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शुक्रवार, 16-29 फरवरी 2016
सिमोन के गाँव समेत आस-पास के कई गाँवों के एक हजार एकड़ जमीनों पर जहाँ पानी के अभाव में साल में धान की एक खेती भी ठीक से नहीं हो पाती। अब धान के अलावा गेहूँ, सब्जियाँ, सरसों, मक्का इत्यादि की कई-कई फसलें होने लगी थीं। कुछ ही सालों में न केवल देसावाली, गायघाट, अम्बा झरिया नाम से तीन बाँध बनाए गए, बल्कि कई छोटे तालाब और दर्जनों कुएँ खोद डाले गए। सब-के-सब गाँव वालों के ही जमीन और पैसों से। बाद में रस्म अदायगी के तौर पर कुछ सरकारी मदद भी मिली। सिमोन उरांव का सपना साकार होने में उनके दृढ़ निश्चय और कठोर लगन के साथ-साथ गाँव-समाज के लोगों की सपरिवार पूरी भागीदारी रही।
अन्न है तो जन है, पानी है तो धन है’। ये किसी सरकारी प्रचार का नारा या किसी नेता का जुमला नहीं है। बल्कि 83 साल के उस आदिवासी किसान सिमोन उरांव की जिन्दगी का सच है। जिसे उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी लगाकर हासिल किया है। आज भी वे चुस्त-दुरुस्त और जिन्दादिल अन्दाज में कभी ग्रामीणों का जड़ी-बुटियों से इलाज करते हुए तो कभी खेतों में काम करते हुए या गाँव-समाज की बैठकों में लोगों की समस्याओं का निराकरण करते हुए देखे जा सकते हैं।उन्होंने अपने मजबूत इरादों और अकल्पनीय परिश्रम पराक्रम के बूते पहाड़ पर पानी पहुँचाकर सैकड़ों एकड़ बंजर भूमि को सचमुच में फसलों की हरियाली से भर दिया है। हर साल बरसात में पहाड़ से गिरकर व्यर्थ बह जाने वाले पानी को न सिर्फ बड़े जलाशयों में इकट्ठा किया, बल्कि अपने दिमागी कौशल से छोटी-छोटी नहरें बनाकर सैकड़ों फीट ऊपर पानी पहुँचाकर दर्जनों गाँव के किसानों को सालों खेती-किसानी का साधन उपलब्ध कराया।
सब कुछ अपने बूते और अन्य किसानों के सहयोग से वह कर दिखाया। जो सरकार और उसकी मशीनरियाँ करोड़ों खर्च करने के बाद भी नहीं कर सकीं। इतना ही नहीं सारा काम प्रकृति और पर्यावरण को बिना क्षति पहुँचाए करके यह साबित किया कि आदिवासी समाज का प्रकृति से सहजीवन का रिश्ता है, न कि टकराव का।
प्रचार से दूर रहकर अपने संकल्प को जमीन पर उतारने वाले सिमोन उरांव को सारा इलाका प्यार से बाबा कहता है। वे उरांव आदिवासियों के सामाजिक संगठन बारह पड़हा के राजा भी हैं। इसी साल भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री का सम्मान दिया है।
झारखण्ड की राजधानी राँची से 30 किमी. दूर बेडो प्रखण्ड के खक्सी टोला के आदिवासी पाहन (पुजारी) और पड़हा राजा बेरा उरांव के घर 15 मई 1932 को जन्में सिमोन उरांव 10 साल की उम्र से ही खेती किसानी में अपने पिता के साथ लग गए थे।
पूरा इलाका पहाड़ी और जमीन पथरीली और काफी ऊँची-नीची बनावट की होने के कारण खेती लायक जमीन कम थी और ऊपर से बेहद गरीबी। काफी मेहनत कर आदिवासी किसान मुश्किल से एक फसल उगा पाते थे। बाकि समयों में गुजारे के लिये उन्हें दूसरी जगह मजदूरी करना पड़ता था। जिनमें से कई चाय बगान चले जाते थे।
सिमोन के पिता भले ही क्षेत्र के उरांव के पड़हा राजा थे लेकिन वह भी फकीर और सबकी तरह ही गरीब थे। सिमोन की खेती से गहरा लगाव रहने के कारण पढ़ाई की ओर कम ध्यान गया। अपनी और अन्य किसानों की दुरावस्था दूर करने के लिये उनके मन में एक ऐसे विचार ने जन्म लिया। जिससे न सिर्फ उनका बल्कि पूरे इलाके की तस्वीर बदल गई। वह था बरसात के दिनों में यूँ ही बहकर निकल जाने वाले पानी को बाँध बनाकर इकट्ठा करने और उसे छोटी-छोटी नहरों के जरिए खेतों तक पहुँचाने का। जिसे उन्होंने समझा कि पानी भी रास्ता माँगता है।
इस परिकल्पना को जमीन पर उतारने के लिये स्वयं ही पूरे इलाके में घूम-घूमकर गहन निरीक्षण-अध्ययन कर रूपरेखा तैयार की और गाँव समाज के लोगों को इकट्ठा कर योजना बताई। कई ने इसे मन का सनक कहकर खारिज कर दिया तो, कइयों ने असम्भव मानकर हाथ खड़े कर सरकार से गुहार लगाने की सलाह दी।
सिमोन ने समझाया कि जरूरत हमारी है तो हमें ही लगना होगा। इस भगीरथ प्रयास के लिये जमीन देने और बाँध बनाने के काम में साथ-देने के प्रस्ताव पर सबकी सहमती नहीं मिलने के बावजूद कुछ लोगों को इसके लिये राजी कर लिये। 1961 के आसपास यह अभियान शुरू किया तो लोगों ने मजाक उड़ाया। लेकिन काम में दिन-रात लगा देख सहयोग देने लगे। देखते-ही-देखते बाँध निर्माण शुरू हो गया।
इस दौरान पास की पहाड़ी से मिट्टी काटने पर वन विभाग ने केस कर दिया तो उन्हें जेल जाना पड़ा। इसके खिलाफ पूरे इलाके के आदिवासी किसान आक्रोशित होकर प्रशासन से लड़ने-भिड़ने पर उतारु हुए तो सिमोन ने ही उन्हें समझाकर शान्त किया। जेल से छुटते ही काम पुनः शुरू कर दिया। बाँध तैयार कर अन्दर-ही-अन्दर पानी निकालकर उन्हें पाँच हजार फीट छोटी-छोटी नहरों से बंजर और ऊपर पहाड़ की जमीनों तक पहुँचाने की जुगत देखकर अच्छे-अच्छे इंजीनियरों ने भी दाँतों तले उँगली दबा ली।
सिमोन के गाँव समेत आस-पास के कई गाँवों के एक हजार एकड़ जमीनों पर जहाँ पानी के अभाव में साल में धान की एक खेती भी ठीक से नहीं हो पाती। अब धान के अलावा गेहूँ, सब्जियाँ, सरसों, मक्का इत्यादि की कई-कई फसलें होने लगी थीं।
कुछ ही सालों में न केवल देसावाली, गायघाट, अम्बा झरिया नाम से तीन बाँध बनाए गए, बल्कि कई छोटे तालाब और दर्जनों कुएँ खोद डाले गए। सब-के-सब गाँव वालों के ही जमीन और पैसों से। बाद में रस्म अदायगी के तौर पर कुछ सरकारी मदद भी मिली। सिमोन उरांव का सपना साकार होने में उनके दृढ़ निश्चय और कठोर लगन के साथ-साथ गाँव-समाज के लोगों की सपरिवार पूरी भागीदारी रही। जिनके देखभाल में सिमोन भी पीछे नहीं रहते, वो चाहे प्राकृतिक जड़ी-बुटियों से उनकी बिमारियों का इलाज करने का मामला हो अथवा आपसी विवाद के निपटारों का। इन्हीं कारणों से दूर-दूर से लोगों के मिलने और सलाह लेने का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। इन्होंने झारखण्ड अलग राज्य के आन्दोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी निभाई।
एक शायर ने लिखा है कि - उम्र बीत जाती दिल को दिल बनाने में... सिमोन बाबा की भी पूरी उम्र लग गई अपने इलाके की बंजर धरती को सींचकर हरा-भरा बनाने में। जिससे इस क्षेत्र की किसानों की जीवन-दशा तो बदली ही, यह भी प्रेरणा मिली की। यदि मनुष्य प्रकृति का शासक बनने के बजाय उससे सहयोग का नजरिया रखे। तो उसकी बड़ी मुश्किल भी हल हो सकती है।
आदिवासी समाज की खासियत है कि वह प्रकृति के साथ मिलकर जीता है। वैसे आज भी आदिवासी क्षेत्रों की विकास के नाम पर करोड़ों-करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। लेकिन जमीन पर विकास नदारद है। सिमोन उरांव और उनके गाँव वालों ने जो किया हमारे लोकतंत्र की ये मूल भावना को स्थापित करता है।
कोई भी विकास तभी कारगर और सम्भव होगा जब उसमें जनता की सीधी-भागीदारी होगी। सिमोन के उनके अतुलनीय कार्य के लिये अब तक कई बार सामाजिक और सरकारी स्तर पर सम्मानित किया गया है। लेकिन हर मंच से वे इसका श्रेय अपने गाँव-समाज के लोगों को देते हुए, इससे सीखने की अपील करते हैं।
इस बार भी जब केन्द्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री अवार्ड देने की घोषणा की तो उन्होंने यही कहा कि इसके लिये पहले अपने पड़हा और गाँव-समाज के लोगों से इजाजत लेंगे। इन दिनों आये दिन मंत्री, नेता, अफसर उन्हें बधाई देने पहुँच रहे हैं तो सबसे वे किसानों के सवालों को हल करने की बात कह रहे हैं।
कागजी है सारा विकास
सिमोन उरांव से अनिल अंशुमन की बातचीत पर आधारित साक्षात्कार।
पानी एकत्र करने का विचार कैसे आया?
पन्द्रह साल की उम्र से ही हम देख रहे थे कि हमारे गाँव समेत आस-पास के इलाके में कहीं-कोई कुआँ या तालाब नहीं था। पीने का पानी भी पहाड़ी झरना, डाड़ी या चुंवा (नीचे के खेतों में एकत्र पानी) से लाते थे। उसी से जिन्दगी बीत रही थी। किसान के पास खाने के लिये कुछ नहीं रहता था। क्योंकि जमीन बहुत बंजर थी और खेती ठीक ढंग से नहीं हो पाती थी।
सबसे बड़ा संकट पानी का था। हर साल बरसात में पहाड़ से गिरने वाला पानी खेतों की मेड़ों और फसलों को तहस-नहस करते निकल जाता था। तब ध्यान हुआ कि ये पानी रास्ता माँग रहा है। यदि इसे रास्ता देकर इकट्ठा किया जाय और उसे छोटी नहरों के जरिए ऊपर की जमीनों तक पहुँचाया जाय तो खेती के लिये जल के संकट से उबरा जा सकता है।
गाँव समाज को कैसे तैयार किया?
पड़हा उरांव आदिवासियों की सबसे बड़ी सामुदायिक सामाजिक संस्था है। बीते कई सालों से बारह पड़हा का प्रधान होने की हैसियत से सबों की बड़ी बैठक बुलाकर इस सम्बन्ध में बात रखी। लेकिन उन्हें मेरी योजना असम्भव लगी और उन्होंने इसके लिये सरकार के पास जाने की सलाह दी। मैंने कहा कि इतने दिनों से हम किसानोें के लिये सरकार क्या चिन्ता कर रही है! फिर तब मैंने सिर्फ अपने गाँव के लोगों को बैठाया और काम के लिये तैयार किया। सबसे पहले बाँध के लिये अपनी जमीन देने का प्रस्ताव रखा तो कई अन्य लोग भी जमीन देने के लिये तैयार हो गए।
सरकार और उसके सम्बन्धित विभागों का क्या रुख रहा?
हमारी समस्याओं का ध्यान रहता तो हमें क्यों लगना पड़ता। सच यही है कि अब तक किसी सरकार ने किसानों के लिये कुछ नहीं किया है। किसान से दस रुपए किलो धान लिया जाता है और 150-400 रुपए तक में बीज दिया जाता है। सरकार चाहती तो यहीं ऐसी व्यवस्था करती कि किसानों को खाद-बीज यहीं तैयार कर दिया जा सकता था। इन्हें केवल किसानों से मालगुजारी वसूलना आता है।
सरकार तो विकास का दावा करती है!
इनका सारा विकास केवल मुँह में है जमीन पर नहीं। कागज पर ही योजनाएँ बनती हैं। और पैसों का बंदरबाँट हो जाता है। हमारे बाँध बनाने की योजना इनके इंजीनियरों के समझ में ही नहीं आई और हमने बाँध बनाकर पहाड़ पर पानी पहुँचा भी दिया।
सरकार ने आपको पद्मश्री अवार्ड दिया है!
मालूम तो हुआ है लेकिन लेने के लिये पहले अपने गाँव वालों से पूछना होगा। किसान इतने संकट में हैं और सम्मान लें। अजीब लग रहा है। वैसे सरकार के लोग आये थे तो मैंने सारे सुझाव और सवाल उनके सामने रख दिया है। अब आगे उन्हें सोचना और करना है।