यूं ही बहता रहेगा अथिरापल्ली का पानी!

Submitted by Hindi on Fri, 05/06/2011 - 14:17
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चौथी दुनिया

केरल में पश्चिमी घाट स्थित वझाचल के जंगलों में बहने वाली चलाकुडी नदी को छोड़ते हुए मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ रही हूं। मेरे दिल में एक अजीब तरह की चिंता घर करती जा रही है। मैं जो लिख रही हूं, इसे पढ़ने वालों में कम लोग ही यहां तक आए होंगे। लेकिन, जो लोग मेरे अनुभवों के साझीदार हैं, वे इसकी अहमियत समझ सकते हैं। जैसे-जैसे मैं पारिस्थितिकी रूप से कमज़ोर हो चुके इस इलाक़े से दूर जा रही हूं, वैसे-वैसे मेरे हृदय पटल पर कई दृश्य अंकित होते जा रहे हैं। इनमें सबसे रोचक है बीस से भी ज़्यादा मॅकाकों (छोटी पूंछ वाले बंदरों की एक प्रजाति) को एक साथ देखना। शेर की तरह के पूंछ वाले बंदरों की यह प्रजाति पश्चिमी घाट के इलाक़ों में पाई जाती है, लेकिन इन बंदरों को यह नहीं पता कि उन पेड़ों का भविष्य क्या है, जिनकी डालियां पकड़ कर वे अठखेलियां करते हैं। इसका फैसला तो दिल्ली में मौजूद सत्ता के गलियारों में होगा।

 

 

हालांकि यह समझना और भी ज़रूरी है कि अथिरापल्ली प्रोजेक्ट के ख़िला़फ पिछले एक दशक से कई तरह के अभियान चल रहे हैं। यह बांध एक ऐसी नदी पर बनाया जा रहा है, जिसका बिजली पैदा करने या सिंचाई कार्यों के लिए पहले ही जमकर दोहन किया जा चुका है। इसके बहाव क्षेत्र में पहले से ही छह प्रोजेक्ट चल रहे हैं।

पिछले क़रीब दो महीनों से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंदर गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई है कि इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी जाए या नहीं। रोचक तथ्य यह है कि जनवरी, 2010 में मंत्रालय ने केरल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (केएसईबी) को एक कारण बताओ नोटिस जारी किया। नोटिस में केएसईबी से यह पूछा गया था कि प्रोजेक्ट को लेकर 2007 में दिए गए पर्यावरणीय क्लीयरेंस को वापस क्यों न ले लिया जाए। केएसईबी को यह क्लीयरेंस एक केंद्रीय क़ानून के तहत वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ही दी गई थी। मंत्रालय ने यह नोटिस उन जानकारियों के आधार पर जारी किया है, जिसके मुताबिक़ 163 एमवी के अथिरापल्ली हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के निर्माण से इस इलाक़े में रहने वाली कादर जनजातियों पर बुरा असर पड़ेगा। इसके अलावा इससे इलाक़े की जैव विविधता भी प्रभावित होगी। मंत्रालय के इस नोटिस के बारे में जानकर मुझे ख़ुशी हुई. साथ ही यह आश्चर्य भी हुआ कि मंत्रालय को यह तर्क पहले क्यों नहीं सूझा।

हालांकि यह समझना और भी ज़रूरी है कि अथिरापल्ली प्रोजेक्ट के ख़िला़फ पिछले एक दशक से कई तरह के अभियान चल रहे हैं। यह बांध एक ऐसी नदी पर बनाया जा रहा है, जिसका बिजली पैदा करने या सिंचाई कार्यों के लिए पहले ही जमकर दोहन किया जा चुका है। इसके बहाव क्षेत्र में पहले से ही छह प्रोजेक्ट चल रहे हैं। इनमें से पांच केरल में स्थित हैं, जबकि एक तमिलनाडु में जंगलों से होकर बहने वाली जलधाराओं के लिए अपने प्राकृतिक स्वरूप को बचाकर रखना वैसे ही मुश्किल होता है, इलाक़े के वनक्षेत्र में लगातार हो रही कमी से समस्या और गंभीर होती जा रही है। नतीजा यह है कि वझाचल क्षेत्र और चलाकुडी नदी के निचले इलाक़े में स्थित लोकप्रिय अथिरापल्ली जलप्रपात का इलाक़ा ही ऐसा बचा है, जहां नदी अपने पूरे वेग से बहती है। यदि नया बांध बन जाता है तो यही इलाक़ा सबसे ज़्यादा प्रभावित होगा। अथिरापल्ली प्रोजेक्ट के लिए प्रस्तावित जगह से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर नदी का अधिकांश हिस्सा पहले से बने बांधों के चलते स्थिर और ठहरा पड़ा है। कई जगहों पर नदी का पानी पाइपों से होते हुए प्रोजेक्ट के दूसरे हिस्सों तक पहुंचता है। यदि कुछ जगहों पर नदी का बहाव तेज़ भी नज़र आता है तो इसकी वजह प्राकृतिक नहीं, बल्कि नदी के बहाव के ऊपरी क्षेत्र में स्थित बांधों से छूट रहे पानी का प्रवाह है।

यही वजह है कि स्थानीय कादर जनजाति और अथिरापल्ली इलाक़े में रहने वाले ग़ैर जनजातीय समुदायों ने प्रोजेक्ट के ख़िला़फ अदालत एवं उसके बाहर शांतिपूर्ण अभियान छेड़ रखा है। वर्ष 1998 में पहली बार क्लीयरेंस मिलने के बाद से प्रोजेक्ट के तकनीकी और वित्तीय पहलुओं को बार-बार चुनौती दी गई है। केरल उच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में 2002 और 2006 में दो बार लोक अदालतें भी लगाई गई हैं। कम से कम दस स्थानीय निकाय संस्थाओं ने यह प्रस्ताव पारित किया है कि प्रोजेक्ट के निर्माण से पीने के पानी और सिंचाई की उनकी ज़रूरतों पर बुरा असर पड़ेगा। वर्ष 2005-06 और 2008-09 में पूरे देश से हज़ारों लोगों ने अथिरापल्ली में स्थानीय निवासियों द्वारा आयोजित सत्याग्रह में हिस्सा लिया था और प्रोजेक्ट के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद की थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि तमाम विरोध के बावजूद केएसईबी ने वन मंत्रालय की नोटिस के जवाब में लिखा है कि प्रोजेक्ट के ख़िला़फ स्थानीय स्तर पर कोई विरोध नहीं है। इसे निरा झूठ और ग़ैर ज़िम्मेदार बयानबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत केएसईबी द्वारा प्रायोजित एन्वॉयरोंमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट (ईआईए) रिपोर्ट में इन सब बातों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। ईआईए की रिपोर्ट में कादर जनजाति के लोगों के गांव वझाचल पर पड़ने वाले प्रभाव की भी कोई चर्चा नहीं की गई है, जबकि यह गांव बांध निर्माण के प्रस्तावित स्थल से केवल 500 मीटर दूर स्थित है। 22 एवं 23 मार्च, 2010 को केएसईबी के अधिकारियों को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की एक्सपर्ट एप्रेजल कमेटी (ईएसी) के सामने अपना पक्ष रखने का मौक़ा मिला. लेकिन, बड़े दु:ख की बात है कि प्रोजेक्ट निर्माण के ख़िला़फ शांतिपूर्ण संघर्ष कर रहे स्थानीय लोगों एवं कार्यकर्ताओं को अभी तक यह मौक़ा नहीं मिला है, जबकि वे वर्षों से यह मांग कर रहे हैं। ख़ैर, यह तो हाल के दिनों की बात है।

इस बीच स्थानीय मीडिया में प्रोजेक्ट को लेकर कई तरह की अपुष्ट ख़बरें आ रही हैं। ऐसी ही एक ख़बर में बताया गया है कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने ईएसी की रिपोर्ट पर तथ्यों की कमी के कारण दस्तखत करने से इंकार कर दिया है। चलाक्कुडी नदी के भविष्य का फैसला करने वाली ताक़त उस जगह से सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित है, जहां यह नदी बहती है। मैं तो बस यही दुआ करती हूं कि इस नदी और यहां रहने वाले लोगों का सातवीं बार दोहन न हो और अथिरापल्ली नदी में पानी का प्रवाह इसी तरह बना रहे।
 

 

 

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