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विश्व खाद्य दिवस, 16 अक्टूबर 2017 पर विशेष
आदिवासियों को अपने संचित ज्ञान से यह मालूम था कि किस मौसम और समय में उन्हें क्या खाना चाहिए। वे अकाल और बाढ़ के वक्त भी अपने और अपने परिवार को सुरक्षित रख लिया करते थे। मोटे अनाजों, जंगल के फल-फूल और पत्तियों तथा जंगली जानवरों के शिकार से उन्हें किस तरह पोषण मिल सकता है, इसकी भी जानकारी थी। इनसे उनके शरीर को यथोचित पोषक तत्व मिल जाया करते थे। ऐसे खाद्य पदार्थ उनके घरों में लम्बे समय तक वे संग्रहित कर लेते थे, जबकि आज के अनाज जल्दी ही खराब होने लगते हैं। Tribal crisis on food security
जंगलों में रहने वाला हमारा आदिवासी समाज परम्परागत तरीके से अपनी खाद्य सुरक्षा सदियों से करता रहा है, लेकिन इन दिनों आदिवासी इलाकों में खाद्य सुरक्षा की स्थिति ठीक नहीं है। परम्परागत तौर-तरीकों और मोटे अनाज का रकबा तेजी से घटने के कारण आदिवासी बच्चे कुपोषण तथा गम्भीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। एक तरफ जहाँ सरकार ने पूरे देश में खाद्य सुरक्षा कानून लागू किया है, वहीं दूसरी तरफ आदिवासी समाज में खानपान को लेकर कई विसंगतियाँ हैं।
कभी आदिवासी समाज जंगलों में रहकर वहाँ के पेड़-पौधों और यहाँ होने वाले मोटे अनाज की फसलों पर निर्भर हुआ करता था। लेकिन आज न तो जंगलों पर इनकी निर्भरता बची है और न ही मोटा अनाज इनके हाथ में रहा। आज ये सरकारी योजना में मिलने वाले 'सरकारी गेहूँ' की कृपा पर आश्रित होते जा रहे हैं। यहाँ बाँटे जाने वाले इस गेहूँ की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। जन संगठनों के मुताबिक कई जगह सड़ा हुआ गेहूँ बाँटा जा रहा है।
अब से करीब 30-35 साल पहले तक स्थितियाँ ऐसी नहीं थी। आदिवासी अपने खानपान को लेकर किसी पर आश्रित नहीं थे। वे भूखे तो रहते ही नहीं थे, अपनी पीढ़ियों पुरानी समृद्ध परम्परा और संचित ज्ञान से उन्हें ऐसी तकनीकों और खाद्य सामग्री का पता भी था, जिससे वे कठोर मेहनत करते हुए भी तन्दरुस्त रहा करते थे। महज कुछ सालों में आदिवासी समाज आत्मनिर्भर की जगह आश्रित क्यों हो गया। यह सवाल लाजमी ही है।
इसी सवाल को लेकर हम पहुँचे थे मध्य प्रदेश के भोपाल से करीब साढ़े पाँच सौ किमी दूर दुर्गम आदिवासी इलाके डिंडौरी में। डिंडौरी से पूरा रास्ता सरई और शीशम के झूमते पेड़ों और दिलकश प्राकृतिक नजारों से भरा पड़ा है। उस पर बारिश का मौसम सोने पर सुहागा। लगता है किसी स्वर्गिक जगह पर आ पहुँचे हों लेकिन अभी बहुत कुछ जानना-समझना बाकी था। गौरा गाँव में हमारी मुलाकात हुई अगरिया जनजाति के तोकसिंह से। खपरैलों वाले कुछ झोपड़ों में बीच का झोपड़ा उनका ही है। झुर्रीदार चेहरे पर छितरी-सी दाढ़ी और सिर पर फेंटा बाँधे चुस्त-दुरुस्त अधेड़ उम्र के तोकसिंह और उनकी पत्नी जुगरीबाई से हमने बात शुरू की तो परत दर परत कई सच सामने आने लगे।
उन्होंने बताया कि अगरिया जनजाति सदियों से लोहे को भट्टियों में गलाकर गोंड आदिवासियों तथा दूसरी जातियों के लिये खेती के औजार और शिकार के हथियार बनाते रहे हैं। इनकी अपनी कभी कोई खेती नहीं रही। ये लोग पहले तो खदानों से लोहा निकालने और उसे साफ कर भट्टियों में पकाने का काम भी करते थे। औजार बनाने के बदले इन्हें यहीं पकने वाला कोदो-कुटकी, बाजरा, समा आदि इतना मिल जाया करता था कि परिवार का पेट भर जाया करता था। उनके और जुगरी के बूढ़े शरीर में भी लोहे जैसी मजबूती नजर आ रही थी।
वह बताते हैं कि अब औजार अब पहले की तरह नहीं बिकते और ना ही उतनी तादाद में बन पाते हैं। उनका काम बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने छीन लिया है। सीलबन्द चमचमाते एक सरीखे करीनेदार लोहे के औजार चमकीली पन्नियों में बाजार में बिकने लगे तो फिर उन्हें और उनके बनाए हथियारों को कौन पूछेगा। औजार बनाने का हूनर तो आज भी हाथ में रखा है लेकिन इसका अब क्या मोल। तोकसिंह आज भी हाट बाजार में बेचने लायक औजार बनाते हैं और जैसे-तैसे अपना गुजर-बसर करते हैं। अगरिया शब्द का अभिप्राय आग पर काम करने वाले लोगों से है। आदिवासियों के देवता अज्ञासुर जिनका जन्म आग की लौ से माना जाता है, उन्हीं अज्ञासुर से अगरिया जनजाति के नामकरण को जोड़कर देखा जाता है।
अगरिया जाति में सम्भवत: तोकसिंह ऐसे अकेले इंसान बचे हैं जिन्हें आज भी पहाड़ों और जमीन में छुपे लोहे के पत्थर की पहचान है। तोकसिंह कहते हैं कि कव्वागढ़ के पहाड़ों में अभी भी लोहा मिलता है। लेकिन अब यहाँ से पत्थर नहीं ला सकते। वन विभाग वाले मना करते हैं। केस बनाने की धमकी देते है। तोक सिंह की भट्टी आँगन में अब भी है लेकिन ये कम ही इस्तेमाल होती है। तोक सिंह की अगली पीढ़ी औजार बनाना नहीं जानती और ना ही उनकी इसमें कोई दिलचस्पी है।
पहले औजारों के बदले गाँव के लोग उन्हें कोदो-कुटकी का इतना अनाज दे जाते थे कि साल भर कोठियों में भरा रहता था। उड़द की दाल और भाजियों के साथ कोदो-कुटकी की खुराक इतनी ताकत देती कि शरीर मेहनत-मशक्कत के साथ सरपट दौड़ता था। अब ना धन्धा बचा ना अनाज और ना ही वह व्यवस्था। अब उनका परिवार थोड़ी-सी खेती कर पेट भरने इतना अनाज उगाते हैं...थोड़े बहुत औजार तैयार कर उन्हें हाट बाजार में बेच आते हैं, जिससे तेल-मसाला ले आते हैं। पहले मेहनत का अनाज खाते थे अब सरकार का नमक खाते हैं। अब के लोग-लुगाई का ना शरीर चलता है, ना मेहनत वैसी रही।
यह एक बानगी है, इधर के सालों में आये बदलाव को आँकने की। आदिवासियों को अपने संचित ज्ञान से यह मालूम था कि किस मौसम और समय में उन्हें क्या खाना चाहिए। वे अकाल और बाढ़ के वक्त भी अपने और अपने परिवार को सुरक्षित रख लिया करते थे। मोटे अनाजों, जंगल के फल-फूल और पत्तियों तथा जंगली जानवरों के शिकार से उन्हें किस तरह पोषण मिल सकता है, इसकी भी जानकारी थी। इनसे उनके शरीर को यथोचित पोषक तत्व मिल जाया करते थे। ऐसे खाद्य पदार्थ उनके घरों में लम्बे समय तक वे संग्रहित कर लेते थे, जबकि आज के अनाज जल्दी ही खराब होने लगते हैं। इनसे ही वे अपने बीज बचाकर रखते थे। जंगलों के कंदमूल स्वादिष्ट होने के साथ पौष्टिक भी हुआ करते थे। कई खाद्य पदार्थों को ये सूखा कर रख लिया करते थे। इसके साथ ही मौसम के अनुकूल भाजियाँ और सब्जियाँ भी इन्हें सुपोषित रखती थीं।
ताजा दौर में सरकारी नीतियाँ तो बनी लेकिन उनमें इन्हें शामिल नहीं किया गया। इस वजह से इनके खानपान पर बुरा असर पड़ रहा है। इन्हें अपढ़ समझकर इनके सदियों पुराने संचित ज्ञान और प्रबन्धन की कहीं पूछ-परख तक नहीं है। इनकी नई पीढ़ी भी अब इन्हें भूलने लगी है। इससे अब इनके बच्चे भुखमरी और कुपोषण का शिकार बन रहे हैं।
इसी तरह बरगा कुरैली पहाडों और जंगलों से घिरा हुआ कोई 300 की आबादी वाला एक रमणीय गाँव है, जिसमें भरिया, परधान, अगरिया और अहीर जाति के लोग रहते हैं। सबसे ज्यादा अगरिया। सरकारी मुर्गी पालन और थोड़ी बहुत खेती ही आजीविका का साधन बन गया है। थोड़ा और भीतर जाने पर गाँव में एक पक्की इमारत देखने को मिली। पता चला सरकार ने अगरिया जनजाति के हूनर को लौटाने के मकसद से ये एक म्यूजियम बनाया है जिसमें लुप्त हो रही अगरिया की महारत को लौटाया जा सके। बेतरतीब सरकारी व्यवस्थाओं से इनकी आजीविका पर तो खतरे के बादल हैं ही, उनमें जेनेटिक बदलाव और खाद्य सुरक्षा को भी चौपट कर दिया। इन्होंने अपने पारम्परिक खाद्यान्न कोदो-कुटकी, भाजियाँ, वन औषधियाँ और खानपान को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। सरकार से मिले जमीन के पट्टे पर फसल उगाने में माहिर नहीं होने पर भी जैसे-तैसे कोदो-कुटकी उगाने का जतन किया गया। भूखे मरने की नौबत आने पर मजदूरी भी करना पड़ी। मुर्गी पालन केन्द्र खोले गए। यहाँ के लोग बताते हैं कि राशन की दुकानों पर एक रुपए किलो का सड़ा गेहूँ और चावल भेजा गया जबकि यह कभी इस जनजाति का पारम्परिक अनाज रहा ही नहीं। स्कूली बच्चों को मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जाते हैं।
आश्चर्य कि सेहत के लिये बेहद पौष्टिक मोटा अनाज कोदो-कुटकी पूरी तरह जैविक होता है। लेकिन कृषि विभाग के अफसर जब इन गाँवों में दाखिल होते हैं तो कीट-पतंगों से अपनी फसल को बचाने के नाम पर कीटनाशक दवाइयों के छिड़काव की बिन माँगी सलाह दे जाते हैं। इस गाँव में अगरिया जनजाती के कुल 36 परिवार हैं। कृषि विभाग की सलाह पर अब इन्होंने धान, मक्का, उड़द और अरहर की खेती भी शुरू कर दी है। कोदो-कुटकी 36 में से सिर्फ 6 परिवार के लोग उगाते हैं। 65 साल के मंगल सिंह धुर्वे पिछले कई सालों से पारम्परिक धन्धे से दूर अपने तीन एकड़ के खेत में दो फसल करते हैं। मंगल सिंह कहते हैं- 'उनके शरीर की तरह जमीन की ताकत भी कमजोर पड़ती जा रही है। खेतों में कीटनाशक दवाइयों के बगैर फसल नहीं होती। दवाइयों के बारे में सबसे पहले कृषि विभाग के अफसरों ने ही बताया था।'
गाँव के ही 30 साल के राजकुमार मरावी बताते हैं कि उनके पास भी तीन एकड़ जमीन है। कुआँ भी है। दो बेटे हैं। धान, मक्का, चना, गेहूँ, मसूर और उड़द उगाते हैं। थोड़ा बहुत होता है बाकी तो सरकार का एक रुपए किलो का अनाज और मध्यान्ह भोजन से ही पेट भरता है। सरकारी अनाज कभी-कभी तो इतना खराब आता है कि जानवर भी ना खा सके लेकिन उनके पास ना खाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि उनकी अगली पीढ़ी में इस बिगड़े खान-पान से फौलादी ताकत तो दूर औजार उठाने की ताकत भी बचेगी या नहीं, ये एक बड़ा सवाल है।
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