Source
संवादसेतु-पर्यावरण, 25 अप्रैल 2011
यमुना के बारे में इतना कुछ कहा और लिखा गया है कि अब पूरे देश को इसकी दुर्दशा और इसके कारणों का मोटा-मोटा भान है। इसका बहाव क्षेत्र 1376 किमी है। कम से कम छह करोड़ आबादी को यह जल प्रदान करती है।
यमुना में यमुनोत्री के जल की न्यूनतम मात्रा बनी रहे, इसकी निगरानी के लिए समझौते के तहत जो आठ सदस्यीय समिति गठित की गई है, उसमें आंदोलनकारियों और किसानों के प्रतिनिधि भी हैं। उन्हें अपने रुख पर डंटे रहना होगा। जिस ढंग से शहरों और उध्योगों का ढांचा विकसित हो चुका है, उसमें उनके कचरे व मल-मूत्र से और सिंचाई ढांचों के लिए जानेवाले पानी से युमना को मुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य है।यमुना में यमुनोत्री के जल की न्यूनतम मात्रा बनी रहे, इसकी निगरानी के लिए समझौते के तहत जो आठ सदस्यीय समिति गठित की गई है, उसमें आंदोलनकारियों और किसानों के प्रतिनिधि भी हैं। उन्हें अपने रुख पर डंटे रहना होगा। जिस ढंग से शहरों और उद्योगों का ढांचा विकसित हो चुका है, उसमें उनके कचरे व मल-मूत्र से और सिंचाई ढांचों के लिए जानेवाले पानी से युमना को मुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य है। तत: केंद्र सरकार ने यमुना मुक्ति के लिए संघर्षरत सत्याग्रहियों की मांग मानकर तत्काल यमुना में न्यूनतम पानी छोड़ने का सकरुलर जारी कर दिया है। सरकार से समझौते के बाद यमुना बचाओ अभियान ने अपना अनशन समाप्त कर दिया है, लेकिन आंदोलन जारी रखने की घोषणा की है। यह स्वाभाविक है। वास्तव में इसे यमुना को बचाने की अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई कहा जा सकता है। जंतर-मंतर पर यमुना नदी को बचाने के लिए 15 अप्रैल से अनिश्चितकालीन अनशन व धरना चल रहा था। शुरू में केवल उत्तर प्रदेश के किसान, कुछ धार्मिक संगठनों से जुड़े स्त्री-पुरुष ही अनशन व धरने में शामिल थे, फिर धीरे-धीरे अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठन भी शामिल होने लगे। कुछ अप्रवासी भारतीय भी यमुना बचाने के लिए आ गए। कुछ अनशन पर थे तो कुछ उनका साथ देने के लिए एक-एक दिन का अनशन कर रहे थे। हालांकि कुछ दिनों पहले लोकपाल के गठन को लेकर आयोजित चार दिन चले अनशन को मिले प्रचार से इसकी तुलना करें तो हाथी बनाम चूहे का उदाहरण भी फिट नहीं बैठेगा। क्यों?
इस ‘क्यों’ का उत्तर हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। ऐसा भी नहीं है कि यह सत्याग्रह अचानक आयोजित हो गया। पिछले 3 मार्च से यमुना नदी को बचाने के लिए इलाहाबाद के संगम तट से 750 किलोमीटर पदयात्रा करके सत्याग्रही 14 अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचे। इसकी सूचना सरकार को दी गई थी। इतनी लंबी यात्रा में जनजागरण और यमुना से जुड़ी बस्ती के लोगों का समर्थन पाते हुए यहां तक पहुंचने के बाद सत्याग्रहियों को उम्मीद थी कि इसकी गूंज सरकार के कानों तक पहुंची होगी और उनकी मांगें स्वीकार कर ली जाएंगी। अभियान का नेतृत्व करने वाले भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह लगातार दोहरा रहे थे कि सरकार से कोई भी संतोषजनक बात नहीं हो रही है। 15 अप्रैल को ही उन्होंने घोषणा की कि जब तक सरकार उनकी मांगें नहीं मान लेती, हम यहां से वापस नहीं जाएंगे। वास्तव में यदि सरकार 14 अप्रैल को ही उनसे बातचीत करके मांग मानने का आश्वासन दे देती तो नौबत यहां तक नहीं आती। बातचीत में उन्होंने प्रश्न उठाया कि इतनी लंबी हमारी यात्रा थी, रास्ते में हजारों लोग जुड़ रहे थे, स्थानीय मीडिया में भी समाचार आ रहे थे, क्या इसकी सूचना सरकार को नहीं थी? क्या कांग्रेस के नेताओं ने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सोनिया गांधी, राहुल गांधी को नहीं बताया? जल संसाधन मंत्री तो उत्तर प्रदेश के ही हैं। स्थानीय प्रशासनों के अधिकारियों के साथ-साथ खुफिया विभाग ने तो अवश्य अपनी रिपोर्ट भेजी होगी। फिर क्यों नहीं सरकार ने डेढ़ महीने में कोई निर्णय किया? बिल्कुल वाजिब प्रश्न था। धीरे-धीरे माहौल गरम हो चुका था और सत्याग्रही उग्र आंदोलन की भी तैयारी करने लगे थे। रेल रोकने तक की तैयारी हो रही थी।
यमुना के बारे में इतना कुछ कहा और लिखा गया है कि अब पूरे देश को इसकी दुर्दशा और इसके कारणों का मोटा-मोटा भान है। इसका बहाव क्षेत्र 1376 किमी है। कम से कम छह करोड़ आबादी को यह जल प्रदान करती है। इसके जल से जीवन पाने वाले जीव जंतुओं और वनस्पतियों की तो कोई गणना ही नहीं। राजधानी दिल्ली में यमुना के नाम पर पेटी में जो जल हम देखते हैं, उसमें यमुना के उद्गम यमुनोत्री का एक बूंद भी जल नहीं है। यमुना बिल्कुल सड़े हुए गंदे पानी का बड़ा नाला ही रह गई है। किसी नदी का सड़ जाना वास्तव में उससे जुड़ी सभ्यता-संस्कृति, उनसे विकसित जीवन प्रणाली का सड़ जाना है। जाहिर है, नदी का उद्धार उस क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति का उद्धार है। गंगा और यमुना का आर्थिक-सामाजिक महत्व तो है ही, ये भारत की सांस्कृतिक पहचान भी हैं। धारा को अविरल व निर्मल बनाए रखना सरकार का दायित्व है, मगर उसने दायित्व का निर्वाह नहीं किया। इसमें दो राय नहीं कि अब यमुना को दुर्दशा से पूरी तरह मुक्त करने के लिए समय चाहिए। मसलन, इससे जुड़ने वाले शहरों के मल-मूत्र सहित सीवरों के पानी को नदी में आने से रोकने के लिए कुछ नए ट्रीटमेंट प्लांट लगाने होंगे और पुराने प्लांटों की दिशा बदलनी होगी। उनके लिए अलग से नाला बनाकर शोधित जल को सिंचाई के लिए खेतों तक भेजना होगा। दिल्ली व राजधानी क्षेत्र में हिंडन कट सहित शाहदरा व अन्य 14 नालों के यमुना में प्रवाह को रोकने और वजीराबाद व ओखला बांधों के बीच नदी के साथ सीवेज प्रणाली का निर्माण करना होगा। सत्याग्रहियों ने इसीलिए मांगों को दो भागों दीर्घकालिक व तात्कालिक में विभाजित किया है। उनकी तात्कलिक मांग यही थी कि इस समय यमुना में पर्याप्त पानी छोड़कर उसे नाले की जगह फिर नदी के रूप में परिणत किया जाए।
सरकार हथिनी कुंड यानी ताजेवाला बैराज व वजीराबाद बैराज से क्रमश: 4.5 क्यूसेक व 4 क्यूसेक पानी छोड़ने पर राजी हुई है। यकीनन यह यमुना मुक्ति संघर्ष की विजय है, लेकिन अभी बड़ा फासला तय करना है। हथिनी कुंड के आगे यमुना का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म हो जाता है। सरकार के टाल-मटोल वाले रवैये से आशंकित आंदोलनकारियों ने समझौते के बावजूद निर्णय किया कि जब तक वे यमुना में अवरिल धारा देख नहीं लेते हटेंगे नहीं। एक बार पानी छोड़ने से नदी का प्रदूषण हल्का होगा। इससे दिल्ली से इलाहाबाद तक लोगों को यमुना का जल मिलेगा और संगम के बाद यमुना-गंगा का मिश्रित जल। इतना करने मात्र से यमुना के स्वरूप में भारी अंतर आ जाएगा। इसके अलावा तत्काल यमुना को जीवन देने के लिए दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। यमुना के मुक्ति का पहला अनिवार्य कदम यहीं से आरंभ हो सकता है।