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तालाब को गहरा करते हुए इसकी गाद वाली काली मिट्टी ट्रैक्टरों में भरकर ले जाने की पंचायत ने अनुमति दे दी। देखते-ही-देखते जून के पहले हफ्ते तक गाँव के लोगों ने यहाँ से करीब चार हजार ट्रॉली मिट्टी और मुरम खोद डाली। इससे कई जगह तो तालाब डेढ़ से दो मीटर तक गहरा हो गया। पंचायत ने तालाब तक आने वाली बारिश के पानी की नालियों को गहरा कर साफ-सुथरा करवाया।इससे हुआ यह कि इस साल कम बारिश होने के बाद भी तालाब में पर्याप्त पानी पहुँचा और आमतौर पर हर साल दीवाली तक सूख जाने वाला यह तालाब अब जनवरी के महीने में भी लबालब भरा है।
कल्पना कीजिए, उस गाँव के बारे में जहाँ बीते साल ठंड और गर्मियों में एक बोतल पीने का पानी खरीदने के लिये दो से तीन रुपए तक चुकाने पड़ते थे, वहाँ इस बार औसत से भी कम बारिश होने पर क्या हालात बन रहे होंगे। आप यही कहेंगे कि इस साल तो हालत और भी खराब होगी। लेकिन इस साल कम बारिश होने के बावजूद यह गाँव पानीदार बना हुआ है। इसके लिये बीते साल गाँव के लोगों और पंचायत ने बस थोड़ी-सी मेहनत की और अब यह गाँव बाकी गाँवों के लिये पानी की आत्मनिर्भरता के मामले में मिसाल बन चुका है। गाँव के कुएँ-कुण्डियों से लगाकर हैण्डपम्प और ट्यूबवेल भी लगातार पानी उलीच रहे हैं।अब जानते हैं कि ऐसा क्या हुआ जो कम बारिश होने के बाद भी यह गाँव अब तक पानीदार बन हुआ है... तो आइए चलते हैं इस गाँव की ओर। मध्य प्रदेश में इन्दौर-बैतूल राष्ट्रीय राजमार्ग पर इन्दौर से करीब 60 किमी दूर चापड़ा गाँव पड़ता है। यह गाँव सड़कों के चौराहे पर है और चौबीसों घंटे यहाँ वाहनों की आवाजाही बनी रहती है। इन्दौर और बैतूल के साथ यह गाँव बागली और देवास को भी जोड़ता है। इसलिये इसे चापड़ा चौपाटी भी कहा जाता है।
करीब आठ-दस हजार की आबादी वाले इस छोटे से गाँव में देवास रोड पर बरसों पुराना एक बड़ा तालाब है। पहले यह गाँव से सटा हुआ था, लेकिन अब आबादी बढ़ने से इसके आसपास भी लोग रहने लगे हैं। एक कॉलोनी श्याम नगर तो तालाब के बहुत पास ही बनी है, जिसमें करीब सौ मकान बने हैं।
दो-तीन पीढ़ी पहले यहाँ के ग्रामीणों ने इस तालाब को अपने गाँव के लोगों के निस्तारी कामों के लिये जनसहयोग से बनाया था। तालाब में बारिश का पानी भरता और गर्मियों के मौसम तक इसमें पानी भरा रहता। इस तालाब में पानी भरे होने का सबसे बड़ा फायदा यह था कि आसपास के कुएँ-कुण्डियों के तल में गर्मियों के दिनों में भी मीठे पानी के सोते फूटते रहते। गाँव में पानी की कभी कोई किल्लत नहीं रही।
कभी पानी का संकट नहीं था तो किसी ने तालाब की तरफ कुछ खास ध्यान भी नहीं दिया। पंचायत ने भी तवज्जो नहीं दी और तालाब अपनी उपेक्षा के चलते छोटा और उथला होता गया। साल-दर-साल तालाब में गाद जमते जाने से तालाब की गहराई बहुत कम रह गई। ठंड के दिनों में ही पानी सूखने लगा और तालाब का मैदान बच्चों के खेलने के काम आने लगा। दिसम्बर-जनवरी महीने में यहाँ खंड स्तर से लेकर जिला स्तर तक की क्रिकेट प्रतियोगिताएँ होने लगीं।
तालाब की अनदेखी हुई तो गाँव का प्राकृतिक जलस्तर भी लगातार गहराता गया। कुएँ-कुण्डियों में पानी की कमी हुई तो सरकार ने और लोगों ने अपने निजी खर्च से ट्यूबवेल और हैण्डपम्प लगाने शुरू किये, लेकिन धरती में ही पानी नहीं था तो इनमें पानी कहाँ से आता। जलस्तर बहुत गहरे तक चला गया। हजारों रुपए खर्च कर किये जाने वाले ट्यूबवेल बेकार होने लगे।
लोगों को पानी के संकट ने परेशान कर दिया। हर सुबह पानी की किल्लत और खाली बर्तनों की खड़खड़ाहट के साथ शुरू होती तो देर रात तक पानी के लिये मारामारी बनी रहती। टैंकर वाले कहीं से पानी का इन्तजाम तो कर देते लेकिन यह पानी आम लोगों को काफी महंगा पड़ रहा था। एक बोतल पानी के लिये दो से तीन रुपए तो एक सामान्य परिवार के लिये महीने भर का पानी का खर्च ही तीन सौ से पाँच सौ रुपए तक हो जाता है। एक सामान्य तथा मजदूरी करने वाले परिवारों के लिये यह काफी बड़ा खर्च था।
गाँव के लोग पानी के संकट से बड़े परेशान थे लेकिन उनके पास इसका कोई यथोचित उपाय नहीं था। बीते तीन सालों से जब लोग इस संकट से बुरी तरह तंग आ गए तो पंचायत में इस पर बात करने के लिये गाँव भर के लोग इकट्ठा हुए। यहाँ काफी विचार-विमर्श के बाद भी जब कोई बात नहीं जँची तो बुजुर्गों ने कहा कि जब तक गाँव से सटे इस तालाब की सुध नहीं लोगे, तब तक गाँव से पानी का संकट दूर नहीं हो सकता। जल संकट से आजिज आ चुके लोगों के लिये यह बात उम्मीद की किरण की तरह थी।
यहाँ की महिला सरपंच सौरमबाई को भी लगा कि बात तो सही है। तालाब में किसी तरह गर्मियों तक पानी भरा रह सके तो इसका फायदा गाँव के जलस्तर बढ़ाने में मिल सकता है। लेकिन शुरुआत कहाँ से की जाये और इसके लिये पैसा कहाँ से आएगा... इस पर देर तक बात होती रही। पंचायत के पास इतना पैसा था नहीं तो तय किया गया कि जनभागीदारी से तालाब का गहरीकरण तथा पालबंदी की जाये।
सरपंच सौरमबाई की पहल पर बातों-ही-बातों में ऐसे किसानों की सूची बनाई गई, जिन्हें अपने खेतों के लिये मिट्टी की जरूरत थी। कुछ अन्य लोगों ने भी अपने मकान आदि में भराव करने के लिये मिट्टी की आवश्यकता जताई। बीते साल अप्रैल के महीने से किसानों और अन्य लोगों को तालाब को गहरा करते हुए इसकी गाद वाली काली मिट्टी ट्रैक्टरों में भरकर ले जाने की पंचायत ने अनुमति दे दी। देखते-ही-देखते जून के पहले हफ्ते तक गाँव के लोगों ने यहाँ से करीब चार हजार ट्रॉली मिट्टी और मुरम खोद डाली। इससे कई जगह तो तालाब डेढ़ से दो मीटर तक गहरा हो गया। पंचायत ने तालाब तक आने वाली बारिश के पानी की नालियों को गहरा कर साफ-सुथरा करवाया।
इससे हुआ यह कि इस साल कम बारिश होने के बाद भी तालाब में पर्याप्त पानी पहुँचा और आमतौर पर हर साल दीवाली तक सूख जाने वाला यह तालाब अब जनवरी के महीने में भी लबालब भरा है। इसके पानी को सिंचाई में लेने पर प्रतिबन्ध है। फिलहाल तालाब में कई जगह पाँच से नौ फीट तक पानी भरा हुआ है। इतना ही नहीं पूर्व सरपंच नानूराम यादव के कार्यकाल में तालाब की पाल पर जो पौधे रोप गए थे, वे पानी के अभाव में सूखने की कगार पर थे लेकिन तालाब में पर्याप्त पानी होने से अब वे भी पेड़ के आकार में तब्दील हो रहे हैं।
स्थानीय पत्रकार नाथूसिंह सैंधव कहते हैं- 'चापड़ा पानी के लिये एक मिसाल बनकर उभरा है। अब आसपास के लोग भी इस साल अपने गाँव के तालाबों को सुधारने की बात कर रहे हैं। गहरीकरण से न सिर्फ यहाँ के तालाब में नीला पानी ठाठे मार रहा है, बल्कि जलस्तर बढ़ जाने से इसके आसपास के कुएँ-कुण्डियों तथा ट्यूबवेल-हैण्डपम्पों में भी अब तक पानी भरा है। उम्मीद है कि गर्मियों तक इसमें पानी भरा रहेगा। इस साल बीते सालों की तरह गाँव में पानी का संकट नहीं है। गाँव भर के जलस्रोत पानी दे रहे हैं। मवेशियों के लिये पानी तालाब से मिल जाता है। पानी होने से किसानों और यहाँ के लोगों के चेहरे भी अब पानीदार हो गए हैं।'
सरपंच सौरमबाई कहती हैं- 'बीते साल 2016 में हमने जो प्रयोग किया, वह बहुत कारगर साबित हुआ है। पूरे गाँव को इसका फायदा मिला और हम आत्मनिर्भर बन गए। अब इस साल गर्मियों में हम तालाब का बाकी काम भी लगाएँगे। इस बार भी जनभागीदारी से तालाब के गहरीकरण की योजना बनाकर जनपद पंचायत को भेजी है। ग्रामीण इससे खास उत्साहित हैं।'
श्याम नगर निवासी प्रेमनारायण शुक्ल कहते हैं- 'बीते दस सालों में पानी का संकट बढ़ता ही चला गया। सरकार ने हैण्डपम्प और ट्यूबवेल खुदवाए लेकिन जमीन में ही पानी नहीं तो इनमें पानी कैसे आता... बीते तीन सालों से तो हालात इतने गम्भीर है कि ठंड के दिनों से ही खेतों के कुओं से पानी लाना पड़ता था या मोल खरीदकर। एक बोतल पानी के लिये दो से तीन रुपए तक चुकाना पड़ता था। लेकिन अब ऐसा दिन नहीं आएगा'
बुजुर्ग जगन्नाथ यादव कहते हैं- 'गाँव पानी का मोल भूल गया था। तालाब के कारण जलस्तर अच्छा होने से कभी गाँव ने पानी का संकट नहीं झेला तो लोगों ने पानी का अनादर और जलस्रोतों की अनदेखी करनी शुरू कर दी। बीते बीस सालों में तालाब के पानी का उपयोग तो सबने किया लेकिन किसी ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। तालाब गर्मियों से पहले ही सूखने लगा। गाद जमते-जमते तालाब बहुत उथला हो गया। लोगों ने धीरे-धीरे अतिक्रमण कर तालाब को पाटने लगे। अच्छा-भला तालाब गंदले डोबरे में बदलने लगा तो गाँव में भी पानी की हाहाकार सुनाई देने लगी। बीते साल लोगों को अपनी गलती का अहसास हुआ और अब तालाब ने हमें माफ भी कर दिया।'
चापड़ा के लोगों ने तो अपनी गलती सुधारकर प्रायश्चित कर लिया, लेकिन देश के हजारों गाँव अब भी अपने जलस्रोतों की उपेक्षा कर रहे हैं। इस बार गर्मियों से पहले ऐसे हजारों गाँवों को अपने जलस्रोतों को सहेजने-सँवारने का संकल्प लेना होगा ताकि बारिश के बाद वे भी पानीदार बन सकें...