लेखक
सच बताना ऐ नदी
क्यों उछलती आ रही हो
हिम पर्वतों से निकल
क्यों पिघलती जा रही हो
प्रकृति में सौन्दर्य है ...
उसी से मिलकर चली हो
निज चिरंतन वेग ले
माटी में उसकी सनी हो
राह में बाधाएं इतनी
फिर भी सदा नीरा बनी हो
अटल नियति है यही
अनवरत बहना तुम्हें है
पाप कोई जन करे
बोझ तो ढोना तुम्हें है
आज भी कितने मरूथल
बाट तुम्हारी जोहते हैं
आज भी हरियालियों की
आस में सहमे हुए हैं
बहो कि आम्र कुंजों
में है बदलनी मरूभूमि अब
ऐ नदी कुछ तो बताओ
क्यों सिमटती जा रही हो
प्रिय तुम्हें जो घाट तट थे
रूठी क्यों उनसे जा रही हो
बढ़ो अपना मग स्वयं
तुमको बनाना ही पड़ेगा
बहो हे अविरल धारा
कल्याण करना ही पड़ेगा!!
क्यों उछलती आ रही हो
हिम पर्वतों से निकल
क्यों पिघलती जा रही हो
प्रकृति में सौन्दर्य है ...
उसी से मिलकर चली हो
निज चिरंतन वेग ले
माटी में उसकी सनी हो
राह में बाधाएं इतनी
फिर भी सदा नीरा बनी हो
अटल नियति है यही
अनवरत बहना तुम्हें है
पाप कोई जन करे
बोझ तो ढोना तुम्हें है
आज भी कितने मरूथल
बाट तुम्हारी जोहते हैं
आज भी हरियालियों की
आस में सहमे हुए हैं
बहो कि आम्र कुंजों
में है बदलनी मरूभूमि अब
ऐ नदी कुछ तो बताओ
क्यों सिमटती जा रही हो
प्रिय तुम्हें जो घाट तट थे
रूठी क्यों उनसे जा रही हो
बढ़ो अपना मग स्वयं
तुमको बनाना ही पड़ेगा
बहो हे अविरल धारा
कल्याण करना ही पड़ेगा!!