अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

Submitted by Hindi on Sat, 09/23/2017 - 16:53
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डॉ. राजबहादुर सिंह भदौरिया रीडर, अर्थशास्त्र विभाग जनता महाविद्यालय अजीतमल जिला-औरैया (उ.प्र.), सत्र - 2000

भौगोलिक स्थिति वर्षा एवं आर्द्रता मिट्टी, प्राकृतिक वनस्पतियाँ कृषि उद्योग सहकारी समितियाँ परिवहन एवं संचार सुविधायें जनसंख्या :


किसी भी अर्थव्यवस्था का स्वरूप, निर्धनता एवं संपन्नता, विविधीकरण एवं जीवन-यापन की गतिविधियाँ वहाँ के पर्यावरण, जिसमें प्राकृतिक संसाधन अत्यंत प्रमुख है, से प्रभावित होता है। वे समस्त वस्तुयें जो मनुष्य को प्रकृति से बिना किसी लागत के उपहार स्वरूप प्राप्त हुई है प्राकृतिक संसाधन कहलाती है। इस प्रकार किसी अर्थव्यवस्था की भौगोलिक स्थिति उपलब्ध भूमि एवं मिट्टी, खनिज पदार्थ, जल एवं वनस्पतियाँ आदि प्राकृतिक संसाधन माने जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेषज्ञ समिति के अनुसार ‘‘मनुष्य अपने लाभपूर्ण उपयोग के लिये प्राकृतिक संरचना अथवा वातावरण के रूप में जो भी संसाधन प्राप्त करता है, उसे प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। मिट्टी व भूमि के रूप में प्राकृतिक, साधन वनस्पति तथा पेड़ पौधों को पोषण देते हैं। इसके अतिरिक्त सतही और भूमिगत जल संसाधन मानव, पशु व वनस्पति जीवन के लिये अत्यंत आवश्यक पदार्थ है। जल विद्युत ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। और जल मार्गों पर परिवहन के विभिन्न साधनों का विकास निर्भर है।’’

प्राकृतिक साधनों के कुछ विशिष्ट पहलू होते हैं, प्राकृतिक संसाधन समाज को नि:शुल्क बिना किसी विशेष प्रयास के प्राप्त होते हैं। प्राकृतिक संसाधन स्वत: निष्क्रिय होते हैं। वे अपनी उपस्थिति मात्र से ही मानव जीवन को सुविधा प्रदान करते हैं और अस्तित्व का आधार प्रदान करते हैं। यदि इनका सुविचारित विदोहन किया जाय तो इनकी उपादेयता अधिक हो जाती है। समाज की प्रत्येक आर्थिक क्रिया का क्रियान्वयन प्राकृतिक संसाधनों की भूमिका से प्रभावित होता है परंतु कृषि कार्यों का तो प्रत्यक्ष और तत्कालिक संबंध प्राकृतिक संसाधनों से होता है। कृषि एक जैविक क्रिया है। पौधों की जीवन क्रिया एवं उनका उत्पादन स्तर भूमि क्षेत्र, मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता, वर्षा एवं जलवायु से अत्यधिक प्रभावित होता है। वस्तुओं को उपभोग काबिल बनाने की प्रक्रिया यांत्रिक है परंतु कृषि एक जैविक क्रिया है। पौधों का विकास प्राकृतिक तत्वों से पोषित होकर स्वयं होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पौधों का विकास आधारिक रूप से भौतिक संख्या जलवायु एवं मिट्टी इत्यादि पर्यावरणीय दशाओं से आधारिक रूप से प्रभावित होता है। यहाँ कृषि से संबंधित विभिन्न पर्यावरणीय घटकों यथा भौगोलिक स्थिति, भौतिक स्वरूप, वर्षा तापमान मिट्टी सूखा, बाढ़ आदि का विश्लेषण किया गया है।

1. भौगालिक स्थिति :-


किसी भी क्षेत्र के निवासियों की आर्थिक क्रियाएँ वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों द्वारा प्रत्यक्षरूप से निर्देशित तथा नियंत्रित होती है। भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है जो मुख्य रूप से जलवायु और मिट्टी पर निर्भर है। मिट्टी भारतीय कृषक की अमूल्य संपदा है जिसका प्रभाव मानव के भोजन वस्त्र और निवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर पड़ता है। जहाँ भौगोलिक परिस्थितियाँ मानव के अनुकूल नहीं होती है उन क्षेत्रों में मनुष्य की आर्थिक क्रियायें जैसे- कृषि, पशुपालन एवं व्यापार आदि बाधित होते हैं। और मानव मात्र जीवन निर्वाह की स्थिति में रहता है। अनुकूल भौगोलिक स्थितियों वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादन भी उच्च होता है। जिससे लोगों का पोषण स्तर उच्च रहता है जिसका प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। वस्तुत: अध्ययन क्षेत्र का विश्लेषण कृषि उत्पादन, पोषण स्तर तथा कुपोषण जनित बीमारियों से संबंधित है। अत: अध्ययन क्षेत्र की भौतिक परिस्थितियों का ज्ञान आवश्यक हो जाता है।

(अ) स्थिति विस्तार एवं प्रशासनिक संगठन -
प्रस्तावित अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद मंडल के अंतर्गत आता है यह जनपद 25052 से 26022 उत्तरी अक्षांश तथा 81049 पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है। जनपद का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3717 वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में सुल्तानपुर जनपद पूर्व में जनपद जौनपुर, दक्षिण में जनपद इलाहाबाद तथा पश्चिम में जनपद रायबरेली तथा फतेहपुर स्थित है। व्यावसायिक दृष्टि से संपूर्ण जनपद 4 तहसीलों -

1. प्रतापगढ़
2. कुण्डा
3. लालगंज तथा
4. पट्टी में विभक्त है तथा 15 विकासखंडों द्वारा ग्रामीण विकास कार्यक्रम संचालित होते हैं।

विकासखंड


1. कालाकांकर
2. बाबागंज
3. कुण्डा
4. बिहार
5. सांगीपुर
6. रामपुरखास
7. लक्ष्मणपुर
8. संडवा चंद्रिका
9. प्रतापगढ़ सदर
10. मान्धाता
11. मगरौरा
12. पट्टी
13. आसपुर देवसरा
14. शिवगढ़
15. गौरा है।

(ब) भौतिक स्वरूप :-


संरचना की दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र भारत के उत्तरी मैदानी भाग का एक अभिन्न अंग है। इस विस्तृत मैदानी भाग का पुरातन भूगर्भ प्लीस्टोसीन युगीन व गंगा द्वारा लाई गयी जलोढ़ मिट्टी के निक्षेप से आवृत्त है। हिमालय के पादप प्रदेश में स्थिति एवं विशाल गर्त में अवसाद के निक्षेपीकरण से हुई है। अत: अध्ययन क्षेत्र जलोढ़ मिट्टियों से बना एक भूभाग है। इसकी रचना, बालू क्ले तथा सिल्ट से हुई है कहीं-कहीं बजरी तथा कंकड़ भी जाये जाते हैं।

(स) उच्चावच :-


धरातल प्राकृतिक पर्यावरण का एक अति महत्त्वपूर्ण अवयव है। मानव के आर्थिक क्रिया कलापों पर धरातल का प्रभाव प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होता है। धरातलीय स्वरूपों के आधार पर क्षेत्र संचार सुविधा, मानव अधिवास और कृषि उपयोग आदि निर्धारित होते हैं। गंगा यमुना के मध्य स्थित अन्य क्षेत्रों की भाँति अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ में कृषि उपयोग, खाद्यान्य संसाधनों एवं भूआकृति स्वरूपों में घनिष्ठ संबंध है। जनपद प्रतापगढ़ की धरातलीय बनावट में गंगा, सई तथा पीली नदियों का अधिक प्रभाव पड़ा है। जनपद का समस्त धरातल नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टियों से बना है जो लगभग समतल है परंतु बीच-बीच में कहीं-कहीं असमतल भाग भी दृष्टिगोचर होते हैं जिसमें ऊँचे-ऊँचे टीले तथा कटे-फटे क्षेत्र पाये जाते हैं। ये स्थान अधिकांश नदियों के किनारे दिखायी पड़ते हैं। जनपद का सामान्य ढाल उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर है जिसमें कुछ स्थानीय विषमतायें पाई जाती है।

(द) जलवायु एवं वर्षा -


कृषि कार्य जलवायु पर निर्भर होता है। जलवायु का मिट्टी की बनावट और पौधों के विकास पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। अत: सफल कृषि प्रणाली यह अपेक्षा करती है कि फसलों का चुनाव बुआई, और सिंचाई का समय तथा उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से संदर्भ में जलवायु की दशाओं के अनुसार निर्णय लिया जाये। मौसम की प्रतिकूलताओं तथा वर्षा की कमी या अधिकता, शीतलहर या धूल भरी आँधी, नमी की कमी के कारण कृषि में निहित जोखिम पर ध्यान दिया जाये। इसलिये जलवायु के विभिन्न घटकों, यथा ऋतु परिवर्तन, वायु, तापमान, वर्षा आदि की जानकारी आवश्यक है। यह कृषि व्यवसाय को अधिक सक्षम बनाता है एवं जोखिम तत्व में कमी करता है।

जनपद प्रतापगढ़ गंगा के उत्तरी भाग में स्थित मानसूनी जलवायु वाला क्षेत्र है जिसका प्रभाव यहाँ के निवासियों के रहन सहन, क्रिया कलापों, व्यवसाय तथा कृषि पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। जनपद प्रतापगढ़ का आर्थिक आधार कृषि है जो मुख्य रूप से तापमान वर्षा तथा वायुदाब पर निर्भर है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने जनपद प्रतापगढ़ की जलवायु को निम्नलिखित भागों में बाँटा है।

1. ग्रीष्म ऋतु -


मार्च से लेकर जून तक का समय ग्रीष्म ऋतु के अंतर्गत आता है। उत्तर भारत के तापमान में फरवरी के अंत तक तापमान बढ़ने लगता है तथा जून माह तक उत्तरी मैदानी भाग अत्यधिक गर्म हो उठता है जिससे पूरे जनपद में भीषण गर्मी पड़ती है। मार्च का अधिकतम तापमान 39.60 सेंटीग्रेड अप्रैल का 43.80 सेंटीग्रेड, मई का 46.50 सेंटीग्रेड तथा जून का अधिकतम औसत मासिक तापमान 47.70 सेंटीग्रेड रहता है। दूसरी ओर मार्च का न्यूनतम औसत तापमान 9.80 सेंटीग्रेड रहता है। मई-जून इस ऋतु के सबसे अधिक गर्मी वाले महीने हैं, दिन में तेज धूप होती है और गर्म हवायें चलती हैं।

वर्षा एवं आर्द्रता :-


इस ऋतु में सम्पूर्ण उत्तरी मैदानी भाग शुष्क रहता है चूँकि मार्च के बाद तापमान बढ़ने लगता है इसलिये वायुमंडल में आर्द्रता घटने लगती है। अध्ययन क्षेत्र में मई माह में आपेक्षिक आर्द्रता सबसे कम रहती है यह आपेक्षिक आर्द्रता 29.2 प्रतिशत, अप्रैल माह में यह 31.3 प्रतिशत तथा मार्च माह में 42.5 प्रतिशत रहती है, जून के अंतिम पखवारे से समुद्री हवाओं के कारण आपेक्षिक आर्द्रता बढ़ने लगती है और जून माह में यह 45 प्रतिशत हो जाती है। इसी माह के दूसरे सप्ताह के बाद इस क्षेत्र में वर्षा होती है। जून में लगभग 68.2 मिलीमीटर वर्षा होती है। शेष महीनों में वर्षा इससे कम होती है।

2. वर्षा ऋतु :-


मध्य जून से मध्य सितंबर तक का समय मानसून काल या वर्षाकाल का कहलाता है। जून की तपन के बाद मानसून आ जाने से मौसम में भारी परिवर्तन होता है। तथा गरज के साथ वर्षा प्रारंभ हो जाती है। मानसूनी वर्षा के साथ-साथ अध्ययन क्षेत्र का तापमान गिरने लगता है और तापमान के गिरावट का क्रम जनवरी के प्रथम सप्ताह तक रहता है। जुलाई माह का अधिकतम औसत तापमान 41.10 सेंटीग्रेड अगस्त का 36.20 सेंटीग्रेड तथा सितंबर का 35.90 सेंटीग्रेड रहता है इसके विपरीत जुलाई का न्यूनतम औसत मासिक तापमान 23.60 सेंटीग्रेड, अगस्त का 23.20 सेंटीग्रेड तथा सितंबर का 21.50 सेंटीग्रेड रहता है, इस प्रकार जुलाई से सितंबर तक तापमान में गिरावट का क्रम रहता है।

वर्षा एवं आर्द्रता :-


इस ऋतु में मानसूनी हवाओं के आने से अध्ययन क्षेत्र में बादलों की सघनता एवं आपेक्षिक आर्द्रता का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है। इस क्षेत्र में जुलाई, अगस्त तथा सितंबर माह में औसत आपेक्षित आर्द्रता क्रमश: 75.3 प्रतिशत, 81.6 प्रतिशत एवं 75.8 प्रतिशत रहती है जो कि वर्ष में सर्वाधिक है। जनपद में जून के दूसरे सप्ताह के बाद वर्षा प्रारंभ हो जाती है तथा जुलाई, अगस्त एवं सितंबर में घनघोर वर्षा होती है। इन तीन महीनों में जनपद में कुल वर्षा का लगभग 68 प्रतिशत वर्षा होती है। जुलाई, अगस्त तथा सितंबर माह में औसत वार्षिक वर्षा क्रमश: 201.4 मिलीमीटर, 244.8 मिलीमीटर तथा 161.9 मिलीमीटर होती है। इस समय मानसून की अधिक सक्रियता के कारण जून से अक्टूबर तक वार्षिक वर्षा का लगभग 90 प्रतिशत भाग प्राप्त हो जाता है।

भारतीय ऋतु वेधशाला इलाहाबादवस्तुत: वर्षा का सामयिक वितरण वार्षिक वर्षा की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। वर्षा की यह परिवर्तनशीलता कृषि पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालती है। जहाँ यह परिवर्तनशीलता अधिक होती है वहाँ कृषि उत्पादन में भी भारी परिवर्तन होता है। अध्ययन क्षेत्र में इस परिवर्तनशीलता से बचने के लिये कृत्रिम सिंचाई के साधनों का विकास किया गया है। कृषि कार्यों के दृष्टिकोण से वर्षा की मौसमी एवं मासिक भिन्नता विशेष महत्व रखती है।

 

सारणी क्रमांक 1.1 अध्ययन क्षेत्र में वर्षा की मात्रा (मिली मीटर में)

क्र.

वर्ष

वार्षिक वर्षा का योग

जुलाई से सितंबर माह तक वर्षा

प्रतिशत

1.   

1970

668.81

583.87

87.30

2.   

1975

785.26

527.46

67.17

3.   

1980

949.43

848.79

89.40

4.   

1985

974.65

694.53

71.26

5.   

1990

817.22

675.19

82.62

6.   

1991

785.61

680.10

86.57

7.   

1992

846.42

756.78

89.41

8.   

1993

927.89

637.09

68.66

9.   

1994

824.28

674.92

81.88

10.    

1995

847.35

714.14

84.28

11.    

1996

941.87

816.79

86.72

12.    

1997

1016.56

905.35

89.06

(भारतीय ऋतु बेधशाला इालाहाबाद)

 

सारिणी क्रमांक 1.1 में अध्ययन क्षेत्र की वार्षिक वर्षा की सूची प्रस्तुत की गई है जिससे ज्ञात होता है कि सर्वाधिक वर्षा 1016.56 मिलीमीटर वर्ष 1997 में हुई है और न्यूनतम वर्षा 668.81 मिलीमीटर वर्ष 1970 में हुई इसके उपरांत 1975 में 785.26 मिमी तथा 1991 में 785.61 मिमी के अतिरिक्त अन्य वर्षों में औसत वार्षिक वर्षा 800 मिमी से अधिक रही है। वार्षिक वितरण पर यदि दृष्टि डाली जाये तो वर्ष 1975 में 67.17 प्रतिशत वर्षा जून से अक्टूबर तक 1993 में 68.66 प्रतिशत तथा 1985 में 71.26 प्रतिशत के अतिरिक्त इन 5 महीनों में 80 प्रतिशत से अधिक वर्षा जनपद को प्राप्त होती रही है।

3. शीत ऋतु :-


मध्य नवंबर से लेकर मध्य मार्च तक का समय शीत ऋतु कहलाता है। यह अध्ययन क्षेत्र का सर्वाधिक ठंडा समय है। मध्य दिसंबर से मध्य जनवरी तक का समय सबसे ठंडा समय होता है। सितंबर माह से तापमान में तेजी से गिरावट आने लगती है। जनवरी माह में उच्चतम औसत मासिक तापमान 25.4 डिग्री सेंटीग्रेड से न्यूनतम 3.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है। फरवरी माह से तापमान में क्रमश: वृद्धि प्रारंभ हो जाती है। फरवरी एवं मार्च माह में औसत मासिक उच्चतम तापमान क्रमश: 30.6 डिग्री सेंटीग्रेड एवं 39.4 डिग्री सेंटीग्रेड रहता है तथा न्यूनतम तापमान 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड तथा 9.8 डिग्री सेंटीग्रेड रहता है।

आर्द्रता वर्षा :-


संपूर्ण उत्तरी भारत इस ऋतु में शुष्क रहता है दिसंबर माह में औसत मासिक आपेक्षिक आर्द्रता 55.5 प्रतिशत रहती है जनवरी तथा फरवरी में आपेक्षिक आर्द्रता बढ़कर 62.7 एवं 66.8 प्रतिशत रहती है। आर्द्रता में कमी के कारण इस ऋतु में वर्षा बहुत कम होती है। इस मौसम में जो भी वर्षा होती है वह चक्रवातों से होती है। जिसका प्रभाव अध्ययन क्षेत्र पर भी पड़ता है जिससे दिसंबर माह में औसत मासिक वर्षा 5-8 मिलीमीटर, जनवरी में 16.5 मिलीमीटर तथा फरवरी में लगभग 10.9 मिलीमीटर वर्षा होती है। यदा कदा ओले भी गिरते हैं जिनसे फसलों को भारी क्षति होती है।

अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ की जलवायु

 

सारणी 1.2 अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ की जलवायु

माह

तापमान डिग्री सेंटीग्रेड

औसत आपेक्षित आर्द्रता

औसत (मिमी)

औसत वायुदाब (मिलीवार में)

औसत वायुवेग (प्रति किमी)

अधिकतम

न्यूनतम

औसत

जनवरी

24.2

3.5

13.6

62.7

16.5

999.19

2.36

फरवरी

30.6

5.8

17.5

66.8

10.9

981.18

2.87

मार्च

39.4

9.8

22.9

42.5

11.4

994.22

3.92

अप्रैल

43.8

15.9

28.7

31.3

4.3

968.82

3.77

मई

46.5

21.2

31.2

29.2

9.3

981.66

4.39

जून

47.7

24.1

34.8

46.7

68.2

977.84

4.96

जुलाई

41.1

23.6

32.5

75.3

201.4

983.46

4.11

अगस्त

36.2

23.2

29.9

81.6

244.8

981.92

3.24

सितंबर

35.9

21.5

29.1

75.8

161.9

988.89

2.88

अक्टूबर

24.2

14.2

25.8

59.5

36.6

990.71

2.10

नवंबर

33.7

7.9

20.1

56.6

3.8

994.38

1.13

दिसबंर

28.5

4.4

16.2

55.5

5.8

1001.24

1.87

(भारतीय ऋतु वेधशाला इलाहाबाद)

 

 

मिट्टी :-


पृथ्वी के ऊपरी धरातल का कुछ सेंटीमीटर से लेकर 3 मीटर तक की गहराई वाला भाग मिट्टी कहलाता है जिसका निर्माण शैलों की संरचना, धरातल की बनावट, जलवायुवीय दशाओं एवं जीवश्म के विभिन्न रूपों में संयोजित होने पर होता है। प्रस्तुत अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ एक कृषि प्रधान भू-भाग है। कृषि का समस्त उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से मिट्टी पर आधारित है और पशु पालन तथा वन उद्योग मिट्टी पर आधारित है। स्पष्ट है कि कृषि, पशुपालन, उद्यान, वन आदि के लिये मिट्टी का उपयोग मिट्टी की उर्वरा और भौगोलिक स्थिति दोनों पर निर्भर करता है। यद्यपि सभी प्रकार की मिट्टियों में पौधों के लिये कुछ न कुछ पोषक तत्व अवश्य होते हैं परन्तु विभिन्न प्रकार की मिट्टियों की संरचना भिन्न होने के कारण उसकी उर्वरा शक्ति में भी अंतर पाया जाता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति और उसके मूल पदार्थ के रासायनिक गुणों पर ही निर्भर नहीं करती है वरन स्वयं मिट्टी के भौतिक तथा रासायनिक गुणों पर निर्भर करती है।

अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ एक मैदानी भाग है जहाँ जलोढ़ मिट्टियाँ पायी जाती हैं। नदियों के समीपस्थ भागों में नवीन जलोढ़ मिट्टियाँ पायी जाती हैं जो वर्षाकाल में बाढ़ग्रस्त होकर प्रतिवर्ष निक्षेपण करती हैं। नदियों के दूरस्थ भाग में प्राचीन कांप मिट्टी से निर्मित अपेक्षाकृत ऊँचे भू-भाग पाये जाते हैं। सामान्यत: अध्ययन क्षेत्र में निम्नलिखित मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

1. बलुई एवं बलुई चीकायुक्त मिट्टियाँ :-


स्थानीय रूप से इन मिट्टियों को कछार कहते हैं ये नवीन निक्षेप से निर्मित नदियों के दोनों किनारों पर पायी जाती है। इनमें बलुई दोमट मिट्टी की सघनता रहती है। इन मिट्टियों का विस्तार गंगा, दुआर, सई, नैया तथा तम्बुरा और पीली नदियों के किनारे एक पतली मिट्टी के रूप में पायी जाती है। ये किनारे प्रतिवर्ष बाढ़ से प्रभावित रहते हैं स्थिति के अनुसार इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। तीन और कक्षा। तीर बलुई दोमट मिट्टी का वह जमाव है जो नदी की मुख्य धारा के अति निकट निक्षेपित होता है और जब नदी का जलस्तर नीचा होता है तब यह मिट्टी वहीं छूट जाती है यह मिट्टी रबी के फसलों के लिये बहुत उपयुक्त रहती है। कछार मिट्टियाँ नदियों के किनारों से थोड़ी दूर पायी जाती है। ये मिट्टियाँ उपजाऊ है जिनमें खरीफ की फसल के मोटे अनाजों एवं दलहनी फसलों का सफलतापूर्वक उत्पादन किया जा सकता है। यहाँ की मिट्टी कैल्शियम युक्त हल्की क्षारीय है।

2. हल्की बलुई दोमट मिट्टी :-


यह मिट्टियाँ बलुई और दोमट का मिश्रण हैं इनमें चीका के कण बालू के कणों के अपेक्षा कम पाये जाते हैं, यह मिट्टियाँ हल्के लालरंग की होती है। इनमें मिट्टियों को स्थानीय भाषा में भूड़ कहा जाता है जिसमें छार की मात्रा अत्यंत कम है। यह मिट्टी मोटे चावल के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है।

3. चीकायुक्त मिट्टियाँ :-


यह मिट्टी गंगा के उत्तर तथा सई नदी के दक्षिण भागों में पायी जाती है। आमतौर पर यहाँ कंकड़ के निक्षेप पाये जाते हैं यहाँ पर वर्षा के पानी के निकास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है। यहाँ गर्मियों के दिनों में धरातल के ऊपर सफेद लवण युक्त मिट्टियों का जमाव हो जाता है जिसके कारण इस मिट्टी में पर्याप्त क्षारीय तत्व मिलते हैं जहाँ पर क्षार की मात्रा अधिक पायी जाती है। इन क्षार युक्त मिट्टियों को ऊसर कहा जाता है। इस प्रकार के क्षेत्र धान उत्पादन के लिये उपयुक्त होती है।

4. भारी दोमट मिट्टियाँ :-


यह मिट्टियाँ जनपद के उत्तर पूर्वी भाग में पायी जाती है। इनका रंग गहरा भूरा तथा हल्का लाल होता है तथा अधिक गहराई के साथ इनका रंग भी गहरा होता जाता है। इनकी संरचना में दोमट तथा चीका की प्रमुखता रहती है। इस क्षेत्र के ऊपरी भागों में दोमट तथा निचले भागों में चीका दोमट की मात्रा अधिक पायी जाती है। जहाँ पर मिट्टी में चीका के कणों की अधिकता रहती है। वहाँ जल धार व क्षमता भी अधिक होती है। यह मिट्टियाँ गेहूँ, गन्ना मटर तथा धान आदि के लिये उपयुक्त होती है।

5. बीहड़ मिट्टी :-


नदी के किनारे बजरी तथा कंकड़ युक्त मिट्टियाँ पायी जाती है जिन्हें बीहड़ कहते हैं। वास्तव में ये कंकड़युक्त बलुई मिट्टियाँ हैं। इन क्षेत्रों में भूमि अपरदन अधिक होता है। जिसके कारण मृदा के उपजाऊ तत्व नष्ट होते रहते हैं। सामान्यत: ये अनुपजाऊ मिट्टियाँ होती है। वास्तव में ये भूमियाँ अपदरन के कारण ऊँची नीची भूमि में परिवर्तित हो गयी है।

अध्ययन क्षेत्र की मिट्टी को 192.3 एडी में भी एक काल्पनिक आधार पर वर्गीकृत किया गया था जिसमें मिट्टी की दो श्रेणियाँ स्वीकार की गई है। रबी तथा चावल भूमि। चावल भूमि को धान भूमि के अंतर्गत रखकर एक फसली माना गया जो मानसून पर निर्भर रहने वाली भूमि के रूप में रखा गया। धान भूमि की उत्पादकता को दृष्टिगत रखते हुए इसे धान प्रथम, धान द्वितीय, तथा धान तृतीय वर्गों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया। धान प्रथम को महीन चावल के उत्पादन में श्रेष्ठ कोटि मानते हुए जोरहन भूमि के अंतर्गत रखा गया जिसे अच्छी भूमि तथा पर्याप्त जलापूर्ति वाली भूमि की श्रेणी में रखा गया जबकि भूमि द्वितीय को एक फसली तथा खराब भूमि की श्रेणी में रखते हुए ‘मदैं’ कही गई तथा धान तृतीय के अंतर्गत ऊसर भूमि को रखा गया। इसी प्रकार रबी भूमि को भूमि की कोटि, अधिवास से दूरी तथा सिंचाई सुविधा के आधार पर वर्गीकृत किया गया। इस वर्ग की भूमि का कच्चिमाना (गोइंद प्रथम, गोइंद द्वितीय) दुमट प्रथम दुमट द्वितीय तथा दुमट तृतीय, भूड़ प्रथम, भूड़ द्वितीय, तराई प्रथम तराई द्वितीय और कछार प्रथम तथा द्वितीय श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इन भूमियों में जो भूमि जैविक तथा रासायनिक उर्वरकों की ग्राहयता के आधार पर गोइंद श्रेणी में रखा गया है। इससे निम्न कोटि की भूमि को दुमट के अंतर्गत रखा गया, उर्वरक तथा सिंचाई सुविधाओं से युक्त भूमि को दुमट प्रथम, तथा कम सिंचाई सुविधाओं वाली भूमि को दुमट द्वितीय के अंतर्गत रखा गया तथा ऊसर भूमि को दुमट तृतीय कोटि में शामिल किया गया है। नदी के किनारे की भूमि को भूड़ श्रेणी प्रदान की गयी जबकि कछार श्रेणी की भूमि को गंगा तथा सई नदी के किनारे की बताया गया है जो वर्षा से प्रतिवर्ष बाढ़ ग्रस्त हो जाती है। चीकायुक्तभारी मिट्टी को दुमट मटियार, औसत चूनायुक्त भूमि को दुमट दोरासा, तथा बलुई चूना युक्त मिट्टी को बलुई दुमट श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है।

प्राकृतिक वनस्पतियाँ :-


प्राकृतिक वनस्पति प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिया गया एक बहुमूल्य उपहार है जो किसी क्षेत्र की मृदा एवं जलवायु का सम्मिलित परिणाम होती है। प्राकृतिक वनस्पति जलवायु, मिट्टी तथा वन्य जीवों को भी प्रभावित करती है। इसके द्वारा मनुष्य को सामाजिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक उन्नति के संसाधन प्राप्त होते हैं। मनुष्य तथा प्राकृतिक वनस्पति का परस्पर जैविक संबंध होता है। मानव जगत तथा वनस्पति जगत से प्रकृति में संतुलन रहता है। पारिस्थितिकी व्यवस्था के एक महत्त्वपूर्ण वनस्पति का क्षेत्रीय वितरण जलवायु के दशाओं पर निर्भर है। राज्य सरकार के वन विभाग की अनुशंसा के अनुसार मैदानी भाग 20 प्रतिशत क्षेत्र पर वनों का आच्छादन होना चाहिए परंतु जनपद प्रतापगढ़ में कुल क्षेत्रफल के 0.18 प्रतिशत क्षेत्रफल पर ही वन पाये जाते हैं, जबकि 1940-41 में वनों के अंतर्गत 6.4 प्रतिशत क्षेत्रफल था जो 1981-82 में घटकर के 2.9 प्रतिशत रह गया। स्पष्ट है कि जनपद का वन क्षेत्र धीरे-धीरे समाप्त सा होता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण है कि वनाच्छादित भूमि भी या तो कृषि अथवा अन्य उपयोग में हस्तांतरित हो रही है। उपयोगिता के आधार पर अध्ययन क्षेत्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है।

1. उष्णकटिबंधीय पतझड़ वाले वन :-
ये मिश्रित वन हैं जो संपूर्ण जनपद में फैले हुए हैं। नीम, आम, बबूल, शीशम, ढाक, यूकेलिप्टस, जामुन तथा बेल आदि इस वर्ग के प्रमुख वृक्ष हैं जिनका उपयोग इमारती लकड़ी आदि के रूप में होता है।

2. उपोष्ण शुष्क वन :-
ये वन समान्यतया झाड़ी वाले वृक्षों के रूप में पाये जाते हैं जो गंगा सई तथा पीली नदियों के किनारे मुख्य रूप से पाये जाते हैं। कटीले बबूल, जंगल जलेबी, बेर, कदम तथा खैर आदि इन वनों के अंतर्गत आते हैं, इनसे प्राप्त लकड़ी प्रमुख रूप से जलाने के काम आती है।

(र) आर्थिक स्थिति :-
स्वतंत्रता की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी अध्ययन क्षेत्र की अर्थव्यवस्था आज की कृषि व्यवसाय पर निर्भर है, अधिकांश जनसंख्या कृषि से ही अपने जीवन-यापन के संसाधन जुटा रही है, यद्यपि देश की पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि को महत्त्व देने के साथ-साथ जनपद में भी कृषि उत्पादन में परिवर्तन हुए हैं। संस्थागत एवं तकनीकी सुधारों के फलस्वरूप कृषि उत्पादन एवं उत्पादिता में सुधार हुआ है। कृषि क्षेत्र में मात्रात्मक सुधार के साथ-साथ गुणात्मक सुधार भी हुए हैं। कृषि अब मात्र जीवन निर्वाह का साधन न रहकर उत्पादक एवं लाभपूर्ण व्यवसाय का रूप धारण कर रही है। कृषक अब लाभ कमाने के लिये नवीन उत्पादक तकनीकों को अपनाने के लिये तत्पर हैं, आज अपेक्षाकृत बेहतर कृषि प्रविधियों के प्रयोग तथा नवीन उत्पादन तकनीक चंद कृषकों तक ही सीमित नहीं रह गई है उसे अपनाने की तीव्र इच्छा उन लाखों कृषकों में भी व्याप्त होती जा रही है जो अपनी दयनीय स्थिति के कारण इसे अभी तक अपना नहीं सके हैं। यह तथ्य वस्तुत: ग्रामीण व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तनों का सूचक है। कृषि क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप ग्रामीण जीवन में जागरूकता आ गई है और कृषक अब भविष्य के प्रति आशान्वित हो गये हैं।

(अ) कृषि :-
कृषि उत्पादन और उत्पादिता के मुद्दे पर महत्त्वपूर्ण सफलता के बावजूद भारतीय कृषि विकास नीति की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि इसने कृषि विकास के संदर्भ में क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ावा दिया है जबकि योजनाओं के प्रारंभ में कृषि में व्याप्त विषमताओं को घटाने का लक्ष्य एवं संकल्प लिया गया था। अध्ययन क्षेत्र में भी कृषि भिन्नता देखने को मिलती है। चूँकि जनपद की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि है। परंतु क्षेत्रीय कृषि विषमताओं ने वितरणात्मक पक्ष की पूर्णतया अवहेलना की है जो भूमि के उपविभाजन और उपखंडन के रूप में स्पष्ट देखी जा सकती है।

(ब) उद्योग :-
औद्योगीकरण की दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र अत्यंत पिछड़ा हुआ क्षेत्र है और भारतीय कृषकों का यह दुर्भाग्य है कि उन्हें वर्ष भर कृषि क्षेत्र से रोजगार प्राप्त नहीं होता है। मात्र 6 से 7 माह के लिये ही कृषि क्षेत्र कार्य दे पाता है। वर्ष में अतिरिक्त दिवसों में कार्य के अभाव के कारण कृषकों का कोई अन्य आय का स्रोत नहीं है इसलिये जनपद के कृषकों के आय का स्तर केवल कृषि पर निर्भरता के कारण अत्यंत निम्न है यद्यपि भोजनाकाल में ग्रामीण लोगों को अतिरिक्त रोजगार उपलब्ध कराने हेतु विभिन्न योजनायें संचालित की जा रही हैं परंतु उन कार्यक्रमों का लाभ जनपद के ग्रामीण लोगों को नहीं मिल पाया है जिससे कृषक आज भी केवल भरण-पोषण की स्थिति में ही जीवन-यापन कर रहे हैं।

 

तालिका 1.4 विभिन्न संस्थाओं के अधीन कार्यरत औद्योगिक इकाइयों की संख्या 1994-95

क्र.

संस्थाओं का नाम

औद्योगिक सहकारी समिति द्वारा

पंजीकृत संस्थाओं द्वारा

व्यक्तिगत उद्योगपतियों द्वारा

कुल योग

1.

खादी उद्योग

-

4

-

4

2.

खादी ग्रामोद्योग द्वारा प्रवर्तित उद्योग

35

53

3331

3419

3.

लघु उद्योग इकाइयाँ

 

3.1 इंजीनियरिंग

3.2 रासायनिक

3.3 विधयन

3.4 हथकरघा

3.5 हस्तशिल्प

3.6 अन्य

7

 

 

408

17

-

 

 

 

-

387

171

498

1020

123

1786

385

171

498

1428

140

1786

 

योग ग्रामीण एवं लघु उद्योग

467

57

7307

7831

4.

कार्यरत व्यक्तियों की संख्या (1+2)

175

855

4718

5748

5.

लघु उद्योग इकाइयों में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या (3.1)

2162

-

15504

17666

6.

ग्रामीण एवं लघु उद्योग में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या (4+5)

2337

855

20222

23414

 

 
तालिका क्रमांक 1.4 से स्पष्ट होता है कि जनपद में ग्रामीण और लघु उद्योगों की संख्या 7831 है। जिसमें कुल 23414 व्यक्ति रोजगार पाये हुए हैं। कुल 7831 उद्योगों में से खादी एवं ग्रामोद्योग द्वारा प्रवर्तित 3419 उद्योग संचालित किये जा रहे हैं। जबकि व्यक्तिगत उद्योगपतियों द्वारा 385 इंजीनियरिंग उद्योग 171 रासायनिक उद्योग, 498 विधायन उद्योग, हथकरघा एवं हस्तशिल्प के क्रमश: 1428 तथा 140 लघु उद्योग संचालित किये जा रहे हैं। जबकि व्यक्तिगत उद्योगपतियों द्वारा 385 इंजीनियरिंग उद्योग, 171 रासायनिक उद्योग, 498 विधायन उद्योग, हथकरघा एवं हस्तशिल्प के क्रमश: 1428 तथा 140 लघु उद्योग संचालित किये जा रहे हैं जिनमें खादी उद्योग तथा खादी ग्रामोद्योग द्वारा प्रवर्तित उद्योगों में 5748 व्यक्ति रोजगार पाये हुए हैं शेष व्यक्ति लघु उद्योग इकाइयों में कार्यरत हैं। इनमें से कोई भी उद्योग कृषकों को अंशकालिक रोजगार प्रदान नहीं करता है, लगभग सभी उद्योग पूर्णकालिक रोजगार प्रदान करते हैं जिससे कृषक अपने अतिरिक्त समय का सदुपयोग करने से वंचित रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्रों के इस प्रकार के कुटीर उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए कि जिससे कृषक अंशकालिक रोजगार प्राप्त करके कुछ अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकें।

(स) साख सुविधायें :-
प्रत्येक आर्थिक क्रिया का वित्त से अविभाज्य संबंध होता है क्योंकि वित्तीय आधार प्रत्येक क्रिया की एक महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा होती है। कृषि कार्य को भी कृषि क्रियाओं को सही ढंग से संपन्न करने के लिये साख की आवश्यकता होती है, कृषि व्यवस्था में सामान्यत: तीन कालावधियों वाले ऋण की आवश्यकता होती है अल्पकालीन मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन समान्यत: कृषि साख की पूर्ति करने वाले स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। गैर संस्थागत स्रोत तथा संस्थागत स्रोत कृषि साख के गैर संस्थागत स्रोतों में ग्रामीण साहूकार, महाजन सगे संबंधी भूस्वामी तथा दलाल प्रमुख संघटक होते हैं और संस्थागत श्रोतों में सरकार सहकारी समितियाँ तथा व्यापारिक बैंक प्रमुख हैं। यहाँ पर हम संस्थागत वित्तीय सुविधाओं का ही विश्लेषण करेंगे। अध्ययन क्षेत्र में संस्थागत वित्तीय श्रोतों के अंतर्गत व्यापारिक बैंक, सहकारी साख तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक ही प्रमुख हैं।

1. सहकारी समितियाँ :-
सहकारी साख समस्त संस्थागत श्रोतों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयुक्त माना जाता है क्योंकि प्राथमिक सहकारी साख समितियों का कृषकों से प्रत्यक्ष और अतिनिकट का संबंध होता है। सहकारी समितियों द्वारा कृषकों को अल्पकालीन और मध्य कालीन तथा भूमि विकास बैंकों द्वारा दीर्घकालीन साख प्रदान की जाती है।

 

तालिका 1.5 जनपद में विकासखंडवार प्रारंभिक कृषि ऋण सहकारी समितियाँ (31 मार्च 1995)

सं.

विकासखंड

संख्या

सदस्य संख्या

वितरित ऋण

सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा वितरित दीर्घकालीन ऋण

(000 रुपये)

संख्या

अल्‍पकालीन

(000 रुपये)

मध्‍यकालीन

(000 रुपये)

1

कालाकांकर

11

24552

3221

900

1847

2

2

बाबागंज

11

32430

4332

778

1743

1

3

कुण्डा

12

19201

4744

724

2220

-

4

बिहार

11

26930

5150

440

3200

2

5

सांगीपुर

12

22940

2634

193

1798

1

6

रामपुरखास

17

25798

5723

390

2263

2

7

लक्ष्मणपुर

10

23896

2881

230

1984

1

8

संडवा चंद्रिका

11

23083

3931

100

1370

-

9

प्रतापगढ़

12

22930

2570

171

1547

-

10

मान्धाता

13

24170

7957

250

2667

1

11

मगरौरा

11

22930

6715

538

3090

1

12

पट्टी

10

19363

5443

387

2230

-

13

आसपुर देवसरा

11

21930

9247

1585

1998

2

14

शिवगढ़

12

20887

3492

619

1516

2

15

गौरा

10

19980

4890

697

2557

2

 

योग

174

351020

72930

8002

32030

17+6

नगरीय

 

 
सारिणी 1.5 में अल्पकालीन, मध्यकालीन ऋण प्रदान करने वाली प्राथमिक कृषि साख समितियों तथा सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा दिये जाने वाले ऋणों का विवरण दिया जाता है। जनपद में कृषि साख समितियों की कुल संख्या 174 है जिसमें सर्वाधिक साख समितियाँ रामपुर खास विकासखंड में हैं जबकि लक्ष्मणपुर, पट्टी तथा गौरा विकासखडों में 10-10 कृषि साख समिति कार्यरत हैं, इस साख समितियों की कुल सदस्य संख्या 351020 है और इन समितियों द्वारा 72930 हजार अल्पकालीन तथा 8002 हजार रुपये के मध्यकालीन ऋण वितरित किये गये। सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों की संख्या 17 ग्रामीण और नगरीय है परंतु कुंडा, संडवा चंद्रिका, प्रतापगढ़ सदर तथा पट्टी विकास खंडों में इन बैंकों की एक भी शाखा नहीं है। यह बैंक दीर्घकालीन ऋण प्रदान करता है जिसकी मात्रा 32030 हजार रुपये है।

 

सारणी 1.6 जनपद में अन्य सहकारी समितियाँ

(31 मार्च 1995)

मद

क्रय विक्रय सहकारी समिति

संयुक्त कृषि समितियाँ

प्रारंभिक दुग्ध उत्पादन समितियाँ

मत्स्य सहकारी समितियाँ

प्रारंभिक औद्योगिक सहकारी समितियाँ

1. संख्या

2. सदस्य संख्या

3. वर्ष में लेन-देन की गयी वस्तुओं का

मूल्य (000 रुपये)

3

550

4695

20

352

876

85

4500

2635

24

228

228

7

105

365

 

 
तालिका 1.6 से जनपद में अन्य सहकारी समितियों का विवरण प्राप्त होता है। क्रय विक्रय सहकारी समितियों की संख्या 3 है जिनमें 5550 सदस्यों में कुल 4695000 रुपये का लेन-देन किया। जनपद में दुग्ध उत्पादन समितियों की संख्या सर्वाधिक 85 है, परंतु इनमें 4500 सदस्यों के सदस्यता है जिन्होंने कुल 2635000 रुपये के लेन-देन का कार्य किया। इसी प्रकार 24 मत्स्य सहकारी समितियों के 228 सदस्यों ने कुल 228000 रुपये का कारोबार किया। प्रारंभिक औद्योगिक सहकारी समितियों की संख्या 7 है जिसके 105 सदस्यों ने 365000 रुपये का लेन-देन किया है।

 

सारिणी 1.7 जनपद में व्यापारिक बैंकों की स्थिति

(हजार रुपये में)

क्र.

मद

1994-95

1.

व्यावसायिक बैंको की संख्या

ग्रामीण 111+ नगरीय 17 कुल 128

2.

कुल ऋण वितरण

1131081

3.

जमा धनराशि

3600967

4.

जमाधन राशि पर ऋण वितरण का प्रतिशत

31

5.

प्राथमिक क्षेत्र में ऋण वितरण

 

अ. कृषि एवं कृषि से संबंधित कार्य

506653

 

ब. लघु उद्योग

1076

 

स. अन्य प्राथमिक क्षेत्र

278597

6.

कुल ऋण वितरण में प्राथमिक क्षेत्र का प्रतिशत

24.63

7.

प्रतिबंधित जमा धनराशि (रुपये)

1320

8.

प्रतिबंधित ऋण वितरण (रुपये)

415

9.

प्रतिव्यक्ति प्राथमिकता क्षेत्र में ऋण वितरण (रुपये)

288

 

 
सारणी 1.7 से स्पष्ट है कि व्यापारिक बैंकों की स्थिति अब पहले की अपेक्षा अच्छी होती जा रही है परंतु कृषि क्षेत्र के लिये अभी भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का उदय होने के बाद स्थिति में सुधार हुआ है इन बैंकों की स्थापना से न केवल कृषि क्षेत्र की साख आवश्यकताओं की पूर्ति में विस्तार हुआ है बल्कि लोगों में बैंकिंग आदतों पर भी इनका प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। परिणाम स्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में भी छोटी बचतों को जमा रूप में रखने की प्रवृत्ति पैदा हुई है। जनपद में कृषि क्षेत्र के लिये उपलब्ध होने वाली साख का अभी भी 24.63 प्रतिशत भाग निम्न ही कहा जायेगा।

(द) भंडारण एवं विपणन सुविधायें :-
विपणन में सभी क्रियायें संलग्न होती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं को उचित समय पर तथा उचित मात्रा में उपभोक्ताओं तक पहुँचाकर उनकी उपयोगिता में वृद्धि करती हैं। विपणन क्रिया आर्थिक विकास का एक प्रमुख प्रेरक तत्व है। कृषि विपणन उत्पाद का एवं उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा करता है, यह कृषकों की आय और उपभोक्ताओं की संतुष्टि बढ़ाने का एक प्रमुख साधन है।

अध्ययन क्षेत्र मूलत: कृषि प्रधान है। अत: कृषि उत्पादन के भंडारण तथा उनके विपणन की समुचित व्यवस्था के बिना कृषि उत्पादन को सुरक्षित और उपयोग्य हाथों तक नहीं पहुँचाया जा सकता है। अध्ययन क्षेत्र में भंडारण सुविधा का विवरण तालिका 1.8 में प्रस्तुत है।

 

तालिका 1.8 अध्ययन क्षेत्र में भंडारण सुविधायें हैं

क्र.

मद

संख्या

भंडारण क्षमता (मी. टन)

1

बीज गोदाम

209

20600

2

उर्वरक भंडार

203

20300

3

कीटनाशक डिपो

84

8400

4

शीत भंडार

03

12000

5

भारतीय खाद्य निगम

02

10000

6

केंद्रीय भंडारागार निगम

-

-

7

राज्य भंडारागार निगम

01

10073

8

बीज वृद्धि फर्म

01

-

9

कृषि सेवा केंद्र

एग्रो1 + अन्‍य 59

-

10

कृषि उत्पादन मंडी समिति

-

-

11

बायो गैस संयंत्र

4336

-

 

 
तालिका 1.8 में अध्ययन क्षेत्र की भंडारण क्षमता का विवरण दिया गया है जिससे ज्ञात होता है कि जनपद में 209 बीज गोदाम तथा 203 उर्वरक भंडार स्थित हैं। जिनकी भंडारण क्षमता क्रमश: 20600 तथा 20300 मी. टन है, कीटनाशक डिपों 8400 मी. टन, शीत भंडारों की क्षमता 1200 मी. टन, एक राज्य भंडारागार निगम का गोदाम स्थित है जिसकी क्षमता 70073 मीट्रिक टन है इसके एक बीज उत्पादक फर्म तथा 4356 बायोगैस संयंत्र कार्यरत है।

(य) परिवहन एवं संचार सुविधायें :-
कृषि उत्पादन का क्रय विक्रय जीवन-यापन की अनिवार्यता परंतु क्षेत्रीय बाजारों, कस्बों, नगरों में माल के क्रय-विक्रय के लिये परिवहन सुविधाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। कृषि अन्य वस्तुओं की उत्पादन संरचना में अत्यधिक क्षेत्रीय विषमता होती है। इसलिये परिवहन के साधन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। सड़क परिवहन का कृषकों को विशेष लाभ है। वर्षाऋतु में तो बिना अच्छी सड़कों के कृषि उपज बाहर लाना ले जाना एक कठिन कार्य है। अध्ययन क्षेत्र में परिवहन की दृष्टि से रेल तथा सड़क मार्ग सुविधायें प्राप्त हैं।

अ. रेल परिवहन :-


अध्ययन क्षेत्र में रेल परिवहन के रूप में फैजाबाद-इलाहाबाद बड़ी रेल लाइन जनपद को लगभग मध्य से विभाजित करती है। प्रतापगढ़ जंक्शन स्टेशन है यहाँ से जौनपुर को भी रेल सुविधा उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त जनपद के पश्चिम में स्थित कालाकांकर तथा कुंडा विकासखंडों को भी रेल परिवहन सुविधा प्राप्त है। यह रेल पथ रायबरेली तथा इलाहाबाद को जोड़ता है। एक रेल मार्ग लखनऊ से इलाहाबाद जो प्रतापगढ़ में संयुक्त होकर इलाहाबाद को जाता है भी जनपद को रेल परिवहन सुविधा उपलब्ध कराता है। इस प्रकार कालाकांकर तथा कुंडा विकासखंड रायबरेली-इलाहाबाद रेलमार्ग पर स्थित है। संडवा चंद्रिका विकासखंड से लखनऊ प्रतापगढ़ रेलमार्ग गुजरता है। मगरौरा तथा प्रतापगढ़ सदर विकासखंड फैजाबाद इलाहाबाद मार्ग पर तथा शिवगढ़ और गौरा विकासखंड प्रतापगढ़ जौनपुर रेलमार्ग से जुड़े हुये हैं। फैजाबाद जौनपुर रेलमार्ग का एक भाग आसपुर देवसरा विकासखंड से गुजरता है। इस प्रकार रेलपथ के दृष्टिकोण से अध्ययन क्षेत्र सुविधायुक्त है।

ब. सड़क परिवहन :-
अध्ययन क्षेत्र में सड़क परिवहन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है जनपद में कुछ सड़कों की लंबाई 1867 किमी है जिनमें प्रतापगढ़-रायबरेली, प्रतापगढ़-फैजाबाद, प्रतापगढ़-जौनपुर, प्रतापगढ़-इलाहाबाद, सड़क मार्ग मुख्य है। कुछ अन्य पक्की सड़कें जनपद के आंतरिक नगरों को जोड़ने वाली है। जनपद में पक्की सड़कों का विवरण तालिका 1.9 में प्रस्तुत है।

 

तालिका 1.9 में जनपद में पक्की सड़कों की लंबाई

(किमी में)

क्र.

विवरण

1993-94

1.

1.1 लोक निर्माण विभाग के अंतर्गत

1.2 प्रादेशिक राजमार्ग

1.3 मुख्य जिला सड़क

1.4 अन्य जिला तथा ग्रामीण सड़के

-

148

164

1076

 

योग

1388

2.

स्थानीय निकायों के अंतर्गत

 

 

2.1 जिला परिषद

2.2 नगर पालिका/नगर पंचायत

284

56

 

योग

340

3.

अन्य विभागों के अंतर्गत

 

 

3.1 सिंचाई विभाग

3.3 अन्य विभाग

19

120

 

योग

139

 

महायोग (1+2+3)

1867

 

 
तालिका 1.9 जनपद में सड़क परिवहन व्यवस्था का परिदृश्य प्रस्तुत कर रही है जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग का अभाव तथा प्रादेशिक राजमार्ग की लंबाई 148 किलोमीटर है मुख्य जिला सड़कों की लंबाई 164 किमी तथा अन्य जिला एवं ग्रामीण सड़कों की लंबाई 1076 कि.मी. है। इस प्रकार लोक निर्माण विभाग द्वारा 1388 किमी पक्की सड़कों का पोषण किया जा रहा है। स्थानीय निकायों द्वारा कुल 340 किमी सड़कों का रख-रखाव किया जा रहा है। जबकि सिंचाई विभाग तथा अन्य विभागों द्वारा 129 किमी सड़कों का रख-रखाव किया जा रहा है इस प्रकार जनपद में 1867 किमी सड़कों द्वारा परिवहन सुविधायें प्राप्त की जा रही हैं।

3. सामाजिक स्थिति :-


परंपरागत ग्रामीण समुदाय आत्म संपन्न और आत्म निर्भर रहे एक गाँव या आस-पास बसे कुछ गाँव एक आर्थिक इकाई के रूप में रहते थे जिनका उस इकाई के बाहर कुछ लेन देन नहीं होता था। जहाँ इस पिछड़े पन के लाभ थे वहीं इसके कुछ परिणाम अत्यंत भयंकर थे। पंचवर्षीय योजना के माध्यम से इस स्थिति को बदलने के प्रयास किये गये इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनेक तरह के परिवर्तन प्रकाश में आये हैं। यह परिवर्तन ग्रामीण जीवन के अनेक पहलुओं से संबंधित हैं जैसे भू-सुधार कृषि पशुपालन, वित्त विपणन सेवाएँ, ग्रामीण उद्योग, कल्याणकारी सेवायें, ग्रामीण नेतृत्व और ग्रामीण प्रशासन आदि अनेक नये स्कूलों का खोला जाना प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की स्थापना परिवार कल्याण और नियोजन सेवाओं का प्रसार, परिवहन, संचार और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन का विस्तार आदि अनेक बातें हैं। जिनसे ग्रामीण जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आयें हैं। नि:संदेह ये परिवर्तन विकास के परिचायक हैं अत: इनका स्वागत है परंतु विकास का अधिकांश लाभ साधन संपन्न वर्ग को ही प्राप्त हुआ है। साधन विहीन एवं निर्बल वर्ग की स्थिति सोचनीय तथा पहले से कुछ खराब ही हुई है। बढ़ती हुई जनसंख्या के परिणाम स्वरूप भूमि पद दबाव बढ़ता जा रहा है, जोत की इकाई भी छोटी होती जा रही है जो उन्नति कृषि के अनुकूल नहीं है।

अ. जनसंख्या :-
मानवीय संसाधन आर्थिक विकास के साधन एवं लक्ष्य दोनों हैं अर्थ व्यवस्था में जितनी भी विकासात्मक क्रियायें संपन्न की जाती हैं उनका उद्देश्य मानव समुदाय को जीवन की अच्छी सुविधायें प्रदान करना होता है, इसलिये जनसंख्या का अध्ययन आवश्यक हो जाता है क्योंकि इसी आधार पर वर्तमान आर्थिक क्रियाओं की योजना का निर्धारण एवं कार्यान्वयन तथा विकास स्तर को निर्धारित किया जा सकता है। जनसंख्या के समुचित अध्ययन के लिये जनसंख्या वृद्धि दर विभिन्न घनत्व वर्गों का क्षेत्रीय वितरण, यौन अनुपात, साक्षरता, व्यवसायिक संरचना, कार्यशील जनसंख्या आदि अध्ययन के प्रमुख घटक होते हैं। जनसंख्या वृद्धि प्रतापगढ़ जनपद उत्तर प्रदेश का मध्यम जनसंकुल क्षेत्र है। जनसंख्या की दृष्टि से प्रदेश में इसे 30वां स्थान प्राप्त है। वहीं इलाहाबाद संभाग में इसे दूसरा स्थान प्राप्त है। प्रस्तुत तालिका क्रमांक 1.10 में जनपद की जनसंख्या वृद्धि दर को प्रदर्शित किया गया है।

 

तालिका 1.10 प्रतापगढ़ में जनसंख्या वृद्धि दर

जनगणना वर्ष

1931

1941

1951

1961

1971

1981

1991

2001

कुल जनसंख्या

1901618

1036496

1106605

1252196

1422707

1901049

2210700

2727156

जनसंख्या वृद्धि

+6.00

+15.00

+6.80

+13.10

+13.60

+26.60

+22.70

23.40

सामान्य घनत्व

243

279

298

337

383

511

595

734

 

 
सारिणी क्रमांक 1.10 जनपद प्रतापगढ़ की वर्ष 1931 से 2001 तक की जनसंख्या वृद्धि का विवरण प्रस्तुत कर रही है जिससे ज्ञात होता है कि 7 दशकों में जनसंख्या में लगभग 3 गुनी वृद्धि हुई है जबकि जनसंख्या वृद्धि दर लगभग 4 गुनी बढ़ गयी है। जनसंख्या घनत्व पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि जहाँ वर्ष 1931 में प्रतिवर्ग किलोमीटर 243 व्यक्ति निवास करते थे वहीं 2001 में प्रतिवर्ग किलोमीटर 734 व्यक्ति निवास कर रहे हैं। वर्ष 1971 तक जहाँ जनसंख्या वृद्धि दर 13.60 प्रतिशत रही है वहीं अगले दशक में इसका लगभग दोगुना 26.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। यद्यपि अगले दो दशकों में यह वृद्धि दर कुछ कम हुई है परंतु फिर भी 23.40 प्रतिशत वृद्धि दर अधिक ही कही जायेगी। तेज गति से बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र भी तेज गति से घट रहा है।

 

तालिका 1.11 विकासखंडवार जनसंख्या का वितरण

1981-91

क्र.

विकासखंड

जनसंख्या

वृद्धिदर प्रतिशत

श्रेणीयन

1981

1991

1

कालाकांकर

92935

122049

24.10

13

2

बाबागंज

113682

136802

16.90

8

3

कुण्डा

132440

168499

21.40

2

4

बिहार

127113

154451

17.70

3

5

सांगीपुर

107943

133758

19.30

10

6

रामपुरखास

131120

169625

22.60

1

7

लक्ष्मणपुर

98197

123986

20.80

12

8

संडवा चंद्रिका

98937

118630

16.60

14

9

प्रतापगढ़ सदर

69813

135025

28.30

9

10

मान्धाता

117417

151506

22.50

5

11

मगरौरा

117209

154425

24.10

4

12

पट्टी

80793

107011

24.50

15

13

आसपुर देवसरा

96925

132051

26.60

11

14

शिवगढ़

110298

139441

20.90

7

15

गौरा

104450

141340

26.10

6

योग विकासखंड नगरीय

1626272

93651

2088599

122101

22.10

23.30

 

योग जनपद

1719923

2210700

22.70

 

 

 
सारिणी क्रमांक 1.11 से स्पष्ट हो रहा है कि जनसंख्या में सर्वाधिक वृद्धि प्रतापगढ़ सदर में हुई है। जहाँ पर 1981-91 के मध्य 28.30 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसी अवधि में न्यूनतम वृद्धि संडवा चंद्रिका विकासखंड में हुई है जहाँ पर एक दशक में केवल 16.60 प्रतिशत वृद्धि अंकित की गई है। जनपदीय औसत से अधिक जनसंख्या वृद्धि दर अंकित कराने वाले विकासखंडों में प्रतापगढ़ सदर के अतिरिक्त कालाकांकर, लक्ष्मणपुर, मगरौरा, पट्टी, आसपुर देवसरा तथा गौरा विकासखंड हैं, शेष अन्य विकासखंड जनपदीय औसत से कम जनसंख्या वृद्धि दर का प्रदर्शन कर रहे हैं।

 

तालिका 1.12 विकासखंडवार साक्षरता का स्तर

क्र.

विकासखंड

साक्षर व्यक्ति

साक्षरता प्रतिशत

पुरुष

स्त्री

कुल

पुरुष

स्त्री

कुल

1

कालाकांकर

24069

6415

30484

48.0

13.7

31.4

2

बाबागंज

28530

9275

37805

52.6

16.7

34.5

3

कुण्डा

35349

11100

46449

52.7

16.8

34.8

4

बिहार

34757

11678

46435

58.5

18.8

39.1

5

सांगीपुर

28936

7422

46358

52.6

13.6

33.4

6

रामपुरखास

34041

9308

43345

50.0

13.8

31.9

7

लक्ष्मणपुर

31071

7951

40822

64.6

19.8

41.4

8

संडवा चंद्रिका

29043

9560

38603

61.5

19.8

40.5

9

प्रतापगढ़ सदर

39161

15498

54659

70.5

29.5

50.6

10

मान्धाता

37059

12038

49097

62.7

19.8

40.9

11

मगरौरा

38054

13310

51364

63.0

21.7

42.2

12

पट्टी

27577

9213

36790

66.4

21.2

43.3

13

आसपुर देवसरा

31311

10182

41493

60.4

19.4

39.7

14

शिवगढ़

37157

12592

49749

66.9

22.8

44.9

15

गौरा

34033

10043

44076

62.3

17.8

39.7

 

योग ग्रामीण

योग नगरीय

49148

40931

157381

22633

647529

63564

59.0

77.0

18.9

49.5

39.7

64.5

 

योग जनपद

531079

180014

711093

60.0

20.5

40.4

 

 
सारिणी 1.12 जनपद में विकासखंड स्तर पर साक्षरता के स्तर पर प्रकाश डाल रही है जिसमें संपूर्ण जनपदीय स्तर पर दृष्टिपात करें तो पुरुषों में साक्षरता का स्तर 60 प्रतिशत है तो स्त्रियों में मात्र 20.5 प्रतिशत है जिससे औसत साक्षरता 40.4 प्रतिशत है। ग्रामीण क्षेत्र और नगरीय क्षेत्र में साक्षरता के स्तर की तुलना करें तो ज्ञात होता है कि पुरुषों में यह क्रमश: 59.2 प्रतिशत तथा स्त्रियों में 18.9 प्रतिशत देखने को मिलती है वहीं नगरीय साक्षरता पुरुषों में 77 प्रतिशत तथा स्त्रियों में यह 49.5 प्रतिशत प्राप्त हुई है। पुरुषों और स्त्रियों में साक्षरता का स्तर का अंतर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह अंतर लगभग 40 प्रतिशत है। जबकि भोजन में पोषण स्तर का निर्धारण में साक्षरता चाहे वह पुरुषों की हो अथवा महिलाओं की एक महत्त्वपूर्ण घटक होती है। जिसमें स्त्रियों का साक्षर होना तो और भी महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि भोजन में क्षेत्रीय खाद्य पदार्थों की उपलब्धता के आधार पर भोजन सामंजस्य स्थापित कर सकती हैं।

विकासखड स्तर पर यदि साक्षरता स्तर पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि प्रतापगढ़ सदर विकासखंड पुरुषों तथा महिलाओं की साक्षरता के आधार पर प्रथम स्थान पर है और यहाँ पर पुरुषों में 70.5 प्रतिशत तथा स्त्रियों में 29.5 प्रतिशत साक्षरता प्रदर्शित हो रही है जबकि न्यूनतम स्तर कालाकांकर विकासखंड प्रदर्शित कर रहा है। जहाँ पुरुषों में केवल 48 प्रतिशत तथा स्त्रियों में केवल 13.7 प्रतिशत साक्षरता दृष्टिगोचर हो रही है जनपदीय औसत से तुलना करें तो जनपदीय औसत से अधिक साक्षरता दर वाले विकासखंडों में लक्ष्मणपुर सडंवा चन्द्रिका, मांधाता, मगरौरा, पट्टी, शिवगढ़ हैं जबकि न्यून स्तर प्रदर्शित करने वाले विकासखंड बाबागंज, कुंडा, विहार, सांगीपुर, रामपुरखास, आसपुर, देवसरा तथा गौरा विकासखंड है।

 

तालिका 1.13 विकासखंडवार जनसंख्या का आर्थिक वर्गीकरण 1991

क्र.

विकासखंड

कृषक

कृषि श्रमिक

पशुपालन एवं वृक्षारोपण

खनन

पारिवारिक उद्योग

गैर पारिवारिक उद्योग

निर्माण कार्य

व्यापार एवं वाणिज्य

यातायात संग्रहण एवं संचार

अन्य कर्मकार

कुल मुख्य कर्मकार

सीमांत कर्मचार

कुल कार्यकार

1

2

3

4

5

6

7

8

9

10

11

12

13

14

15

1

कालाकांकर

26014

8331

222

6

1136

640

126

1272

244

1777

39768

3923

43691

2

बाबागंज

27194

11337

140

4

589

640

96

1120

317

2087

43524

3600

47124

3

कुण्डा

29469

12079

117

8

587

1010

80

1282

364

2435

47431

4672

52103

4

बिहार

26233

13548

192

16

1007

829

123

1430

327

2192

45897

3731

49628

5

सांगीपुर

32607

7550

85

5

552

890

57

920

180

1540

44386

5456

49842

6

रामपुरखास

37226

11774

176

5

704

667

129

1490

297

2020

54388

6109

60457

7

लक्ष्मणपुर

21514

8385

99

2

456

722

116

1348

548

1879

35069

3654

38760

8

संडवा चंद्रिका

21974

6328

47

7

681

321

130

1090

344

2138

33060

2783

35843

9

प्रतापगढ़

17048

9252

259

10

856

965

449

1835

1194

4548

36416

1245

37661

10

मान्धाता

26349

8566

106

10

995

705

385

1347

693

2774

21920

2173

44093

11

मगरौरा

27555

10199

185

20

788

1322

188

1361

879

2438

44930

2475

47405

12

पट्टी

20191

4857

90

8

430

713

104

1029

253

1402

29077

3293

32370

13

आसपुर देवसरा

24210

6606

114

7

451

678

96

1240

404

1716

35522

4450

39972

14

शिवगढ़

24289

9258

115

8

1068

827

72

1630

695

2250

40204

5681

58885

15

गौरा

26546

7543

199

17

957

905

137

1233

617

1755

39909

7586

47495

 

योग ग्रामीण

योग नगरीय

388419

5263

135505

2893

2146

542

133

5

11254

1002

11834

2889

9691

5686

19627

9414

4346

1887

32951

6676

611501

31080

60868

918

662369

31998

 

योग जनपद

393682

138398

2688

138

12254

14722

15377

29041

9233

39627

642581

61786

704366

 

 
तालिका 1.13 अध्ययन क्षेत्र के व्यावसायिक ढांचे का चित्र प्रस्तुत कर रही है। 1991 की जनगणना में आर्थिक क्रियाओं के आधार पर श्रमिकों का वर्गीकरण 11 कोटियों में किया गया है। कार्य अवधि के आधार पर समस्त जनसंख्या को मुख्य श्रमिक सीमांत कृषक/श्रमिक तथा गैर श्रमिक नामक वर्गों में बांटा गया है। मुख्य श्रमिक वे हैं जिन्होंने आर्थिक रूप से उत्पादक क्रियाओं में कुल 183 दिवस या 6 महीने अथवा इससे अधिक समय तक कार्य किया। सीमांत कृषक वे हैं जिन्होंने 183 दिवस या 6 महीने से कc अवधि तक कार्य किया है। गैर श्रमिक श्रेणी में वे लोग सम्मिलित हैं जिन्होंने वर्ष में थोड़ा भी कार्य नहीं किया है इन गैर श्रमिकों में भुगतान रहित घरेलू कार्य करने वाले लोग, पूर्णकालिक विद्यार्थी आश्रित यथा बच्चे विकलांग, अवकाश प्राप्त लोग, अथवा लगान उपजीवी भिखमंगे एवं संस्थाओं में रहने वाले लोग और अन्य गैर श्रमिक शामिल हैं। अन्य गैर श्रमिकों में वे लोग शामिल हैं जो अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद रोजगार के लिये प्रयासरत हैं। इस आधार पर देखा जाये तो जनपद में 31.86 प्रतिशत जनसंख्या कर्मकार की श्रेणी है शेष अन्य गैर कर्मचारी की श्रेणी में हैं। कुल कर्मचारियों में 75.84 प्रतिशत कृषक और कृषि श्रमिक हैं।

ब. गाँव खेत की दूरी :-
कृषि अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने वाले अनेक महत्त्वपूर्ण कारकों में जैसे, भूमि श्रम और पूँजी इत्यादि आवासीय स्थान से खेत की दूरी का कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। जोतों का कुल पुनर्गठन तथा अनेक भूमि सुधार कानून केवल इसी कारण बनाये गये हैं कि जिससे गाँव खेत के मध्य दूरी कम की जा सके। परंतु भूमि सुधार के आपेक्षिक परिणाम नहीं प्राप्त किये जा सके हैं। खेत तथा गाँव के मध्य दूरी का विश्लेषण इस मान्यता को लेकर किया जा रहा है कि सभी गाँव आकार में लगभग समान है तथा उनका घनावसाव है। ग्रामवासी एक गाँव में निवास करते हैं। यह भी मान लिया गया है कि ग्रामवासी अपने गाँव से बाहर जाकर कृषि कार्य नहीं करते हैं। यहाँ पर गाँव खेत के बीच की दूरी का विश्लेषण विकासखंड स्तर पर निम्न सूत्र की सहायता से किया गया है।

गाँव खेत की दूरी = 0.5373 A/N
जहाँ A = क्षेत्रफल N = गाँवों की संख्या

 

सारिणी 1.14 विकासखंड स्तर पर गाँव खेत की दूरी

क्र.

विकासखंड

क्षेत्रफल वर्ग किमी

गाँव की संख्या

गाँव खेत की दूरी (मी. में)

1

कालाकांकर

209.8

117

718

2

बाबागंज

263.7

145

725

3

कुण्डा

278.0

126

798

4

बिहार

266.0

114

821

5

सांगीपुर

261.6

125

777

6

रामपुरखास

321.2

194

691

7

लक्ष्मणपुर

206.7

127

685

8

संडवा चंद्रिका

222.6

138

682

9

प्रतापगढ़ सदर

188.9

137

631

10

मान्धाता

212.7

172

597

11

मगरौरा

285.8

212

624

12

पट्टी

196.2

160

595

13

आसपुर देवसरा

210.7

144

650

14

शिवगढ़

220.9

183

590

15

गौरा

237.7

125

741

 

योग

3582.5

2219

683

 

सारिणी क्रमांक 1.14 विकासखंड स्तर पर गाँव खेत के बीच की दूरी को प्रदर्शित कर रही है। जनपद की गाँव खेत के मध्य दूरी का औसत 683 मीटर है जो उत्तर प्रदेश के 825.9 मीटर तथा भारत की औसत दूरी 1281.1 मीटर से कम है। सारिणी से स्पष्ट है कि शिवगढ़ विकासखंड गाँव खेत की दूरी को न्यूनतम 590 मीटर रखता है इसके अतिरिक्त 595 मीटर की दूरी पट्टी विकासखंड तथा 597 की दूरी मांधाता विकासखंड रखते हैं जबकि विहार विकासखंड गाँव खेत के बीच की सर्वाधिक दूरी 821 मीटर रखता है। इसके बाद सर्वाधिक दूरी वाले विकासखंड कुंडा 798 मीटर गौरा विकासखंड 741 मीटर, सांगीपुर विकासखंड 777 मीटर, बाबागंज 725 मीटर तथा कालाकांकर 718 मीटर प्रमुख है अन्य विकासखंड 600 मी. से 700 मीटर के मध्य स्थित है।

(स) सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सेवाएँ :-
आजादी के बाद देश में स्वास्थ्य सेवाओं का जो ढाँचा खड़ा किया गया उसमें ग्रामीण क्षेत्र पूर्णतया उपेक्षित रहा है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का ढाँचा जो स्वीकार किया गया उसमें भारतीय चिकित्सा पद्धति की पूर्ण उपेक्षा करके अंग्रेजी द्वारा स्थापित स्वास्थ्य सुविधाओं का अत्यंत सीमित मात्रा में ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तार किया गया परिणाम स्वरूप स्थानीय सुविधाएँ जो कुछ भी थी वे धीरे-धीरे समाप्त हो गई और ग्रामीण जन एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति पर ही पूरी तरह निर्भर होते चले गये, परंतु ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति न तो गाँवों के लिये पर्याप्त है और न ही जनसाधारण की पहुँच के अंदर है। एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों का अभाव है दूसरे जहाँ पर अस्पताल स्थापित हैं वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। कुल मिलाकर गाँव के लिये मातृ शिशु रक्षा से लेकर रोगमुक्त ग्रामीण समाज बनाने तक जो सुविधायें उपलब्ध कराई गयी हैं वे अपर्याप्त साधन विहीन आरोपित और शोषण उन्मुख हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के लिये नगरों और कस्बों पर निर्भरता दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है, इस प्रकार गाँवों का पैसा शहरों की तरफ जाने से गाँव और निर्धन होते जा रहे हैं। अध्ययन क्षेत्र भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं का विवरण अग्र तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

तालिका 1.15 अध्ययन क्षेत्र में चिकित्सा सुविधाएँ 1994-95

क्र.

विकासखंड

चिकित्सालय औषधालय की संख्या

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र

समस्त उपलब्ध शैयाओं की संख्या

प्रतिलाख जनसंख्या पर ऐलोपैथिक चिकि./औष. एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की

प्रतिलाख जनसंख्या पर उपलब्ध सैयाएं

1

कालाकांकर

1

6

102

5.7

83.6

2

बाबागंज

-

5

20

3.7

14.6

3

कुण्डा

-

5

24

3.0

14.2

4

विहार

-

5

26

3.2

16.8

5

सांगीपुर

-

3

14

2.2

10.5

6

रामपुरखास

-

5

52

2.9

30.7

7

लक्ष्मणपुर

-

4

20

3.2

16.1

8

संडवा चंद्रिका

-

4

46

3.4

38.8

9

प्रतापगढ़

-

3

22

2.2

16.3

10

मान्धाता

-

4

22

2.6

14.5

11

मगरौरा

-

4

16

2.6

10.4

12

पट्टी

2

4

24

5.6

22.4

13

आसपुर देवसरा

-

4

46

3.0

37.8

14

शिवगढ़

-

3

16

2.2

11.8

15

गौरा

-

3

44

2.1

31.1

 

योग ग्रामीण

3

62

494

3.1

23.7

 

योग नगरीय

9

3

452

5.7

86.26

 

योग जनपद

12

65

946

3.62

28.06

 

 
सारिणी 1.15 में विकासखंड स्तर पर चिकित्सा सुविधाओं का विवरण प्रस्तुत कर रही है जिसके अनुसार जनपद में कुल 77 ऐलोपैथिक चिकित्सालय/ औषधालय तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हैं जिनमें से 65 ग्रामीण क्षेत्र में तथा 12 नगरीय क्षेत्र में स्थित हैं। ग्रामीण क्षेत्र को 494 सैयों की सुविधा उपलब्ध है जबकि नगरीय क्षेत्र को 452 सैयों की सुविधा उपलब्ध है इसके अतिरिक्त जनपद में 26 आयुर्वेदिक चिकित्सालय 05 यूनानी चिकित्सालय तथा 22 होम्योपैथिक चिकित्सालय स्थित है जिनमें सयाओं की संख्या क्रमश: 122, 12 तथा शून्य सैयाओं की सुविधा प्राप्त है। परिवार तथा मातृ शिशु कल्याण केंद्रों की संख्या 32 है तथा उपकेंद्रों की संख्या 360 है।

(द) विद्युत सुविधायें :-
ग्रामीण क्षेत्र के समग्र विकास हेतु गाँवों का विद्युतीकरण एक आवश्यक शर्त होती है। विद्युत से न केवल सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त होती है अपितु गाँवों में प्रकाश व्यवस्था के साथ-साथ अनेक विद्युत उपलकरणों को ऊर्जा प्रदान करती है। जिससे ग्रामीण जीवन स्तर ऊँचा उठता है। अध्ययन क्षेत्र में विद्युत सुविधा का विवरण तालिका 1.16 में प्रस्तुत है।

 

तालिका 1.16 अध्ययन क्षेत्र में विद्युत सुविधा 1994-95

क्र.

विकास खंड

विद्युतीकृत ग्राम

समस्त ग्रामों का प्रतिशत

ऊर्जाकृत/ निजी/ नलकूप/ पम्पिंगसेटों की संख्या

1

कालाकांकर

91

77.78

259

2

बाबागंज

71

48.97

225

3

कुण्डा

115

91.27

304

4

विहार

60

52.63

356

5

सांगीपुर

114

91.20

320

6

रामपुरखास

170

87.63

586

7

लक्ष्मणपुर

68

53.54

256

8

संडवा चंद्रिका

101

73.19

837

9

प्रतापगढ़

119

86.86

930

10

मान्धाता

94

54.65

753

11

मगरौरा

156

73.58

622

12

पट्टी

92

57.50

806

13

आसपुर देवसरा

125

86.80

1208

14

शिवगढ़

119

65.03

552

15

गौरा

85

68.00

583

 

योग ग्रामीण

1580

71.20

8597

 

 
सारिणी क्रमांक 1.16 अध्ययन क्षेत्र में विद्युत सुविधा के प्रसार का चित्रण कर रही है जनपद में कुल 2219 ग्रामों में से 1580 ग्राम अर्थात 71.20 प्रतिशत ग्राम विद्युतीकृत हो चुके हैं इनमें से कुंडा तथा सांगीपुर विकासखंडों में 90 प्रतिशत से अधिक ग्राम विद्युतीकृत किये जा चुके हैं जबकि बाबागंज विकासखंड का लगभग 49 प्रतिशत क्षेत्र विद्युतीकरण सुविधा प्राप्त कर चुका है बिहार, लक्ष्मणपुर तथा मांधाता विकासखंड 52 से 55 प्रतिशत ग्रामों को विद्युत सुविधा उपलब्ध करवा चुके हैं। पट्टी विकासखंड की स्थिति 57.50 प्रतिशत लगभग इन्हीं विकासखंडों जैसी है। विद्युत चलित नलकूपों/पंम्पिंग सेटो की सर्वाधिक संख्या 1208 आसपुर देवसरा विकासखंड में है और न्यूनतम संख्या 225 बाबागंज विकासखंड में है।

 

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002

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1

प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ

2

अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

3

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

4

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

5

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

6

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

7

कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति

8

भोजन के पोषक तत्व एवं पोषक स्तर

9

कृषक परिवारों के स्वास्थ्य का स्तर

10

कृषि उत्पादकता में वृद्धि के उपाय

11

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव