Source
9 सितंबर 2011, साउथ एशिय डॉयलॉगस् ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी (सैडेड) नई दिल्ली
‘सैडेड’ एनजीओं के कर्ताधर्ता श्री विजय प्रताप के भाषण का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है। उनका यह वक्तव्य 9 सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर दिया गया था।
लेकिन हिमालय बचाने वाले इस अभियान में ये सब तो केंद्र में है ही लेकिन हम सबको अपने आप को भी केंद्र में रखना होगा। क्योंकि जब राष्ट्रीय आंदोलन हुआ था तो उसके आखरी दौर के जो नायक थे मोहनदास करमचंद गांधी, उनके जो निकटतम शिष्य चाहे वो सरदार पटेल हों या पंडित जवाहर लाल नेहरू ये-लोग इन सवालों को नहीं समझते थे।
गांधीजी अपने लेखन में, अपने आचरण में इस बात पर जोर देते थे कि ये दुनिया लालच में फंसेगी तो बचेगी नहीं। ये दुनिया सब की जरूरतों के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी भी एक व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती। गांधीजी के इस सूत्र वाक्यों की हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने जो आम तौर पर निजी स्तर पर बहुत सादगी, अनुकरणीय और आदर्शवादी जीवन जीते थे, उन्होंने भी खल्ली उड़ाई । व्यक्तिगत बातचीत में तो खिल्ली उड़ाई ही, अक्सर दास्तावेजों में भी वो खिल्ली दिख पड़ती है। देश की जो आर्थिक, वैज्ञानिक और प्रोद्यौगिक नीतियां बनी वो सब हिमालय, हमारी प्रकृति और हमारी लोक ज्ञान को नष्ट करने वाली बनी।
पश्चिम से आया हुआ ज्ञान, विज्ञान और प्रोद्यौगिकी इन तीनों के बारे में हमारा विश्वास ठीक वैसा ही था जैसे एक धर्मभीरु में अंधी श्रद्धा हो जाती है किसी भी चीज को लेकर। उसमें विवेक नाम की चीज नहीं होती। दुनिया को चलाने के लिए जहां आस्था चाहिए तो साथ में विवेक भी चाहिए। लेकिन हमने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को एक अंधी श्रद्धा से चलाया और उसमें अपने तमाम तरह के लोक ज्ञान को चाहे वो इमारत बनाने का लोकज्ञान हो, नदी-नालों को संजोग कर रखने का लोकज्ञान हो, चाहे मरुस्थल में तालाब के माध्यम से सिंचाई का लोकज्ञान हो, तमाम लोक ज्ञान को या तो नष्ट किया या उसको हीनभाव से देखा।
जिस वजह से आज वो देखने को नहीं मिलता। उसे खोजना पड़ रहा है। खेती के बारे में आज हमारा पारंपरिक ज्ञान लगभग नगण्य है। हमारे देश के जो आदिवासी हैं और उनकी जो प्रकृति और पर्यावरण के बारे में समझ है, उस समझ के बारे में हमारे भीतर जानने की कोई रूचि ही नहीं है। उसके प्रति हम में कोई विनम्रता नहीं है। पूरी दुनिया के साथ-साथ जब हमारे हिस्से में सुनामी आई तब आपको ध्यान होगा कि एक ही द्वीप, अंडमान निकोबार ऐसा था जहां पर जंतुओं, पक्षियों की गतिशीलता को देखकर वहां के आदिवासी भांप गए कि यहां सुनामी जैसी कोई प्रलयकारी घटना होने वाली है।
वहां की सारी आबादी बिना प्रिडिक्शन वाले औजारों के ही समझ गई थी और समझकर सबको बचा लिया। आदिवासियों का प्रकृति से जो जुड़ाव है, जो समझ है उसके बारे में हमारे ज्ञान-विज्ञान प्रणालियों में इतना दम्भ है कि हम उसको जानना भी नहीं चाहते। ऐसी घटनाओं के बाद भी हमारे मन में कोई विनम्रता नहीं आती की हम वैसे ज्ञान-विज्ञान को समझें।
मजे की बात है कि हमारे इस आंदेलन के केंद्र में हम खुद और हमारे स्वयं शिक्षण ज्यादा हैं। हमारे जो कालवाह्य विचार हैं, अवैज्ञाानिक ज्ञान और विज्ञान में जो आस्था है, विकास के अवैज्ञानिकता में जो आस्था है, आधुनिक ज्ञान के कुछ भ्रम हमारे मन में, हमारे दिमाग में समा गए हैं और सबसे बड़ा भ्रम ये है कि ये जो अमेरीकी तथाकथित उपभोगवादी स्वर्ग है वो संभव भी है वांच्छनीय भी है। इसको अपने भीतर से निकालना है जैसे भूत पिचास को उतारा जाता था।
ये सबसे बड़ा मिथक है जिसके कारण से हमारे नदी नाले, हमारा पर्यावरण, हमारा पूरा हिमालय और पूरी पृथ्वी खतरे की जद में है। इस भ्रम के बारे में हम कोई बात सुनने को तैयार नहीं हैं। मामूली सी भी कड़वी लेकिन सच्ची बात सुनने को तैयार नहीं हैं। हमारी मनःस्थिति ये है कि जो ईमानदार दुविधाएं हैं वो सुनने को तैयार नहीं हैं। चाहे हम किसी भी विचारधारा के हों, चाहे किसी भी पार्टी के हों।
हम हिमालय बचाने को लेकर गोष्ठी कर रहे हैं इसी संदर्भ में एक बात कहना चाहूंगा कि मैं मध्यप्रदेश क्लाईमेट एक्शन की चर्चा के लिए एक गाष्ठी में था उसमें वन मंत्री, पर्यावरण मंत्री, मुख्यमंत्री तमाम मंत्री-संत्री आए थे। उसमें आयोजक मेरे साथी लोग ही थे जिसमें मैं भी था। उसमें तमाम वैज्ञानिक जो सत्ता में नहीं हैं जो सत्ता के किसी संस्थान विज्ञान केंद्र में भी नहीं हैं अगर उनके सामने आप हल्के से भी लोकज्ञान परंपराओं की बात करें और कहें कि खेती के अब भी बहुत से तरीके, ऐसी जानकारियां, तकनीकी उपलब्ध हैं जिसमें ऊर्जा की खपत नहीं होती। जिसमें प्रेस्टीसाईज नहीं लगाना पड़ता। जिसमें फर्टीलाइजर नहीं लगाना पड़ता।
आपको मालूम है कि पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स पर हमारी सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी खर्च होती है और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के खपत के कारण ही हमने पहले अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया उसके बाद 1991 की नीतियां लागू हुई तो उसके विकल्प के लिए अभी भी हमारे यहां जीवंत ज्ञान परम्पराएं हैं। ये बात अगर आप कहिए तो तथाकथित लोकज्ञान, विज्ञान के आंदोलन के नेताओं को जिन्हें मैंने देखा है कि उनकी मजबूरी हो जाती है ये कहना कि नहीं-नहीं वो सब ठीक नहीं है, उसको जांचना पड़ेगा, उसमें सामंती सड़न हो सकती है। मेरा कहना है कि आप जाति तोड़ो आंदोलन चलाओ, उस पर बहस करो।
जाति के संस्कार पर बहस करो लेकिन समाज में, पूरी दुनिया में विषमता की अलग-अलग अभिव्यक्तियां होती हैं। हमारे यहां भी थी और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण चीज थी और है। उसके खिलाफ तो यहां बैठे हमारे बहुगुणा जी है जो पूरी दुनिया में पर्यावरण बचाओ के अगुवा बने। इन्होंने उत्तराखंड के शिल्पकार जातियों के लिए लड़ते हुए कैसी-कैसी प्रताड़नाएं सुनी हैं, कैसे इनको आघात लगा था यह तो उत्तराखंड के साथी ही जानते हैं। जब एक मोर्चे पर पर्यावरण और विकास के सवाल पर बात हो रही हो तब दूसरे मोर्चे की बात उठाकर कह देना कि नहीं-नहीं ये बात तो अधूरी है, इसको तो जांचना पड़ेगा, से सामंती सड़न, आदि का क्या औचित्य है?
हमारा इस तरह का अंध विश्वास आधुनिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी में है। ऐसी नकारत का भाव, ऐसी अनास्था का भाव हमारी अपनी ज्ञान परंपराओं में है। जीने के तरीके के बारे में है। पहले के समय ऐसे मकान बनाए जाते थे, जिसमें आपको ए.सी. की जरूरत नहीं थी। लेकिन अब हमको शहरों में कोई हाॅल उपलब्ध नहीं होता जहां बिना ए.सी. के मीटिंग संभव हो सके।
ये जो अंतरविरोध हैं, इन अंतरविरोधों के बारे में अपनी समझ बनाके नीति के स्तर पर इन चीजों को बदलवाने के लिए बहुत बड़ी राजनैतिक शक्ति चाहिए। लेकिन उस राजनैतिक शक्ति से पहले हमको अपनी समझ बढ़ानी पड़ेगी, साझे संगठन बनाने होंगे ताकि उस समझ के आधार पर जनता के बीच जाएं। लोकसंग्रह का काम करें और उस लोकसंग्रह के आधार पर जो लोकशक्ति खड़ी होगी उससे इस राज्य को अपनी नीतियां बदलनी पड़ेंगी। अर्थव्यवस्था का ढांचा बदलना पड़ेगा।
मध्य प्रदेश की बैठक में जो किसान आए थे, जो आदिवासी आए थे, आदिवासी महिलाएं आई थीं ये लोग सबसे अच्छा बोले। पर्यावरण का जो सवाल है उसमें जब तक कूएं को, तालाब को, नदी को नहीं बचाएंगे, वर्षा आधारित खेती कैसे करनी है? इन सब चीजों के बारे में बात नहीं करेंगे तो हम कैसा भी एक्शन प्लान बना लें, हम हिमालय को नहीं बचा सकते। हमारा जो दूसरा अंतरविरोध है अमेरीकी स्वर्ग के बारे में, उसमें बाजारवाद के बारे में भी अंधविश्वास है।
इस बार जो बारवीं योजना बन रही है, उसका आप एप्रोच डोकोमेंट देखें। उसमें जल, जंगल, जमीन, वन इन सब के बारे में जो कहा गया है, वो देखने लायक है। वो ईमानदार दस्तावेज है! अगर उसके हिसाब से योजना बनेगी तो हमारे पास एक ही सुन्दर लाल बहुगुणा हैं लेकिन तब सौ सुन्दर लाल बहुगुणा होंगे तब भी देश और हिमालय नहीं बचने वाला है। इस योजना में जो दृष्टि पात्र है उसमें कहा गया है कि ‘विल प्रोडक्ट एन एनवायरमेंट इन ए मैनर सो डैट इट कैडट टू दी बोथ ग्रोथ।’ यानी पर्यावरण की रक्षा नहीं करनी है, पर्यावरण की इस ढंग से रक्षा करनी है कि वो बाजार के अनुकूल हो जाए।
शुरू में जब 91 में ये नीतियां शुरू हुई थीं तो लगता था कि हमारे लोकतंत्र को काॅरपोरेट अनुकूल बना रहे हैं, कंपोटेवल बना रहे हैं। लेकिन इस बार के दृष्टि पात्र में यह साफ कह दिया गया है कि यह काॅरपोरेट कंट्रोल्ड होगा। ये इन शब्दों में नहीं कहा गया है लेकिन आप उसका पूरा मजमून पढ़ लिजिए, उसमें एकदम शुरू में ही कह दिया गया है कि विकास सिर्फ प्राईवेट सेक्टर ही कर सकते हैं और जल, जंगल, जमीन, वन सबको प्राईवेट सेक्टर के अनुकूल कर देना है। यह उसमें स्पष्टता से कह दिया गया है। अगर नियोजन हम ऐसा करते रहेंगे और उसी पार्टी के नियोजनकर्ता एक बात लिख रहे हैं और अभी आपके सामने उसी पार्टी के हिमालय के सांसद जो बोलकर गए, मुझे तो भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ये दोनों सांसद सत्तारुढ़ पार्टी के हैं।
सिक्किम के सांसद पी.डी.राय ने जिस विद्धता और सफाई से बात की, प्रदीप टम्टा जी ने जिस साफगोई से बात की जैसे वे हम लोगों के बीच आंदोलन समूहों में इन सवालों को उठाते थे, वैसे ही उसी पीड़ा से, उसी संवेदना से और उसी साफगाई से आज वो बात कर रहे थे। एक तरफ व्यवस्था है जिसकी बहुत स्पष्ट दृष्टि है कि उसको अमेरीकी उपभोगवादी स्वर्ग लाना है। उसको कॉरपोरेशन के माध्यम से देश में ग्रोथ रेट को बढ़ाना है। दूसरी तरफ हमारे पी.डी.राय हैं, प्रदीप टम्टा हैं, हमारे जैसे लोग हैं जो सत्ता के गलियारे से दूर हैं चाहे अपनी इच्छा के कारण दूर हों या चाहे सत्ता का चरित्र ही ऐसा हो गया है कि उसकी ओर देखने या सोचने का मन नहीं करता है।
ये जो द्वैद है, इसके बारे में इस तरह के हमारे सभा-सम्मेलन भर से कोई रास्ता मिलेगा, इस बारे में मुझे संशय है। मैं इसके आयोजकों में जरूर शामिल हूं, एक कार्यकर्ता के नाते। पूरी दुनिया के सामने डेवलपमेंट डायनामाइज हैं, उनके बारे में आपस में हम ईमानदार बहस नहीं करेंगे तो हिमालय को बचाना, पर्यावरण की रक्षा करना, क्लाइमेंट क्राइसेस की चुनौती से निपटना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए मैं विनम्र निवेदन करता हूं अपने तमाम सह आयोजक साथियों से कि ऐसी गोष्ठियों, सम्मेलनों के साथ-साथ हम अपना सामूहिक स्वाध्याय और चिंतन का कुछ ऐसा कार्यक्रम चलाएं ताकि देश के सामने एक वैकल्पिक विकास की स्पष्ट तस्वीर रख सकें की हिमालय की रक्षा इन कदमों से होगी और उसमें आदर्श और अंतिम लक्ष्य की बजाए आज जो परिस्थिति है उसमें पहले दो-तीन कदम क्या होंगे?
उस पर एक राष्ट्रीय सहमति बनाने की कोशिश करें। उसमें विचारधाराओं, पार्टियों, संगठनों, वर्गों से उपर उठ के सोचें। क्योंकि ये सवाल पूरी सृष्टि का और सृष्टि पर जीवन का है। यह मानववाद और राष्ट्र के दायरों से भी बड़ा सवाल है। हिमालय एक प्रतीक है, इसका अर्थ हमारी सृष्टि और हमारा परिवेश है।
इस बार जो बारवीं योजना बन रही है, उसका आप एप्रोच डोकोमेंट देखें। उसमें जल, जंगल, जमीन, वन इन सब के बारे में जो कहा गया है, वो देखने लायक है। वो ईमानदार दस्तावेज है! अगर उसके हिसाब से योजना बनेगी तो हमारे पास एक ही सुन्दर लाल बहुगुणा हैं लेकिन तब सौ सुन्दर लाल बहुगुणा होंगे तब भी देश और हिमालय नहीं बचने वाला है। इस योजना में जो दृष्टि पात्र है उसमें कहा गया है कि ‘विल प्रोडक्ट एन एनवायरमेंट इन ए मैनर सो डैट इट कैडट टू दी बोथ ग्रोथ।’
हिमालय के साथ-साथ अगर पूरी दुनिया में हिमालय को लेकर सरोकार नहीं होगा तो हिमालय नहीं बचेगा। हिमालय को दुनिया का तीसरा ध्रुव कहा जाता है। अब ये बात वैज्ञानिक तरीके से स्वयं स्पष्ट हो रही है। अगर हम तीसरे ध्रुव के क्या मायने हैं? को पूरी गहराई से नहीं समझेंगे तो हिमालय नहीं बचेगा। हिमालय नहीं बचा तो सृष्टी पर जीवन भी बचेगा या नहीं यह निश्चित तौर पर कहना संभव नहीं है। आम तौर पर जो दूसरे तरह के अभियान होते हैं उसके केंद्र में व्यवस्था होती है। उसमें राज-काज चलाने वाले केंद्र में होते हैं। कुछ अभियान ऐसे होते हैं जिनके केंद्र में वो लोग होते हैं जिसके हाथ में आर्थिक तंत्र होता है।लेकिन हिमालय बचाने वाले इस अभियान में ये सब तो केंद्र में है ही लेकिन हम सबको अपने आप को भी केंद्र में रखना होगा। क्योंकि जब राष्ट्रीय आंदोलन हुआ था तो उसके आखरी दौर के जो नायक थे मोहनदास करमचंद गांधी, उनके जो निकटतम शिष्य चाहे वो सरदार पटेल हों या पंडित जवाहर लाल नेहरू ये-लोग इन सवालों को नहीं समझते थे।
गांधीजी अपने लेखन में, अपने आचरण में इस बात पर जोर देते थे कि ये दुनिया लालच में फंसेगी तो बचेगी नहीं। ये दुनिया सब की जरूरतों के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी भी एक व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती। गांधीजी के इस सूत्र वाक्यों की हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने जो आम तौर पर निजी स्तर पर बहुत सादगी, अनुकरणीय और आदर्शवादी जीवन जीते थे, उन्होंने भी खल्ली उड़ाई । व्यक्तिगत बातचीत में तो खिल्ली उड़ाई ही, अक्सर दास्तावेजों में भी वो खिल्ली दिख पड़ती है। देश की जो आर्थिक, वैज्ञानिक और प्रोद्यौगिक नीतियां बनी वो सब हिमालय, हमारी प्रकृति और हमारी लोक ज्ञान को नष्ट करने वाली बनी।
पश्चिम से आया हुआ ज्ञान, विज्ञान और प्रोद्यौगिकी इन तीनों के बारे में हमारा विश्वास ठीक वैसा ही था जैसे एक धर्मभीरु में अंधी श्रद्धा हो जाती है किसी भी चीज को लेकर। उसमें विवेक नाम की चीज नहीं होती। दुनिया को चलाने के लिए जहां आस्था चाहिए तो साथ में विवेक भी चाहिए। लेकिन हमने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को एक अंधी श्रद्धा से चलाया और उसमें अपने तमाम तरह के लोक ज्ञान को चाहे वो इमारत बनाने का लोकज्ञान हो, नदी-नालों को संजोग कर रखने का लोकज्ञान हो, चाहे मरुस्थल में तालाब के माध्यम से सिंचाई का लोकज्ञान हो, तमाम लोक ज्ञान को या तो नष्ट किया या उसको हीनभाव से देखा।
जिस वजह से आज वो देखने को नहीं मिलता। उसे खोजना पड़ रहा है। खेती के बारे में आज हमारा पारंपरिक ज्ञान लगभग नगण्य है। हमारे देश के जो आदिवासी हैं और उनकी जो प्रकृति और पर्यावरण के बारे में समझ है, उस समझ के बारे में हमारे भीतर जानने की कोई रूचि ही नहीं है। उसके प्रति हम में कोई विनम्रता नहीं है। पूरी दुनिया के साथ-साथ जब हमारे हिस्से में सुनामी आई तब आपको ध्यान होगा कि एक ही द्वीप, अंडमान निकोबार ऐसा था जहां पर जंतुओं, पक्षियों की गतिशीलता को देखकर वहां के आदिवासी भांप गए कि यहां सुनामी जैसी कोई प्रलयकारी घटना होने वाली है।
वहां की सारी आबादी बिना प्रिडिक्शन वाले औजारों के ही समझ गई थी और समझकर सबको बचा लिया। आदिवासियों का प्रकृति से जो जुड़ाव है, जो समझ है उसके बारे में हमारे ज्ञान-विज्ञान प्रणालियों में इतना दम्भ है कि हम उसको जानना भी नहीं चाहते। ऐसी घटनाओं के बाद भी हमारे मन में कोई विनम्रता नहीं आती की हम वैसे ज्ञान-विज्ञान को समझें।
मजे की बात है कि हमारे इस आंदेलन के केंद्र में हम खुद और हमारे स्वयं शिक्षण ज्यादा हैं। हमारे जो कालवाह्य विचार हैं, अवैज्ञाानिक ज्ञान और विज्ञान में जो आस्था है, विकास के अवैज्ञानिकता में जो आस्था है, आधुनिक ज्ञान के कुछ भ्रम हमारे मन में, हमारे दिमाग में समा गए हैं और सबसे बड़ा भ्रम ये है कि ये जो अमेरीकी तथाकथित उपभोगवादी स्वर्ग है वो संभव भी है वांच्छनीय भी है। इसको अपने भीतर से निकालना है जैसे भूत पिचास को उतारा जाता था।
ये सबसे बड़ा मिथक है जिसके कारण से हमारे नदी नाले, हमारा पर्यावरण, हमारा पूरा हिमालय और पूरी पृथ्वी खतरे की जद में है। इस भ्रम के बारे में हम कोई बात सुनने को तैयार नहीं हैं। मामूली सी भी कड़वी लेकिन सच्ची बात सुनने को तैयार नहीं हैं। हमारी मनःस्थिति ये है कि जो ईमानदार दुविधाएं हैं वो सुनने को तैयार नहीं हैं। चाहे हम किसी भी विचारधारा के हों, चाहे किसी भी पार्टी के हों।
हम हिमालय बचाने को लेकर गोष्ठी कर रहे हैं इसी संदर्भ में एक बात कहना चाहूंगा कि मैं मध्यप्रदेश क्लाईमेट एक्शन की चर्चा के लिए एक गाष्ठी में था उसमें वन मंत्री, पर्यावरण मंत्री, मुख्यमंत्री तमाम मंत्री-संत्री आए थे। उसमें आयोजक मेरे साथी लोग ही थे जिसमें मैं भी था। उसमें तमाम वैज्ञानिक जो सत्ता में नहीं हैं जो सत्ता के किसी संस्थान विज्ञान केंद्र में भी नहीं हैं अगर उनके सामने आप हल्के से भी लोकज्ञान परंपराओं की बात करें और कहें कि खेती के अब भी बहुत से तरीके, ऐसी जानकारियां, तकनीकी उपलब्ध हैं जिसमें ऊर्जा की खपत नहीं होती। जिसमें प्रेस्टीसाईज नहीं लगाना पड़ता। जिसमें फर्टीलाइजर नहीं लगाना पड़ता।
आपको मालूम है कि पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स पर हमारी सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी खर्च होती है और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के खपत के कारण ही हमने पहले अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया उसके बाद 1991 की नीतियां लागू हुई तो उसके विकल्प के लिए अभी भी हमारे यहां जीवंत ज्ञान परम्पराएं हैं। ये बात अगर आप कहिए तो तथाकथित लोकज्ञान, विज्ञान के आंदोलन के नेताओं को जिन्हें मैंने देखा है कि उनकी मजबूरी हो जाती है ये कहना कि नहीं-नहीं वो सब ठीक नहीं है, उसको जांचना पड़ेगा, उसमें सामंती सड़न हो सकती है। मेरा कहना है कि आप जाति तोड़ो आंदोलन चलाओ, उस पर बहस करो।
जाति के संस्कार पर बहस करो लेकिन समाज में, पूरी दुनिया में विषमता की अलग-अलग अभिव्यक्तियां होती हैं। हमारे यहां भी थी और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण चीज थी और है। उसके खिलाफ तो यहां बैठे हमारे बहुगुणा जी है जो पूरी दुनिया में पर्यावरण बचाओ के अगुवा बने। इन्होंने उत्तराखंड के शिल्पकार जातियों के लिए लड़ते हुए कैसी-कैसी प्रताड़नाएं सुनी हैं, कैसे इनको आघात लगा था यह तो उत्तराखंड के साथी ही जानते हैं। जब एक मोर्चे पर पर्यावरण और विकास के सवाल पर बात हो रही हो तब दूसरे मोर्चे की बात उठाकर कह देना कि नहीं-नहीं ये बात तो अधूरी है, इसको तो जांचना पड़ेगा, से सामंती सड़न, आदि का क्या औचित्य है?
हमारा इस तरह का अंध विश्वास आधुनिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी में है। ऐसी नकारत का भाव, ऐसी अनास्था का भाव हमारी अपनी ज्ञान परंपराओं में है। जीने के तरीके के बारे में है। पहले के समय ऐसे मकान बनाए जाते थे, जिसमें आपको ए.सी. की जरूरत नहीं थी। लेकिन अब हमको शहरों में कोई हाॅल उपलब्ध नहीं होता जहां बिना ए.सी. के मीटिंग संभव हो सके।
ये जो अंतरविरोध हैं, इन अंतरविरोधों के बारे में अपनी समझ बनाके नीति के स्तर पर इन चीजों को बदलवाने के लिए बहुत बड़ी राजनैतिक शक्ति चाहिए। लेकिन उस राजनैतिक शक्ति से पहले हमको अपनी समझ बढ़ानी पड़ेगी, साझे संगठन बनाने होंगे ताकि उस समझ के आधार पर जनता के बीच जाएं। लोकसंग्रह का काम करें और उस लोकसंग्रह के आधार पर जो लोकशक्ति खड़ी होगी उससे इस राज्य को अपनी नीतियां बदलनी पड़ेंगी। अर्थव्यवस्था का ढांचा बदलना पड़ेगा।
मध्य प्रदेश की बैठक में जो किसान आए थे, जो आदिवासी आए थे, आदिवासी महिलाएं आई थीं ये लोग सबसे अच्छा बोले। पर्यावरण का जो सवाल है उसमें जब तक कूएं को, तालाब को, नदी को नहीं बचाएंगे, वर्षा आधारित खेती कैसे करनी है? इन सब चीजों के बारे में बात नहीं करेंगे तो हम कैसा भी एक्शन प्लान बना लें, हम हिमालय को नहीं बचा सकते। हमारा जो दूसरा अंतरविरोध है अमेरीकी स्वर्ग के बारे में, उसमें बाजारवाद के बारे में भी अंधविश्वास है।
इस बार जो बारवीं योजना बन रही है, उसका आप एप्रोच डोकोमेंट देखें। उसमें जल, जंगल, जमीन, वन इन सब के बारे में जो कहा गया है, वो देखने लायक है। वो ईमानदार दस्तावेज है! अगर उसके हिसाब से योजना बनेगी तो हमारे पास एक ही सुन्दर लाल बहुगुणा हैं लेकिन तब सौ सुन्दर लाल बहुगुणा होंगे तब भी देश और हिमालय नहीं बचने वाला है। इस योजना में जो दृष्टि पात्र है उसमें कहा गया है कि ‘विल प्रोडक्ट एन एनवायरमेंट इन ए मैनर सो डैट इट कैडट टू दी बोथ ग्रोथ।’ यानी पर्यावरण की रक्षा नहीं करनी है, पर्यावरण की इस ढंग से रक्षा करनी है कि वो बाजार के अनुकूल हो जाए।
शुरू में जब 91 में ये नीतियां शुरू हुई थीं तो लगता था कि हमारे लोकतंत्र को काॅरपोरेट अनुकूल बना रहे हैं, कंपोटेवल बना रहे हैं। लेकिन इस बार के दृष्टि पात्र में यह साफ कह दिया गया है कि यह काॅरपोरेट कंट्रोल्ड होगा। ये इन शब्दों में नहीं कहा गया है लेकिन आप उसका पूरा मजमून पढ़ लिजिए, उसमें एकदम शुरू में ही कह दिया गया है कि विकास सिर्फ प्राईवेट सेक्टर ही कर सकते हैं और जल, जंगल, जमीन, वन सबको प्राईवेट सेक्टर के अनुकूल कर देना है। यह उसमें स्पष्टता से कह दिया गया है। अगर नियोजन हम ऐसा करते रहेंगे और उसी पार्टी के नियोजनकर्ता एक बात लिख रहे हैं और अभी आपके सामने उसी पार्टी के हिमालय के सांसद जो बोलकर गए, मुझे तो भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ये दोनों सांसद सत्तारुढ़ पार्टी के हैं।
सिक्किम के सांसद पी.डी.राय ने जिस विद्धता और सफाई से बात की, प्रदीप टम्टा जी ने जिस साफगोई से बात की जैसे वे हम लोगों के बीच आंदोलन समूहों में इन सवालों को उठाते थे, वैसे ही उसी पीड़ा से, उसी संवेदना से और उसी साफगाई से आज वो बात कर रहे थे। एक तरफ व्यवस्था है जिसकी बहुत स्पष्ट दृष्टि है कि उसको अमेरीकी उपभोगवादी स्वर्ग लाना है। उसको कॉरपोरेशन के माध्यम से देश में ग्रोथ रेट को बढ़ाना है। दूसरी तरफ हमारे पी.डी.राय हैं, प्रदीप टम्टा हैं, हमारे जैसे लोग हैं जो सत्ता के गलियारे से दूर हैं चाहे अपनी इच्छा के कारण दूर हों या चाहे सत्ता का चरित्र ही ऐसा हो गया है कि उसकी ओर देखने या सोचने का मन नहीं करता है।
ये जो द्वैद है, इसके बारे में इस तरह के हमारे सभा-सम्मेलन भर से कोई रास्ता मिलेगा, इस बारे में मुझे संशय है। मैं इसके आयोजकों में जरूर शामिल हूं, एक कार्यकर्ता के नाते। पूरी दुनिया के सामने डेवलपमेंट डायनामाइज हैं, उनके बारे में आपस में हम ईमानदार बहस नहीं करेंगे तो हिमालय को बचाना, पर्यावरण की रक्षा करना, क्लाइमेंट क्राइसेस की चुनौती से निपटना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए मैं विनम्र निवेदन करता हूं अपने तमाम सह आयोजक साथियों से कि ऐसी गोष्ठियों, सम्मेलनों के साथ-साथ हम अपना सामूहिक स्वाध्याय और चिंतन का कुछ ऐसा कार्यक्रम चलाएं ताकि देश के सामने एक वैकल्पिक विकास की स्पष्ट तस्वीर रख सकें की हिमालय की रक्षा इन कदमों से होगी और उसमें आदर्श और अंतिम लक्ष्य की बजाए आज जो परिस्थिति है उसमें पहले दो-तीन कदम क्या होंगे?
उस पर एक राष्ट्रीय सहमति बनाने की कोशिश करें। उसमें विचारधाराओं, पार्टियों, संगठनों, वर्गों से उपर उठ के सोचें। क्योंकि ये सवाल पूरी सृष्टि का और सृष्टि पर जीवन का है। यह मानववाद और राष्ट्र के दायरों से भी बड़ा सवाल है। हिमालय एक प्रतीक है, इसका अर्थ हमारी सृष्टि और हमारा परिवेश है।