पहले वनों को आग के हवाले झोंका जा रहा है फिर वनीकरण का खेल खेला जा रहा है। पानी का संग्रहण करने वाली बांज व बांस जैसी प्रजातियों के संरक्षण के बजाय यूकेलिप्टिस जैसी पानी सोखने वाली प्रजाति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे एक ओर पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जिससे मानव आबादी के समक्ष पानी का संकट पैदा हुआ है तो वहीं पानी के अभाव में खेत भी बंजर हो रहे हैं।
सुरम्य वन, हरे-भरे बुग्याल, हिमाच्छादित चोटियां, फूलों भरी घाटियां, कल-कल बहती नदियां, कूजते-चहकते पशु-पक्षी यही सब हिमालय को भव्यता व सुंदरता प्रदान करते हैं, यही यहां के जन-जीवन को जीवंतता से भर देते हैं तो वहीं लोगों में आशा का संचार भी करते हैं। यही यहां के पारिस्थिकीय संतुलन के आधार भी हैं। लेकिन आज इस हिमालय व इसकी गोद में बसने वालों के समक्ष कई तरह की चुनौतियाँ व संकट खड़े हो गए हैं। यहां का जनजीवन, जल, जंगल, जमीन, जानवर सभी संकट के साए में हैं। अनियोजित विकास, प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट के चलते हिमालय का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है जिसकी मार खुद हिमालय तो भुगत ही रहा है लेकिन दंड मिल रहा है हिमालयी जनता को। हिमालय में हो रहे पर्यावरण असंतुलन ने यहां की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक समृद्धि को भी दरकाया है। सूखा, भूकंप, अतिवृष्टि, भूस्खलन, बढ़ती बीमारियों के कहर के रूप में इसका परिणाम हिमालयी जनता भुगत रही है। स्थिर कहा जाने वाला हिमालय आज अस्थिर है। खिसकते ग्लेशियर आज हिमालय के लिए खतरा बने हुए हैं। यहां का हिमाच्छादित क्षेत्र लगातार घट रहा है। भूगर्भ विशेषज्ञों के मुताबिक वर्ष 1986 तक जो क्षेत्र 85 फीसदी था वह अब मात्र 35 फीसदी रह गया है। ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की दर लगातार बढ़ रही है। हर साल, हर बरसात में हिमालय दरकता जा रहा है जो अपनी खूबसूरती को तो बदरंग कर ही रहा है वहीं यह हर साल दर्जनों लोगों की जानें भी लील लेता है, लाखों की सम्पत्ति चौपट होती है और जनजीवन महीनों तक ठप रहता है। हिमालय के लगातार दरकने से सड़क दुर्घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई है। सैंकड़ों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं। हर साल यह कहानी अपने को दोहराती है। जिस हिमालय की जलवायु को स्वास्थ्य के लिहाज से काफी उच्च कोटि का माना जाता था आज उसी हिमालय की जलवायु में जहर घुल रहा है। जिस हिमालय में कभी मच्छर नहीं हुआ करते थे वहां आज मलेरिया व डेंगू के मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज हिमालय क्रोधित है और वह बगावत पर उतर आया है। ऐसे में हिमालय में विकास व पर्यावरण का सवाल अहम हो जाता है।
हिमालयी राज्य उत्तराखंड भी इन्हीं सवालों से दो-चार हो रहा है। यहां के जीवन का आधार जल, जमीन, जंगल व जानवर रहे हैं यहीं यहां के पर्यावरण व अर्थव्यवस्था के आधार भी हैं। इस राज्य की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती है। इनकी मूलभूत आवश्यकताएं इन्हीं से जुड़ी हैं। विकास के नाम पर यहां के प्राकृतिक संसाधनों के साथ जो लूट खसोट हो रही है उसके चलते पहाड़ी भागों की खेती धीरे-धीरे चौपट होती जा रही है कारण यह कि स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों की कमी के चलते लोग पलायन कर रहे हैं। खेती को संभालने वाला मानव संसाधन लगातार कम होते जा रहा है। गांव उजड़ रहे हैं, जमीनें बंजर पड़ रही हैं, युवाओं के अभाव व बुजुर्गों की लाचारी का फायदा कुछ चालाक लोग उठा रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों का अपने हितों के लिए उपयोग हो रहा है। यहां फैले 65 प्रतिशत वनों पर स्थानीय जनता को उनके हक-हकूकों से वंचित करने की साजिश लगातार जारी है। एक साजिश के तहत हर साल जंगलों को आग में झोंका जा रहा है फिर आग बुझाने के प्रोजेक्टीकरण के नाम पर लाखों-करोड़ों का हेर-फेर होता है लेकिन इसका सर्वाधिक नुकसान पर्यावरण व यहां के जनजीवन पर पड़ रहा है। वनों की आग में करोड़ों की वन सम्पदा नष्ट हो रही है, हर साल हजारों किलोमीटर वन क्षेत्र इस आग की चपेट में आ रहा है। आग की धुंध कई बीमारियों की जड़ बन रही है तो वहीं इसने मानव के साथ ही जंगलों में निवास करने वाले जानवरों के समक्ष भी एक संकट पैदा किया है। ये अब पेट भरने व रैन बसेरे की तलाश में मानव आबादी तक आ पहुंचे हैं और मानव आबादी पर हमला कर रहे हैं। जिससे अभी तक सैकड़ों लोग हिंसक जानवरों का शिकार बनते जा रहे हैं। इन सबके पीछे की वजह पारिस्थिकीय असंतुलन रहा है। इसी तरह मैदानी क्षेत्रों की लगभग 42 प्रतिशत खेती संकट के साये में है। उद्योगों की स्थापना के नाम पर कृषि योग्य जमीन सरकार व कंपनियों की मिलीभगत से छीनी जा रही है। हिमालय के हिस्से इन कल-कारखानों का प्रदूषित धुंआ आ रहा है तो कंपनियां जमकर मुनाफा कमा रही हैं और यहां के युवक उस मुनाफाखोरी की चौकीदारी करने को विवश हैं।
पहले वनों को आग के हवाले झोंका जा रहा है फिर वनीकरण का खेल खेला जा रहा है। पानी का संग्रहण करने वाली बांज व बांस जैसी प्रजातियों के संरक्षण के बजाय यूकेलिप्टिस जैसी पानी सोखने वाली प्रजाति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे एक ओर पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जिससे मानव आबादी के समक्ष पानी का संकट पैदा हुआ है तो वहीं पानी के अभाव में खेत भी बंजर हो रहे हैं। कहने को तो उत्तराखंड में पानी की प्रचुर मात्रा है फिर भी यहां की बड़ी आबादी पानी को तरस रही है। पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे यहां के नौले, सिमार, चाल-खाल, पोखर, तालाब के संबर्धन के बजाय ऐसी योजनाएं अमल में लायी जा रही हैं जो जल से उसका धरातलीय नियंत्रण छीन रहा है। इन्हीं सब चिन्ताओं को लेकर पिछले दिनों राज्य भर में नदी बचाओ अभियान चलाया गया था और वर्ष 2008 को नदी वर्ष भी घोषित किया था। जंगली वनस्पतियों व भूक्षरण को रोकने में मददगार प्रजातियों के नष्ट होने से पहाड़ दरक रहे हैं जिसके कई कुप्रभाव सामने आ रहे हैं। आम आदमी के जल, जंगल, जमीन से हक छीने जाने से आम आदमी की इससे दूरी बढ़ती जा रही है। इस दूरी का फायदा वनों में अवैध कटान के जरिए वन माफिया उठा रहे हैं। वहीं यूकेलिप्टस व चीड़ जैसी प्रजातियाँ पानी के स्रोतों को सूखा रही हैं। छोटे कस्बों, शहरों का तमाम कचरा नदियों में समा रहा है जिससे पाप नाशिनी नदियां रोग पैदा करने वाली हो गई हैं। भूस्खलनों से प्राकृतिक संपदा नष्ट हो रही है, गांव व खेत उजड़ रहे हैं। हर साल कई परिवार बेघरवार हो रहे हैं। उनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट है तो सिर छुपाने की चिंता भी। भू-स्खलन के मलवे से नदी-नाले पट रहे हैं जिसके चलते बरसात में पानी की निकासी के अभाव में जलभराव की बड़ी समस्या सामने आ रही है।
उत्तराखंड से बहने वाली 14 नदियों में 220 से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं। जिनसे निकलने वाला लाखों टन मलवा इनमें समा रहा है, अब ये पवित्र नदियां मैला ढोने को विवश हैं। यहां के गाड़, गधेरे, नदियां कंपनियों के पास गिरवी रखने की बड़ी साजिश चल रही है। लेकिन पर्यावरणीय नुकसान के आंकलन, जनता के पुनर्वास व भूमि के मुआवजों संबधी मुद्दों पर सरकार खामोसी ओढ़े है। इन परियोजनाओं के बनने से यहां का इको-सिस्टम बदल रहा है। विद्युत उत्पादन का लाभ यहां की जनता को नहीं के बराबर ही मिल रहा है, सैकड़ों गांव आज भी विद्युतीकरण से अछुते हैं तो वहीं घंटों विद्युत कटौती की मार झेलने को जनता विवश है। इन परियोजनाओं के नाम पर कई गांवों की जनता को उजाड़ा जा चुका है। विकास की कीमत आम आदमी पर्यावरणीय नुकसान के नाम पर तो भुगत ही रहा है तो वहीं इसने यहां के सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया है। एक ओर तमाम विरोधों के बावजूद राज्य में शराब की दुकाने खोली जा रही हैं तो वहीं राशन का कोटा कम किया जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता महेश पांडे कहते हैं कि, ''अगर हिमालय के पर्यावरण को बचाना है तो पहले यहां उपलब्ध पुराने ज्ञान का अध्ययन होना चाहिए, उसे नई शिक्षा में शामिल करना चाहिए। इसके साथ ही नागरिक समझ को भी बेहतर करने की जरूरत है। भौतिकवाद, उपभोक्तावाद ने भी यहां के पर्यावरण व सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित किया है। यहां पर बनने वाली योजनाओं को अमली जामा पहनाने से पहले पारिस्थिकीय स्थितियों का अध्ययन जरूरी है।'' अगर समय रहते हिमालय के पर्यावरण को बचाने की सार्थक पहल नहीं हुई तो भविष्य में और भी भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं। इसलिए हिमालय को बचाना है तो फिर इसको समझना ही होगा।
(चरखा फीचर्स)