिकाना हक है। गांव के लोग सिंचाई तथा पीने के पानी के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर रहते हैं। यहां सिंचाई के लिए लगभग 125 खुले कुएं हैं। पूरे क्षेत्र की जमीन कठोर चट्टानों की है जिसके कारण यह जमीन गहरे टयूबवेल के अनुकूल नहीं है। खुले गहरे कुओं की गहराई लगभग 12 से 24 मीटर तक है। पीने के पानी की जरूरत गांव के मध्य में खोदे गये कुओं से पूरी की जाती है। विभिन्न पम्पों द्वारा पानी को उंचाई पर बने बड़े टैंकों में जमा किया जाता है जहां से इसे विभिन्न वर्गों के लोगों तक पहुंचाया जाता है। पिछले चार या पांच साल से गांव पीने के पानी की कमी से जूझ रहा है। मौजूदा कुंए मार्च महीने के शुरू में ही सूख जाते हैं और केवल मानसून के दौरान - जून के आखिर में या जुलाई के आरंभ में ही कुओं में पानी वापस आता है। 2 जिस दौरान गांव के कुओं में पीने का पानी नहीं होता है, तब गांव में पानी (जी.डब्ल्यू.एस.एस.बी.) गुजरात जल तथा सीवर निगम द्वारा टैकरों के जरिये उपलब्ध कराया जाता है। बहरहाल टैंकरों से पानी की आपूर्ति केवल अप्रैल के अंत में तथा मई के प्रारंभ में ही की जाती है। अन्य महीनों में गांव वाले पीने के पानी की जरूरत की पूर्ति खेतों के कुओं से करते हैं। वर्ष 2003-04 में खेतों के केवल 20-30 कुओं से ही पूरे दिन केवल आधे घंटे या एक घंटे के लिए पानी मिल पाता था। पीने के पानी की स्थिति को सुधारने के लिए (जी.डब्ल्यु.एस.एस.वी.) ने गांव के बीच से बहने वाले वाले दो छोटे-छोटे नालों पर दो अवरोधक बांध बना दिये। किंतु ये उपक्रम पूरी तरह से कारगर साबित नहीं हुए तथा इससे गांव वालों को मामूली राहत ही मिल पायी। यह गांव आगा खान ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम (ए के आर एस पी, भारत) के सहयोग से चलाये जा रहे जल एवं स्वच्छता प्रबंधन संगठन के समुदाय संचालित जल आपूर्ति एवं स्वच्छता कार्यक्रम के तहत आता है।

संगठन के लोगों ने पेय जल की उपलब्धता एवं स्वच्छता संबंधी गतिविधियों को संचालित करने के लिये एक कार्य योजना तैयार की। इस योजना में जी डब्ल्यू एस एस बी द्वारा बनाये गये बांधों को रेत रहित किया जाना था। ये सभी टयुबवेल के समीप स्थित हैं तथा एक्वाफर के पुनर्भरण में मददगार हैं। योजना यह थी कि बांध के पास पेय जल के लिये एक कुंआ खोदकर पानी को पाइपों के सहारे पूरे गांव में पहुंचाया जाये। योजना के अनुसार बांध को 2004 के प्रारंभ में रेत रहित कर दिया गया। मानसून के दौरान बांध दोबारा भर जाता और आसपास के 13 अन्य फार्म कुएं भी भर जाते। गांव वालों का कहना था कि ये कुएं पानी से लबालब भर गये और उससे पानी बहने लगा और ऐसा उन्होंने पिछले पांच सालों से नहीं देखा है। पानी की उपलब्धता को देखकर किसानों ने बांध के चारों तरफ की जमीन पर जाड़ों में बोयी जाने वाली फसलों जैसे कपास और अखरोट आदि बो दिये और इसका फायदा उन्हें मिलने लगा। बहरहाल 2004 के अंत में जब डब्ल्यु. ए. एस. एम. ओ सुरेन्द्रनगर और ए के आर एस पी (भारत) की समन्वय निगरानी एवं सहयोग इकाई (सी. एम. एस. यू.) ने पानी समिति के कार्यों को प्रगति को देखा तो बांध के निकट के पेय जल के लिये एक कुंये के निर्माण का मुद्दा उठा और इसे गांव की कार्य योजना में भी रखा गया। हालांकि बांध के कारण उपजी अच्छी फसल को देख कर क्षेत्र के किसानों ने पीने के पानी के कुएं का विरोध किया। किसानों को डर था कि उनके फार्म कुओं को एक्वाफर के साथ बांटा जाएगा जिससे उनको सिंचाई के लिए कम पानी मिलेगा। ये किसान अहिर थे जिनका पंचायत तथा पानी समिति में वर्चस्व था। (तालिका देखें)
जातिगत टकराव
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि जब पीने का पानी गांव के सभी लोगों के लिए है तो यह विरोध क्यों? क्या पीने के पानी की समस्या सभी को एक तरह से प्रभावित नहीं करती है? इस सवाल का जवाब गांव के सामाजिक ढांचे में छिपा हुआ है। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से गांव पर अहिरों का राज है। गांव की ज्यादा से ज्यादा जमीन पर इन्हीं का हक है तथा इनके पास पर्याप्त संख्या में फार्म कुंए हैं। गांव के सामुदायिक कुंए (जो पेय जल का स्रोत है) के सूख जाने पर भी अहिरों को कोई समस्या नहीं होती है। क्योंकि 20 से 30 कुओं में हमेशा कुछ पानी उपलब्ध रहता है हालांकि यह पानी सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं है लेकिन यह पीने के पानी की जरूरत को पूरा करने के लिये पर्याप्त है। पानी की कमी के दौरान ये अहीर परिवार फार्म पर रहते हैं ताकि उन्हें तथा उन्हें अपने जीवन यापन तथा मवेषियों के लिये पानी की जरूरत की पूर्ति हो सके। लेकिन जो परिवार गांव में ही रह जाते हैं उन्हें खेतों से पानी लाना पड़ता है। इस तरह से पानी का संकट सबसे अधिक उन लोगों को झेलना पड़ता है जिनके पास अपने खेत या फार्म कुए नहीं हैं। खास तौर पर कोली और दलित परिवारों को। कठिनाई के समय में इन परिवारों की महिलाओं को पानी के लिये ऊंची जाति के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। मंजुबेन कहती है, ''हम लोगों को पानी की कमी का बहुत अधिक सामना करना पड़ता है। अहिरों के पास अपने कुएं हैं। या तो वे अपने फार्म कुओं से पानी ले लेते हैं अथवा कठिनाई होने पर वहीं रह जाते हैं। इसलिए पानी की कमी वाले महीनों में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। हम लोगों के पास कोई कुआं नही है इसलिए हमें उन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है जिनके पास कुए हैं।''
इस निर्भरता के कारण निम्न जातियों की महिलाओं को प्रताड़ना और शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। एक दलित महिला कहती है, ''जब हमारे कुएं सूख जाते हैं तब हमें पानी की जरूरत को पूरा करने के अलावा खेतों में काम तथा अन्य जरूरतों के लिए उंची जाति के परिवारों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए हमें उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ता है। जी. डब्ल्यु. एस. एस. बी. के टैंकर का कोई भरोसा नहीं होता है।''
वहीं दूसरी तरफ अहिर जी. डब्ल्यु. एस. एस. बी. के टैंकरों का भी भरपूर फायदा उठाते हैं। जब से गांव को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया गया है तब से जी. डब्ल्यु. एस. एस. वी. टैंकरों के जरिये पानी की आपूर्ति करने के लिए बाध्य हैं। पानी की आपूर्ति ठेकेदारों के माध्यम से की जाती है जो कि अहिरों के कुओं से टैंकरों में पानी खरीदकर पास के गांवों में बांट देते हैं। अधिकतर ठेकेदार जो कि अमीर परिवारों से ताल्लुक रखते हैं इस पेशे से काफी लाभ उठाते हैं। इसलिए ये लोग पेय जल उपलब्ध कराने की परियोजना के प्रति अनिच्छुक रहते हैं क्योंकि पीने के पानी की कमी का आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर फायदा उठाकर ये लोग कमाई कर रहे हैं।
गांव की इस संरचना ने ए. के. आर. एस. पी. (भारत) तथा डब्ल्यु. ए. एस. एम. ओ. को विकल्प की तलाश के लिये मजबूर किया। विभिन्न वर्गों और पक्षों - किसानों, ठेकेदारों, पानी समिति, पंचायत तथा विभिन्न सामाजिक संगठनों की महिलाओं के साथ विभिन्न दौर की बातचीत की गयी। रेत रहित किये गये बांध के पास के किसानों ने इसमें शामिल होने से इंकार कर दिया साथ ही यह भी धमकी दी कि उस स्थान पर कुंआ खोदा गया तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। दलित तथा कोली लोगों ने उनके पीछे इस मामले को उठाया लेकिन रोजगार से हाथ धो देने के डर से कभी भी बैठकों में अपनी आवाज नहीं उठायी।
यह बात बिल्कुल साफ है कि एक ऐसा समझौता करना जरूरी था जो सामाजिक एवं तकनीकी तौर पर व्यवहारिक हो सके। ऐसे में पानी समिति ने पीने के पानी के कुएं के लिये वैकल्पिक जगह का चुनाव किया और वह जगह गांव में पेय जल के कुंए के पास स्थित है। ए. के. आर. एस. वी. (भारत) तथा डब्ल्यु. ए. एस. एम. ओ. भी इस परियोजना में शामिल हो गए हैं। ये लोग मान चुके हैं कि किसी तरह के टकराव के कारण या तो योजना बंद करनी होगी या उसमें बदलाव करना पड़ंगा। 4
दूसरे नाले पर बने दूसरे चैक बांध को रेत रहित करने से नयी जगह के पुनर्भरण में मदद मिल सकती है।
मार्च 2005 में मौके पर किये गये दौरे के दौरान हम इस बात को लेकर आश्वस्त हुये कि नया कुंआ वास्तव में बहुत अच्छी तरह से बना है और यह 24 मीटर गहरा है। पीने के पानी के कुंए के लिये नयी जगह के चुनाव से टकराव को कम करने में हालांकि मदद मिली लेकिन इससे समुदाय की भीतरी संरचना का भी पता चल गया। इससे यह तथ्य रेखांकित होता है कि सत्ता संरचना और सामाजिक तथा आर्थिक उंच-नीच के बीच निकट का रिश्ता है और जब तक संसाधनों में असमानता का समाधान नीतियों एवं जनमत के जरिये नहीं किया जाता तब तक वास्तविक मसलों का समाधान नहीं हो सकता है। डब्ल्यु. ए. एस. एम. ओ. जैसे सामुदायिक कार्यक्रमों से वितरण प्रणालियों में गति प्रदान करने तथा भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिली बल्कि 18 महीने के भीतर परियोजना को पूरा कर लिया गया।
टिप्पणियां
1. 1999-2000 के दौरान मानसून नहीं आने के मद्देनजर सरकार ने (कुल 18,637 गांवों में से) 8,666 गांवों को जल संकट से ग्रस्त घोषित किया। कुल 6,675 गांवों में पूर्ण संकट घोषित किया गया जबकि 1991 में गांवों में आर्थिक संकट की स्थिति घोषित की गयी और 7467 गांवों में पेय जल का आर्थिक संकट की स्थिति घोषित की गयी। सरकार के अनुसार बारिश में कमी आने के कारण सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तरी गुजरात जिलों में पैदावार में 29 से 31 प्रतिशत की गिरावट आयी। पैदावार के अनुमानित आंकड़ों से पता चला कि मोती बाजरा में 45 की पैदावार में प्रतिशत, सोरगम में 83 प्रतिशत, मूंगफली में 72 प्रतिशत और मूंग में 41 प्रतिशत की कमी आयी। कुल मिलाकर 4.59 करोड़ रूपये के बराबर की फसल नष्ट हुयी। (गुजरात सरकार 2000)। यह समस्या 2002 में भी बनी रही जब 25 जिलों में से 13 जिलों में सामान्य से कम बारिश हुयी। कुल मिलाकर इन जिलों के 5,144 गांवों को संकट/ आर्थिक संकट प्रभावित घोषित किया गया। खरीफ की पैदावार में 23 प्रतिशत की गिरावट होने का अनुमान किया गया जो 1,87 करोड़ रूपये के बराबर था जबकि रबी में यह नुकसान 96.9 लाख रूपये (गुजरात सरकार 2004) के बराबर था।
2. गुजरात में जून-जुलाई और सितम्बर - अक्तूबर के बीच केवल एक बार बारिश हुयी। उपरी दक्षिणी पठारी इलाकों में यह 1,000 और 2,000 मिली मीटर और कच्छ में 250 से 400 मिली मीटर के बीच बारिश हुयी। बारिश के इस स्वरूप से राज्य में जल क्षेत्र की स्थिति निधार्रित होती है। गुजरात के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 70 प्रतिशत क्षेत्र शुष्क, अर्द्धशुष्क एवं सूखा ग्रस्त क्षेत्र में पड़ता है। (पटेल 1997)
3. वासमो स्वायत्त संगठन है जिसका गठन गुजरात सरकार ने ग्राम पंचायतों और ग्रमीण समुदायों को बढ़ावा देने, सुविधायें देने और सक्षम बनाने के लिये किया है ताकि वे स्थानीय स्तर पर जल संसाधनों का प्रबंधन कर सकें और अपने लिये जल आपूर्ति व्यवस्था एवं पर्यावरण स्वच्छता प्रणाली बना सकें। यह संगठन पानी समितियों के जरिये ग्राम समुदाय को समर्थ बनाता है ताकि ग्राम समुदाय खुद अपने स्तर की जल आपूर्ति की व्यवस्था की योजना बना सकें, स्वीकृत कर सकें, लागू और क्रियान्वित कर सकें और उसका संचालन कर सकें, जल संसाधनों का प्रबंधन कर सकें और साल भर सुरक्षित एवं भरोसेमंद पेय जल की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकें। वासमो स्वयं सेवी संगठनों एवं पानी समितियों के साथ करता है तथा उन्हें वित्तीय एवं तकनीकी सहायता देता है। (www.wasmo.org).
क्रियान्वयन एजेंसियों का स्वरूप जनमत बनाने तथा भागीदारी पर आधारित होता है। परियोजना का चक्र करीब 18 महीने का होता है और जैसा कि एक अधिकारी कहते हैं, इतने कम समय में और भागीदारी के मौजूदा ढांचे के तहत किसी सामजिक बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसा गांव की सामंती संरचना तथा गरीबों एवं अमीर अहीर किसानों के बीच के रिश्तों के संदर्भ में है। किसी विकल्प के बिना गरीब दलित उच्च जातियों के किसानों के साथ कोई टकराव मोल नहीं ले सकते क्योंकि वे उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा व्यवस्था के आधार हैं। एक कोली मजदूर इस सच्चाई का बयान इन शब्दों में करता है, ''हमें पैसों की जरूरत होती है और हम अहीर किसानों के पास जाते हैं। हमें काम की जरूरत होती है, हम उनके पास ही जाते हैं। हम उनकी अवज्ञा कैसे कर सकते हैं।''
संदर्भ
गुजरात सरकार (2004) : असेसमेंट ऑफ इकोनोमी, सोसियो-इकोनोमी रिव्यू ऑफ
गुजरात स्टेट 04, डायरेक्टोरेट ऑफ इकोनोमिक्स और गुजरात सरकार, गांधीनगर
पटेल पी पी (1997) : इकोरिजिन्स ऑफ गुजरात, इकोलॉजी कमीशन, वड़ोदरा