गाँधीजी के पूरे लेखन में कहीं भी पर्यावरण शब्द का इस्तेमाल नहीं है। ये कितनी दिलचस्प बात है कि स्वच्छता से लेकर ‘दाओस समिट’ तक जिस महात्मा गाँधी का जिक्र होता है वह प्रकृति, ग्राम्य-जीवन, कृषि जैसी बातें तो करते हैं लेकिन पर्यावरण शब्द उनके यहाँ नहीं है। दरअसल पर्यावरण की जो नई चिन्ता है वही अपने आप में विरोधाभाषी है। गाँधी चरखा से लेकर स्वराज तक और जीवन से लेकर प्रकृति तक एक ही बात कहते हैं, वे हमें सीखाते हैं विकास और उन्नति का लालच प्रकृति के साथ हमें भी बर्बाद कर देगा। संयमित और अहिंसक जीवन का नैतिक तकाजा ही आज पर्यावरण से जुड़े तमाम सवालों का जवाब है।
अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब में आ. अनुपम मिश्र इसी तकाजे को सामने रखते हैं किताब के प्रारम्भ में ही उन्होंने लिखा है-
“सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हजार बनती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया।”
अब हमें सोचना यह है कि भारत में जो एक पारम्परिक जीवन रहा है कृषि और पशुपालन से जुड़ा जो जीवन संस्कार रहा है। हम उसे विकास के नए तराजू पर कैसे तौलेंगे। कुआँ और तालाब बनाकर जीवन में पूण्य कमाने वाली सोच आज कहीं नहीं दिखती...
(बिहार के दरभंगा में चमैनियाँ पोखर के नाम से मशहूर तालाब आज भी अपने वजूद को बचाए रखने का संघर्ष कर रहा है। यह तालाब सन 1702 से 1704 के अकाल के बीच बनाया गया।)
इसके बदले टावर, अपार्टमेंट, एक्सप्रेस हाईवे जैसी चीजों को हमने विकास का प्रतीक बना दिया है। प्रकृति के साथ जिस तरह का बड़-बड़ सलूक बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर मौजूदा दौड़ तक जारी है उसमें हम अपनी सम्पूर्ण तबाही और बर्बादी से आज महज कुछ कदम की दूरी पर खड़े हैं।
आप में से कोई सवाल पूछ सकता है कि आखिर किया क्या जाय? क्या हमें विकास से तौबा कर लेना चाहिए क्या यह सम्भव है कि हम इतिहास में हजार पाँच सौ साल पीछे लौट आएँ। घड़ी की सूई टिक-टिक करते हुए आगे ही बढ़ती है उसे पीछे की तरफ कोई कैसे घुमा सकता है। सही बात है। हम न तो कदम पीछे खींच सकते हैं और न ही भविष्य की चिन्ता छोड़ कहीं अतीत की गोद में जाकर बैठ सकते हैं। पर इसका यह भी कतई मतलब नहीं कि आगे बढ़ने के नाम पर हम कोई पूराना सबक याद ही न रखें।..........(जीवन की कला हमारे समाज ने हजारों वर्षों चिन्तन से सीखा था। पहले हिन्दू धर्म में बहुत सारी कमियाँ थीं। उसे हमारे महात्माओं ने आस्था से जोड़कर सभी आयामों में कारगर परम्पराएँ विकसित कीं।)
स्कूल की पढ़ाई कॉलेज और विश्वविद्यालय में नहीं काम आती है ऐसा नहीं है। बल्कि पढ़ाई की नींव तो स्कूल में ही पड़ती है। वहीं हम अक्षर सीखते हैं, भाषा सीखते हैं, लिखने-पढ़ने की शुरुआत भी वहीं से होती है। बात प्रकृति और पर्यावरण की करें तो हमें जीवन और संस्कार की उस स्कूली पढ़ाई की तरफ लौटना होगा। जिसके सबक हमारे पुरखों ने कई-कई पीढ़ियों तक याद रखा है यह स्कूल है- भाषा का भी पर्यावरण से नाता है।
जीवन और प्रकृति के मेल का। यह स्कूल है-जल-मिट्टी और हरियाली के साथ परस्पर प्रेम का। मैं एक गाँधीवादी कार्यकर्ता हूँ इसलिये मेरे लिये यह स्कूल बापू का भी स्कूल है। गाँधी जिस बुनियादी तालीम की बात करते हैं वे जिस तरह सर्वोदय की बात करते हैं उसमें कहीं भी कोई केन्द्रीकृत व्यवस्था नहीं है। विकेन्द्रीकरण और ट्रस्टीशीप के बिना गाँधीवादी मूल्य को नहीं समझा जा सकता। यह मूल्य प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी चिन्ता को लेकर भी जरूरी है।
आप जब तक केन्द्रीयकृत योजनाओं के साथ चलेंगे। आप जब तक थोक विकास की बात करते रहेंगे तब तक कम-से-कम हमारी पर्यावरण की चिन्ता तो कम नहीं होने वाली। जिस देश में यह कहावत न जाने कब से चली आ रही है-
“कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी।” वहाँ सरपट विकास का सपना देखना मूर्खता ही होगी।
आ. अनुपम मिश्र जिस ईकाई-दहाई-सैकड़ा हजार वाले जीवन मूल्य की बात करते हैं उसमें यही सबक तो है कि स्थान और परिस्थिति के हिसाब से हमारा प्रकृति के साथ सम्बन्ध हो।.....
राजस्थान में जिस तरह से बावड़ियाँ और तालाब बनाए जाते हैं सम्भव है वह शैली छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, या झारखण्ड में न काम आये। इसी तरह केरल और तमिलनाडु के तटीय इलाकों का पारम्परिक जीवन उत्तराखण्ड और हिमाचल से पूरी तरह भिन्न है। भारत में हम जिस विविधता में एकता की बात करते हैं वह यहाँ की प्रकृति में भी दिखलाई पड़ती है यह तो ऐसा देश है जहाँ हजार पाँच सौ किलोमीटर की यात्रा आप कभी भी कर लें तो एक मौसम से दूसरे मौसम में पहुँच जाएँगे। ऐसे में एक तरह की सड़कें, भवन निर्माण की एक तरह का तरीका, खेती और पशुपालन की कोई एक जैसी व्यवस्था सही है क्या?
इसी तरह पानी का समुचित इस्तेमाल उसका संरक्षण, मिट्टी के साथ पेड़-पौधों और जंगलों की सुरक्षा को लेकर पूरे देश में अलग-अलग तरह की पद्धतियाँ रही है। अलग-अलग तरह की परम्पराएँ रही है। ये परम्पराएँ पिछले पचास-सौ सालों में भले ही तहस-नहस हो गई हों पर इनके बीज आज भी हमारे बीच है। आज समय है इन बीजों को फिर से अंकुरण का।...................(राजस्थान के जयपुर जिले के दूदू तहसील के लापोडिया ग्राम में आज भी अपने परम्परागत जल संरक्षण के वजूद को बचाए रखा है श्री लक्ष्मण सिंह जी ने।)
जीवन की प्रकृति और प्रकृति का जीवन दोनों ही तभी साथ-साथ चल सकते हैं जब इनके बीच एक सहज सम्बन्ध हों। इस सहजता की समझ देश के लोगों में लम्बे समय तक रही है। इस समझ के स्कूल ने ही भारत को ऋषि और कृषि का देश बनाया।
हमें अन्य किसी तरह की बातों में आने के बजाय उन भारतीय जीवन संस्कारों को पुष्ट करना होगा जिसमें मिट्टी, गोबर, पत्थर, पानी, पेड़-पौधे सभी पूज्यनीय रहे हैं।
प्रकृति को पूजने वाला देश अगर उससे बैर करने लगे तो वही नुकसान होगा जो आज हम अपने चारों तरफ देख रहे हैं आखिर में गाँधी की इस टेक को मैं दोहराना चाहूँगा- जिसकी चर्चा अनुपम मिश्र भी बार-बार करते रहे हैं। वह यह कि परिवर्तन की प्रक्रिया सुधार की शुरुआत स्वयं से होनी चाहिए। अगर इस प्रक्रिया की इकाई बनने को तैयार हैं तो फिर इससे आगे दहाई, सैकड़ा और हजार का भारतीय पारम्परिक मूल्य फिर से जीवन्त हो सकता है।