पहले इसको विशेष खास ड्रम के भीतर कम आक्सीजन की स्थिति में जलाया जाता है। तारकोल जैसे रूप में परिवर्तित होने पर इसमें लगभग 10 प्रतिशत गोबर का घोल बनाकर आटे की तरह गूंथा जाता है। इस मिश्रण को मोल्डिंग मशीन में डालकर कोयला बनाया जाता है। खास तरह के चूल्हे में 600 ग्राम पिरूल कोयला डेढ़ घंटे तक उपयोग में लाया जा सकता है। धुंआ रहित यह ईंधन स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं डालता है। इसके कारण जलावन के लिए लकड़ियों की कम कटाई से पर्यावरण भी संतुलित रहता है।
प्रकृति में जिसे हम फायदे का सौदा समझते हैं कभी-कभी वही हमारी बर्बादी का कारण बन जाता है। और जिसे बेकार समझने की भूल कर बैठते हैं वह जीवन के अस्तिव की महत्वपूर्ण कड़ी साबित होता है। हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ ऐसी ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। उत्तराखंड में चीड़ वनों की बहुतायत है और इनका क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है। गर्मियों में चीड़ की पत्तियां, जिसे स्थानीय भाषा में पिरूल कहते हैं, वनों की आग का मुख्य कारण रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष सैकड़ों हेक्टेयर वन क्षेत्र पिरूल के कारण जल जाता है। जमीन के नमी सोखने के कारण चीड़ के इर्द-गिर्द दूसरे पेड़-पौधे नहीं उग पाते हैं और इसे पहाड़ों में पेयजल संकट के लिए भी जिम्मेदार माना जाता है।
लेकिन यही पिरूल अब कोयले के रूप में ग्रामीणों की आजीविका का भरोसमंद साथी बन गया है। वन सम्पदा के संरक्षण व क्षेत्र की ईधन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड सरकार द्वारा ग्राम्या परियोजना चलाई जा रही है जो कुमाऊं क्षेत्र के नैनीताल, पिथौरागढ़, चंपावत व बागेर जनपद के विभिन्न विकासखंडों में हिमालय अध्ययन केन्द्र द्वारा संचालित की जा रही है। इसमें चीड़ की पत्तियों (पिरूल) से कोयला यानी पाइन ब्रिकेट बनवाने की प्रक्रिया शुरू की गई है। यह ईधन की जरूरत पूरी करने के साथ ही वनाग्नि का खतरा कम करने में सहायक सिद्ध हो रही है। ग्राम्या के मुख्य परियोजना निदेशक एम एच खान इसे ग्राम समुदाय के लिए वरदान बताते हैं जिससे दीर्घकाल तक लाभ कमाया जा सकता है।
पिरूल से कोयले के निर्माण की विधि भी आसान है। पहले इसको विशेष खास ड्रम के भीतर कम आक्सीजन की स्थिति में जलाया जाता है। तारकोल जैसे रूप में परिवर्तित होने पर इसमें लगभग 10 प्रतिशत गोबर का घोल बनाकर आटे की तरह गूंथा जाता है। इस मिश्रण को मोल्डिंग मशीन में डालकर कोयला बनाया जाता है। खास तरह के चूल्हे में 600 ग्राम पिरूल कोयला डेढ़ घंटे तक उपयोग में लाया जा सकता है। धुंआ रहित यह ईंधन स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं डालता है। इसके कारण जलावन के लिए लकड़ियों की कम कटाई से पर्यावरण भी संतुलित रहता है। राज्य के दो दर्जन से अधिक स्वयं सहायता समूह इस काम में लगे हैं।
जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट विकास खंड में 32 मशीनें व 100 चूल्हे लोगों को प्रदान किए जा चुके हैं जिससे करीब 800 परिवार लाभान्वित हो रहे हैं। राज्य के 11 जनपदों के 18 विकासखंडों के 76 चयनित सूक्ष्म जलागम क्षेत्रों के बीच यह परियोजना सफलतापूर्वक चल रही है। पिरूल से बने कोयले का उपयोग घरों-होटलों में खाना पकाने व कपड़ों में प्रेस करने में किया जा रहा है। चीड़ का वनस्पतिक नाम ‘पाइनेवस्ट रौक्स बरगाई’ है तो पीरूल को ‘पाइन नीडल’ कहा जाता है। पिरूल के कारण अन्य वनस्पत्तियां जैसे घास, झाड़ियां अथवा अन्य वृक्ष प्रजातियां नहीं उग पाती हैं क्योंकि इसकी मोटी सतह के नीचे प्रकाश नहीं पहुच पाता है। प्राकृतिक अवस्था में पिरूल अन्य पत्तियों की अपेक्षा सड़ने में अधिक समय लेता है, इसके परिणाम स्वरूप कम पोशक तत्व मिट्टी में पहुंचते हैं।
कुछ अध्ययनों में सिद्ध हुआ है कि पिरूल में कुछ ‘फाइटोटाक्सिन्स’ नामक हानिकारक रसायन होते हैं जो सड़ने की प्रक्रिया के समय नमी के माध्यम से मिट्टी तक पहुंच जाते हैं। पिरूल की फिसलन भरी सतह स्थानीय लोगों तथा घरेलू मवेशियों के लिए कई बार जानलेवा सिद्ध होती है वहीं सूखा पिरूल ज्वलनशील होने के वनाग्नि का कारण बनता है। अब तक बेकार माने जाने वाला प्राकृतिक अपशिष्ट और जंगल का विनाशक पिरूल अब पर्यावरण के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है।