क्या आपने कभी ऐसा गाँव देखा या सुना है, जिसके हर दो में से एक घर में पानी से लबालब कुंडियाँ हों। इस जल संकट के दौर में जब पूरे गाँवभर को पानी नसीब नहीं हो पा रहा हो ऐसे में यह पानीदार गाँव बिरला ही हो सकता है। इन्हें अपने रोज के पानी के लिये कहीं बाहर जाने और मशक्कत करने की कोई कवायद ही नहीं करनी पड़ती। देशभर के लाखों गाँवों से अलग इस गाँव ने पानी का बेशकीमती खजाना अपने ही घरों में छुपा रखा है। यहाँ के कुल 1700 घरों में से 800 से ज़्यादा घरों के आँगन में उनकी अपनी कुंडियाँ हैं, जिनमें नीला पानी ठाठे मरता रहता है।
मध्यप्रदेश के चमचमाते भोपाल–इंदौर हाईवे पर देवास से करीब 20 किमी पहले एक छोटा-सा तिराहा पड़ता है। इसे नेवरी फाटा के नाम से ही पहचानते हैं। बस यहाँ से 15 किमी दूरी पर है यह गाँव। देवास जिले की हाटपीपल्या के पास छोटा-सा सात–आठ हजार की आबादी वाला गाँव नेवरी। बीच सड़क पर होने से यह गाँव अब किसी कस्बे से बस गया है। ज्यादातर पक्के मकान, सीमेंट की सडकें और कुछ जगमग करती दुकानें। दूर से देखने पर यह गाँव भी आपको बाकी गाँवों की तरह ही नजर आएगा। लेकिन इसकी खासियत सुनेंगे तो आपको भी हैरत होगी। नए चलन में ढलने के बाद भी इस गाँव ने पानी के लिये अपनाई जाने वाली अपनी अनूठी और बेशकीमती परम्परा को बनाए रखा है, इसीलिये गर्मियों के दिनों में भी यहाँ के लोगों को दूसरे गाँव वालों की तरह जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता।
आखिर क्या है यह अनूठी और बेशकीमती परम्परा, क्या आप नहीं जानना चाहेंगे इसे, हमारे पूर्वज पानी को लेकर कितने सजग थे और उस संसाधनविहीन दौर में भी जीवन के लिये सबसे ज़रूरी पानी के प्रति उनकी समझ कितनी साफ़ और समृद्ध थी और उनके समय का पानी के लिये अभियांत्रिकी ज्ञान तो आज की पढ़ी–लिखी पीढ़ी के लिये भी आश्चर्य की बात ही है। इसी बेमिसाल पानी की समझ और उसकी लगातार आपूर्ति के लिये उनके अभियांत्रिकी कौशल का नायाब नमूना है यह छोटा-सा गाँव।
यह अनूठी परम्परा है घर–घर कुंडियाँ बनाने की। दरअसल अपने घर के आँगन में करीब तीस फीट की गहराई और पाँच से सात फीट की चौड़ाई के आकार में ये कुंडियाँ बनाई जाती हैं। ज्यादातर कुंडियाँ गोलाकार ही होती हैं लेकिन कुछ चौकोर या पंचकोणीय भी होती हैं। इन्हें खुदवाने के बाद ईंटों या सीमेंट से पक्का भी किया जाता है। अब ज्यादातर परिवारों ने या तो इनकी मुंडेर बना दी हैं या उन्हें लोहे के मोटे सरियों की जालियों से ढक कर उनमें जल मोटर लगा दी है। कुछ कुंडियाँ अब भी खुली हैं और उनमें बकायदा पुरानी तरह से ही रस्सी डालकर पानी खींचा जाता है। अधिकांश कुंडियों में पूरी गर्मियों के मौसम में जून तक पर्याप्त पानी भरा रहता है और इस तरह गाँव भी पानीदार बना रहता है।
यहाँ की वर्तमान पीढ़ी और पूर्वजों की पीढ़ी इस बात के लिये तारीफ़ के काबिल हैं कि उन्होंने पानी के मोल को समझा और अगली पीढ़ी के लिये अपने गाँव का पानी सहेज–समेट कर रखा। गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि बीते करीब सौ सालों में उन्होंने कभी अपने यहाँ पानी की किल्लत का सामना नहीं किया। कैसा भी समय आया और कितनी ही गर्मी पड़ी लेकिन हमारे अपने ही घरों के आँगन में बनी इन जल संरचनाओं में नीली बूँदे हमें हमेशा ही जीवन रस देती रही। पूर्वजों की पीढ़ी ने अपने आँगनों में ये नायाब तकनीक स्थापित की और वर्तमान पीढ़ी ने नए चलन के साथ चलने और अपने मकानों को पक्का बनवाने की होड़ के बाद भी इन कुंडियों के स्वरूप से कोई छेड़-छाड़ नहीं की। उन्हें यथावत बने रहने दिया। इतना ही नहीं इस विरासत को अब वे आगे भी बढ़ा रहे हैं।
ग्रामीण बताते हैं कि गाँव में अब भी जब कोई नया मकान बनता है तो सबसे पहले कुंडी बनाई जाती है। अभी–अभी रामसिंह चौधरी ने अपना नया मकान बनवाया है और वे भी गाँव की रिवायत के मुताबिक अपने आँगन में कुंडी बनवाना नहीं भूले हैं। कुछ गाँवों में तो घर–घर कुंडियाँ बनाई जाती थी। इसका एक बड़ा फायदा यह भी होता था कि पानी के लिये घर की महिलाओं को दूर जलस्रोतों तक पानी की जुगत में भटकना नहीं पड़ता था।
नेवरी के पूर्व सरपंच देवीसिंह पाटीदार कहते हैं– 'यहाँ कुंडियों की शुरुआत कब से हुई, यह बताना तो मुश्किल है पर हाँ, यह तय है कि सैकड़ों साल पहले जब यह गाँव हमारे पूर्वजों ने बसाया, करीब–करीब तभी से यहाँ कुंडियाँ बनाने की भी बात सामने आती है। कई घरों में अब भी बहुत पुरानी (सैकड़ों साल की) कुंडियाँ हैं और अब भी वे पानी दे रही हैं। बताते हैं कि यह गाँव करीब बारह सौ साल पहले परमार काल के वक्त से बसा है और तब से अब तक यह परम्परा चली आ रही है।'
क्षेत्र के सजग पत्रकार नाथूसिंह सैंधव कहते हैं– 'यहाँ शुरुआत से पानी की कोई किल्लत नहीं थी फिर भी पूर्वजों ने पानी की लगातार आपूर्ति और पानी को धरती में रिसाने के लिये यह परम्परा शुरू की थी। दरअसल कुंडियों का पानी शुद्ध और पीने के लिये सेहतमंद होता है। घर में कुंडी रहने से पानी की उपलब्धता के साथ–साथ गर्मियों में भी घर ठंडा और वातानुकूलित बना रहता है। पहले के जमाने में धनाढ्य घरों में ही कुंडियाँ बनाई जाती थी लेकिन अब गाँव के सभी वर्गों के लोगों के यहाँ कुंडियाँ देखी जा सकती हैं।'
भूजलविद बताते हैं कि जिन गाँवों में पानी की किल्लत ज़्यादा नहीं होती थी और भूजल स्तर भी सामान्य हुआ करता था, वहाँ इस तरह की कुंडियों के बनाने का रिवाज़ आम हुआ करता था। इससे लगातार रिचार्ज होते रहने की वजह से भूजल भंडार यथावत बना रहता था। आस-पास नमी और ठंडक रहती थी तथा सबसे बड़ी बात कि धरती के भूजल भंडार के खजाने में भी धीरे–धीरे पानी रिसता रहता और उसके खजाने को समृद्ध करता रहता था। यह बनाने में आसान हुआ करती थी और मकान बनाते वक्त सबसे पहले इसके बन जाने से मकान निर्माण में लगने वाले पानी की समस्या नहीं रहती थी। इसी के पानी से मकान भी बन जाता और बाद में यही पानी परिवार के पीने और अन्य उपयोग में भी आता रहता था।
नेवरी गाँव उन हजारों हजार गाँवों के लिये एक बड़ी मिसाल है, जो साल दर साल धरती का सीना छलनी करते हुए बोरिंग कराते रहते हैं। बावजूद इसके पीने तक के बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज हुए रहते हैं। इस गाँव ने अपनी विरासत को सहेज कर जल संकट का स्थाई निदान कर लिया है और अच्छी बात यह भी है कि नई पीढ़ी के लोग भी इसका महत्त्व समझ रहे हैं और कुंडियों की विरासत को न सिर्फ़ सहेज रहे हैं बल्कि नई कुंडियाँ बनवाकर इसे आगे भी बढ़ा रहे हैं। आज देश को ऐसे कई गाँवों की ज़रूरत है जो अपना पानी अपने ही आँगन में रोक सके।
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