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गाँधी मार्ग, नवम्बर-दिसम्बर 2015
हमारे शरीर को चलाए रखने के लिये एक निश्चित मात्रा में शर्करा की जरूरत है। लेकिन हमें आगे-पीछे इस मिठास को न्यायपूर्वक पाते रहने के लिये इसके वर्तमान औद्योगिक ढाँचे से विरत होना ही पड़ेगा। जब तक ऐसा नहीं हो पाता शक्कर की यह कहानी समाज के लिये कड़वी से कड़वी बनती जाएगी।
हमारे शरीर को चलाए रखने के लिये कुछ मात्रा में शर्करा की जरूरत होती है पर औद्योगिक स्तर पर इसके उत्पादन के नुकसान पूरे समाज पर इतने बुरे हो रहे हैं कि इससे तो हमें छुटकारा पाना ही होगा। खेती पर आते जा रहे, बढ़ते जा रहे संकट, किसानों की आत्महत्याएँ थम नहीं पा रहीं, उधर कर्नाटक के मांड्या और महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में चीनी के कड़वे इतिहास की काली छाया आज गहरी होती जा रही है।उष्णकटिबन्धीय देशों में गन्ने से शक्कर बनती रही है। लेकिन यूरोप, अमेरिका आदि जैसे ठंडे देशों में गन्ना उगाया ही नहीं जा सकता था। इसलिये यूरोप आदि का एक बड़ा भाग शहद से मीठा बनाता था। पर शहद इतनी बड़ी मात्रा में भला कैसे उपलब्ध होती और किस कीमत पर?
सत्राहवीं सदी तक यूरोप के कुछ देशों ने दुनिया के पश्चिमी गोलार्ध में बसे अपेक्षाकृत गरम जलवायु वाले देशों को गुलाम बना लिया था। तब उन्हें लगा कि यहाँ के खेतों में गन्ने की फसल उगाई जा सकती है। पर इस फसल को बोना और काटना तथा पेरना एक कठिन काम था। इन नए उपनिवेशों की आबादी बिरली थी और जो थी वह इस कुशल काम के लिये उपयुक्त नहीं थी।
इस समस्या का हल घृणित रूप से सरल-सा था। अफ्रीका के निवासियों को गुलाम बनाना। अटलांटिक समुद्र के रास्ते पनपे इस गुलामी के व्यापार ने आने वाली सदियों में अफ्रीका महाद्वीप और वहाँ के निवासियों को बहुत ही निर्लज्ज, दुख भरे समुद्र में डुबो दिया था। इस घृणित व्यापार ने यूरोप के अनेक लोगों को अकूत दौलत दी और यूरोप की साधारण जनता को सस्ती चीनी की विपुल उपलब्धि प्रदान कर दी थी।
हमारे देश में न जाने कब से गन्ना उगाया जाता रहा है और उससे तरह-तरह का गुड़ बनाया जाता रहा है। लेकिन गन्ने से परिष्कृत सफेद चीनी का औद्योगिक किस्म का उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही था। यह बस शुरू होता है उन्नीसवीं सदी में। प्रारम्भ के वर्षों में तो हमारा चीनी उद्योग औपनिवेशिक आदेशों और उसकी ज़रूरतों पर खड़ा किया जा रहा था, पर फिर जल्दी ही उस पर अन्य उष्णकटीय गुलाम देशों में यूरोप के सत्ताधारियों की पनप चली सनक भी सवार हो गई। ब्राजील में पुर्तगाली साम्राज्य था, कैरिबियन द्वीपों में अंग्रेजों का राज था आरै इधर हमार देश के निकट जावा में डच लोग आ घुसे थे। सन् 1800 के आते-आते इंग्लैंड में गुलामों की घृणित प्रथा के विरुद्ध आवाजें उठने लगी थीं। 1830 के दौर में अंग्रेजों को गुलामी प्रथा का उन्मूलन करना पड़ा था। इस कदम का असर पड़ा चीनी के व्यापार पर। गुलामों का घृणित व्यापार तो गया पर उसे सभ्य-सा दिखने वाला एक नया मुखौटा पहना दिया गया- काम का परमिट देकर हजारों लाखों गरीब बना दिये गए भारतीयों को जहाजों में ठूँस कर ब्रितानी उपनिवेशों में ला पटका। गुलामी प्रथा एक नए रूप में फिर जीवित हो उठी थी।
कोई सौ बरस गिरमिटिया, परमिट पर गए लोगों के हाथों हो रहे चीनी उत्पादन ने एक और मोड़ लिया। सन् 1930 में हमारे देश के उद्योगपति अंग्रेज सरकार के प्रश्रय से यहीं भारत में चीनी उद्योग खड़ा करने में जुट गए। सरकारी नीतियाँ भी साधारण किसान के हित के बदले अमीर उद्योगपति और केन्द्रिय पद्धति से बनने वाली चीनी के प्रति झुकी हुई थीं। इसलिये अब ऐसे गन्ने की फसल पर काम किया जाने लगा जो मिलों में तो आसानी से पेरा जा सके, पर जिसे गुड़ बनाने के लिये गाँवों में हाथ से पेरना सम्भव न हो।
इस नीति के विरुद्ध आवाज उठाने वालों में श्री जे.सी. कुमारप्पा का नाम आता है। गाँधीजी के रचनात्मक कामों के लिये अपना जीवन देने वाले श्री कुमारप्पा विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के चिन्तक थे। सन् 1934 में खुद गाँधीजी ने देश के नवोदित विज्ञान-समुदाय से अपेक्षा रखी थी कि वह ग्रामीण समाज की जरूरतों का ध्यान रखेगा। लेकिन उन्होंने पाया कि यह समुदाय औपनिवेशिक ढाँचे की तरफ ही झुका हुआ था। गाँधीजी ने गुड़ के विज्ञान को, उसके रासायनिक योग को समझने के लिये उस समय अनेक विशेषज्ञों को पत्र लिखे थे। लेकिन ये लोग उत्तर तक नहीं दे पाये थे।
इन गाँधीवादियों ने उस समय केवल औपनिवेशिक नीति की आलोचना तक अपने को सीमित नहीं रखा था। सन् 1930 के बाद कोई बीस बरस तक श्री कुमारप्पा अपने कुछ साथियों के साथ ग्रामोद्योग वस्तुओं को सुधारने और उन पर कई तरह के प्रयोग करने में व्यस्त रहे थे। उनका कहना था कि देश में गन्ने की खेती को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। यह खेती कीमती जमीन और भारी मात्रा में पानी को बर्बाद करती है। इससे अच्छा होगा कि हम आसानी से उपलब्ध कई तरह के ताड़ वृक्षों से गुड़ बनाएँ। यह गन्ने से बनी चीनी के मुकाबले हमारे शरीर के लिये भी बेहतर है। फिर गन्ने की फसल की प्यास बहुत ज्यादा है। उसे खूब सारा पानी चाहिए और चाहिए उम्दा जमीन। पर ताड़ के वृक्ष तो उबड़-खाबड़ जमीन पर उग आते हैं। उनकी देखभाल भी आसान है और लागत खर्च भी नाममात्र है। श्री कुमारप्पा का कहना था कि उस समय की आबादी और उसकी जरूरत के मुताबिक देश के अनेक भागों में ताड़ गुड़ पैदा कर सकने लायक पेड़ और फल उपलब्ध हैं।
आँकड़े बताते हैं कि सन 1947 में पैदा हो रहे गन्ने का दो-तिहाई भाग गाँव-गाँव में गुड़ बनाने में लग रहा था। लेकिन हमारी लोकतांत्रिक सरकार इस स्थिति को पलटने की योजनाएँ बना रही थी। अभी आजादी मिली ही थी कि सरकार ने देश के कई भागों में गन्ने से गुड़ बनाने की परम्परागत पद्धति पर कानूनी रोक लगाने के कई सारे आदेश दे डाले थे।
कुमारप्पा ने उस दौर में खुल रही नई चीनी मिलों का भी विरोध किया था। उनका कहना था कि इन इलाकों में ग्राम उद्योग के माध्यम से बन रहे गुड़ का विकेन्द्रत ढाँचा टूट जाएगा, बेरोजगारी बढ़ेगी। अचरज की बात तो यह है कि उनकी बात न तो ब्रिटिश राज ने सुनी और न स्वराज आने के बाद इस पर कोई ध्यान दिया गया। आँकड़े बताते हैं कि सन् 1947 में पैदा हो रहे गन्ने का दो-तिहाई भाग गाँव-गाँव में गुड़ बनाने में लग रहा था। लेकिन हमारी लोकतांत्रिक सरकार इस स्थिति को पलटने की योजनाएँ बना रही थी। अभी आजादी मिली ही थी कि सरकार ने देश के कई भागों में गन्ने से गुड़ बनाने की परम्परागत पद्धति पर कानूनी रोक लगाने के कई सारे आदेश दे डाले थे। गन्ना पैदा करने वाला किसान भला क्या करता। वह धीरे-धीरे अपने आसपास खड़ी की जा रही चीनी मिलों में खिंचता गया था।आज कोई साठ बरस बाद चीनी की औद्योगिक अर्थव्यवस्था ने परम्परागत ढंग से बनने वाले ग्राम-उद्योगी गुड़ का सारा विकेन्द्रित कारोबार निगल लिया है।
विकल्प कुछ बचा नहीं है। किसान अब मजबूर है अपना गन्ना अपने क्षेत्र में बताई गई चीनी मिल को नियंत्रित दाम पर बेचने के लिये। राज्य की नीतियाँ उसके विरुद्ध हैं, चीनी मिलें उसका शोषण करती हैं, समय पर पैसा नहीं देतीं और तो और सहकारी समितियाँ भी उसे कहीं का नहीं छोड़तीं क्योंकि वे भी तो गाँवों के दबंगनुमा उच्चवर्ग के हाथों में हैं। गन्ने का किसान इन सबके हाथों कैसे फँस गया है इसका उदाहरण देते हुए भी बहुत बुरा लगता है। सन् 2014-15 में हमारे गन्ना उत्पादक किसानों पर चीनी मिलों की बकाया राशि 21,000 करोड़ रुपए बताई गई है। एक तो ऐसी जीवट की खेती और फिर चीनी मिलों द्वारा पूरा भगुतान न मिलना, या अक्सर पूरा भुगतान ही रोक लेने से यह 21,000 करोड़ की राशि बन पाई है। कितना बड़ा अन्याय है। और यह सच्चाई किसी को क्यों नहीं दिख पाती है। देश के अन्य क्षेत्रों में भी यही प्रवृत्ति देखने में आती है। ये मिल मालिक और वहाँ के राजनेता कोई दो अलग-अलग लोग नहीं हैं। अक्सर वे एक होते हुए दो भूमिकाएँ निभाते हैं। इन परिस्थितियों में ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारा आज का चीनी उद्योग उपनिवेश वाली अर्थनीति का ही नया संस्करण है।
हमने किसान की दुर्दशा देखी। अब देखें उपभोक्ता की हालत। पिछले कुछ वर्षों में चीनी की कीमत में गिरावट आई है, लेकिन इसके कारण रिफाइंड सफेद चीनी आसानी से मिलने लगी है। इससे इसकी खपत बढ़ी है। खासकर, उस तरह के बाजारू खाद्य पदार्थों में जिसे अब जंक फूड कहा जाता है। आज उपभोक्ता इस सफेद चीनी के कारण कई तरह की बीमारियों की चपेट में है। मोटापा बढ़ रहा है। मधुमेह की बीमारी हर वर्ग में फैल चली है और इसी तरह हृदय सम्बन्धी रोग भी।
कुछ उपभोक्ता इस परिस्थिति को समझने लगे हैं और उनकी चेतना के कारण अच्छे गुड़ के प्रति लोगों का ध्यान जा रहा है। लेकिन दुखद तो यह है कि जो पूरे देश में सब घरों में आसानी से मिल सकने वाला गुड़ था, अब वही अपने नए अवतार में ‘स्वास्थ्यवर्धक’ बनकर मंहगा हो गया है और कुछ इने-गिने परिवारों में खाया जा रहा है।
बड़े अटपटे ढंग से उपनिवेश काल में पैदा हुआ और बाद में लोकतांत्रिक सरकार की नई नीतियों से बे-हिसाब फैलता गया यह चीनी उद्योग संकट आसानी से हल होता नहीं दिखता। इसमें बाहर, भीतर की और भी कई परिस्थितियाँ जुड़ती रहती हैं। अन्तरराष्ट्रीय बाजार से अनेक कारणों से चीनी के दामों में घट-बढ़ होती है। कभी ‘इथनोल’ बनाने की बात होती है तो कभी उपलब्ध सिंचाई का ढाँचा गन्ने की फसल की प्यास नहीं बुझा पाता।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आधुनिक चीनी उद्योग और उसके अर्थशास्त्रा ने न किसानों का ध्यान रखा है और न उपभोक्ताओं का। जैसा कि प्रारम्भ में भी कहा है, हमारे शरीर को चलाए रखने के लिये एक निश्चित मात्रा में शर्करा की जरूरत है। लेकिन हमें आगे-पीछे इस मिठास को न्यायपूर्वक पाते रहने के लिये इसके वर्तमान औद्योगिक ढाँचे से विरत होना ही पड़ेगा। जब तक ऐसा नहीं हो पाता शक्कर की यह कहानी समाज के लिये कड़वी से कड़वी बनती जाएगी।
श्री वेणु माधव गोविंदू की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग में प्राध्यापक हैं। शीघ्र ही उनके द्वारा लिखी गई श्री जे.सी. कुमारप्पा की जीवनी प्रकाशित होने जा रही है। हिंदी रूपांतर अ.मि. द्वारा