पहाड़ की पीड़ा

Submitted by admin on Fri, 08/30/2013 - 12:51
विधाता ने कितने श्रम से
बनाया होगा पहाड़ को
कि उसकी प्रिय कृति मनुज
कुछ तो निकटता
अनुभव कर सके उससे
ऊँचे ऊँचे वृक्ष,फल,वन पुष्प
बलूत, बुराँस,शैवाक
हरे भरे बुग्याल और
सबकी क्षुधा शांत करने हेतु
कलकल करते झरने
उन सबके मध्य
पसरी हुई घाटी से
होकर बहती पहाड़ की
लाडली नदी जिसे
बड़े यत्न से अपनी
गोद में सम्हाला है
सब कुछ कितना
शांत और स्वार्गिक
यकायक बयार चली
बदलाव की
पहाड़ों से दूर बैठी आधुनिक
प्रभुता विकास करने
पहाड़ तक आ पहुँची
पहाड़ को पीछे धकेला
जाने लगा
उसकी जीवनदायी शिराएं
वृक्ष वन कटे
लकड़ी की कुटिया
का स्थान ले लिया
कंक्रीट के वनों,
अट्टालिकाओं ने
लाडली नदी को बाँधना
आरम्भ हो गया
बाबुल से विदा हो निर्मल
जल धार जब सागर पिय
से मिलन को चली
मार्ग में ही त्रासद सभ्यता द्वारा
उसका सर्वस्व हरण होने लगा
पहाड़ की पीड़ा यह सब देख
बढ़ती ही जा रही है
उसके अंदर की तड़प
असहनीय है
शांत शीतल अंतस का
हिमनद फट पड़ता है
क्रोध से बहा ले जाता है
प्रभुता के विकास को
अपनी लाडली नदी को
देता है प्रचंड वेग
बंधन मुक्त हो जो दौड़ पड़ती है
प्रिय अंक समाने को
पहाड़ स्तब्ध है
अनचाहे विकास की पीड़ा के
बदले अनचाहे विनाश की
पीड़ा सहनी पड़ रही है
मानो पहाड़ अभिशप्त ही हो
पीड़ा ढोने के लिए!!