अब नदी नहीं बहती….

Submitted by admin on Sun, 03/09/2014 - 15:36
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पर्यावरण चेतना
कभी इस
घर के पीछे
एक नदी बहती थी, आज सूख गई है
वह धारा
जो प्रलयंकर वेग से बहकर एक नया प्रकम्पन
उत्पन्न करती थी।
दूर-दूर तक बहा ले जाती थी
करीबी झोपड़ियां
मवेशी और दरवाजे
सोये नन्हें-नन्हें बच्चों
को रात में।
बहा ले जाती थी बड़े-बड़े पेड़
दूर-दूर मीलों तक।
बदल देती थी आसपास
के खेतों की मिट्टी।
शरण लेते थे लोग
ऊंची-ऊंची टेकरियों पर जाकर।
नदी बढ़ती थी
नदी घटती थी
निहारा करते थे-
एक नई आशा में लोग।
छोड़ नहीं पाये गांव, घर
एक मोह प्रत्याशा में लोग।
जुड़ी थी इससे पूर्वजों की
स्मृतियां, बड़ी-बड़ी
बाढ़ की कहानियां।
भरा रहता था
इसके पेट में जल ही जल।
बनते-उजड़ते गांव।
अब तो नदी सूखी पड़ी है
दूर-दूर तक रेत फैली है।
एक बूंद पानी
वर्षों से नहीं बहा है
चिड़ियों ने गीत गाकर
कुछ नहीं कहा है।
रह गयी है पास
नदी की स्मृतियां।
वह नदी सूख गई है,
इस नदी में नहाते, धोते
डुबकियां लगाते
मीलों तैरते निकल जाते
पीने को जल ले जाते
घड़ों में लोग।
वह नदी कहां चली गई
नदी का जीवनान्त हो गया है।
ओ बादल!
तुम बरसते क्यों नहीं हो?
बीत जाते हैं आषाढ़, सावन, भादों
तुम दिखायी नहीं देते आकाश में।
कहां चले गए हो
ओ काले बादल!
नदी एक बांध से घिर गई है
अब नदी नहीं बहती है
सूखी पड़ी है वह।