अबला नदी

Submitted by admin on Fri, 11/29/2013 - 09:27
पर्वतों उपत्यकाओं में
पली बढ़ी हूँ मैं
हिमनदों की बहुत
लाडली हूँ मैं
मुझसे ये धरा खिले
जिसे गगन लखे
ज्योतिर्मय नव विहान
की छटा दिखे
स्वयं गरल समेट कर
सुधा प्रवाहती
मैं क्या कहूं
इस मही का प्राण हूँ मैं ही
कलकल ध्वनि लिए
शाश्वत गान गा रही
पग बंधे हैं किंतु इच्छा
मुक्ति दान की
लक्ष्य था अनंत किंतु
मेरा अंत हो रहा
जिसे दिया था जन्म
वो ही प्राण ले रहा
अपने प्रिय तट बाहुओं
को छोड़ती चली
टुकड़ा टुकड़ा बीतती ही
जा रही हूँ मैं
पल पल कर रेत
में ही रीत रही मैं
सोचती श्रृंगार मेरा
कौन करेगा
अबला का उद्धार आज
कौन करेगा !!