भारत में भूजल का दोहन लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों सहित अनेक लोगों को लगता है कि यह दोहन लक्ष्मण रेखा लाँघ रहा है। ग़ौरतलब है कि पूरे विश्व में भूजल दोहन के मामले में हम पहली पायदान पर हैं। भारत का सालाना भूजल दोहन लगभग 230 घन किलोमीटर है। यह दोहन पूरी दुनिया के सालाना भूजल दोहन के 25 प्रतिशत से भी अधिक है।
भारत की लगभग 60 प्रतिशत खेती और लगभग 80 प्रतिशत पेयजल योजनाएँ भूजल पर निर्भर हैं। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में हर साल प्रकृति जितना पानी भूगर्भ में रीचार्ज करती है, उससे अधिक पानी बाहर निकाला जाता है। गुजरात, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पाण्डुचेरी और दमन में भूजल का सालाना दोहन, प्राकृतिक रीचार्ज के 70 प्रतिशत से अधिक है। देश के बाकी राज्यों में भूजल दोहन 70 प्रतिशत से कम है।
भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत केन्द्रीय भूजल परिषद के अनुसार देश का सालाना भूजल रीचार्ज 433 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर है। केन्द्रीय भूजल परिषद के अनुसार हर साल अधिकतम 398 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर का उपयोग किया जा सकता है। भारत सरकार के जल संसाधन मन्त्रालय के सन् 2011 के आँकड़ों के अनुसार देश में भूजल का औसत दोहन लगभग 62 प्रतिशत है।
अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन का सम्भावित खतरा हालातों को और खराब करेगा। ऐसी स्थिति में जानना उपयुक्त होगा कि भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा क्या हो, उसके संकेतक क्या हों और यदि लक्ष्मण रेखा को लाँघना मजबूरी हो तो क्या करना चाहिए।
केन्द्रीय भूजल परिषद सालाना बरसात के माध्यम से होने वाले सालाना भूजल रीचार्ज की मात्रा का अनुमान लगाती है। इस अनुमान के आधार पर विकासखण्डों को अतिदोहित (दोहन की मात्रा 100 प्रतिशत से अधिक), क्रिटिकल (दोहन की मात्रा 90 प्रतिशत से 100 प्रतिशत के बीच), सेमी-क्रिटिकल (दोहन की मात्रा 70 प्रतिशत से 90 प्रतिशत के बीच) और सुरक्षित (दोहन की मात्रा 70 प्रतिशत से कम) की श्रेणी में वर्गीकृत करती है।
पिछले अनुमान के अनुसार फिलहाल देश में 245 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर भूजल का उपयोग हो रहा है। अर्थात देश में अभी भी 153 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर भूजल बचा है। दूसरे शब्दों में केन्द्रीय भूजल परिषद के अनुसार भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा पार करने के लिये 153 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर भूजल शेष है।
यह सर्वविदित है कि भूजल दोहन के बढ़ने के कारण वाटर टेबिल में गिरावट आ रही है। इस गिरावट के कारण कुएँ, नलकूप, तालाब और स्टापडेम असमय सूख रहे हैं। नदियों में प्रवाह घट रहा है तथा उनके सूखने की परिस्थितियों में इज़ाफा हो रहा है। तटीय इलाकों में खारे पानी का प्रवेश जलस्रोतों को अनुपयोगी बना रहा है।
पृथ्वी पर संचालित प्राकृतिक जलचक्र भूजल की लक्ष्मण रेखा को भी रेखांकित करता है। इसे समझने के लिये प्राकृतिक जलचक्र, उसकी भूमिका और विभिन्न घटकों के बीच मौजूद सन्तुलन को संक्षेप में जानना उचित होगा। यह सन्तुलन दर्शाता है कि पृथ्वी से जितना पानी भाप बनकर वायुमंडल में पहुँचता है उतना ही पानी बरसात के रूप में पृथ्वी पर लौटता है। वायुमण्डल में भाप के रूप में स्थायी रूप से पानी की जितनी मात्रा मौजूद होती है उतनी ही मात्रा नदियों तथा ज़मीन के नीचे प्रवाहित भूजल द्वारा समुद्र को लौटाई जाती है।धरती की गहराईयों में मौजूद विषैले तथा हानिकारक रसायन भूजल से मिलकर सेहत के लिये समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। हानिकारक रसायनों के कारण मिट्टी तथा कृषि उत्पादों में उनके अंश मिल रहे हैं जो अन्ततोगत्वा फुड-चेन में मिलकर बीमारियों का सबब बन रहे हैं। उपर्युक्त हकीक़त को समझते-बूझते केन्द्रीय भूजल परिषद द्वारा आकलन रिपोर्ट 2011 में कहा जा रहा है कि धरती की कोख में शेष बचा 153 बिलियन क्यूबिक सेन्टीमीटर भूजल उपयोग योग्य है।
दुर्भाग्यवश यदि उस मात्रा का भी उपयोग कर लिया जाता है तो नदियों सहित कुओं, नलकूपों, तालाबों और स्टापडेमों का असमय सूखना, उपलब्धता का घटना और गुणवत्ता का बिगड़ना बहुत अधिक गम्भीर होगा। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि केन्द्रीय भूजल परिषद द्वारा बताई भूजल भण्डारों की मात्रा सम्बन्धी अनुमान गणितीय नज़रिए से भले ही सही हो पर उसके उपयोग की प्रस्तावित सीमा (398 बिलियन क्यूबिक सेंटीमीटर) को सुरक्षित लक्ष्मण रेखा मानना अनुचित ही होगा। अब कुछ चर्चा प्राकृतिक व्यवस्था की।
पृथ्वी पर संचालित प्राकृतिक जलचक्र भूजल की लक्ष्मण रेखा को भी रेखांकित करता है। इसे समझने के लिये प्राकृतिक जलचक्र, उसकी भूमिका और विभिन्न घटकों के बीच मौजूद सन्तुलन को संक्षेप में जानना उचित होगा। यह सन्तुलन दर्शाता है कि पृथ्वी से जितना पानी भाप बनकर वायुमंडल में पहुँचता है उतना ही पानी बरसात के रूप में पृथ्वी पर लौटता है। वायुमण्डल में भाप के रूप में स्थायी रूप से पानी की जितनी मात्रा मौजूद होती है उतनी ही मात्रा नदियों तथा ज़मीन के नीचे प्रवाहित भूजल द्वारा समुद्र को लौटाई जाती है।
अप्लाइड हाईड्रोलॉजी - मूल लेखक डी. के. टाड (मेकमिलन, संस्करण 1988, पेज 3) में प्राकृतिक जलचक्र के विभिन्न घटकों के वितरण और सम्भावित मात्राओं को आसानी से समझे जाने वाले उदाहरण की मदद से समझाया है। उदाहरण कहता है कि मान लो महाद्वीपों पर 100 इकाई पानी बरसता है।
इस मात्रा को आधार मानकर कहा जा सकता है कि हर साल समुद्रों से 424 इकाई और धरती से 61 इकाई पानी भाप बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है। वायुमण्डल से बरसात तथा बर्फ के रूप में समुद्रों पर 385 तथा धरती पर 100 इकाई पानी बरसता है। नदियों के द्वारा 38 इकाई पानी तथा भूजल द्वारा एक इकाई पानी समुद्र को वापस होता है। वायुमण्डल में मेघों के रूप में स्थायी रूप से 39 इकाई पानी बना रहता है। यह मात्रा नदियों (38) तथा भूजल (1) द्वारा समुद्र को लौटाई मात्रा के बराबर है।
महाद्वीपों पर होने वाली सालाना वर्षा, वाष्पीकरण, नदियों तथा भूजल द्वारा समुद्र को लौटाए पानी के आँकड़ों की विवेचना करने से पता चलता है कि उनके बीच अद्भुत सन्तुलन है। महाद्वीपों पर जितना पानी बरसता (100 इकाई) है उतना ही पानी वाष्पीकरण (61 इकाई), नदियों (38 इकाई) तथा भूजल (38 इकाई) द्वारा समुद्र को लौटाया जाता है। इन मात्राओं के सह-सम्बन्ध के सन्तुलित रहने तक प्राकृतिक जलचक्र सन्तुलित रहता है।
उल्लेखनीय है कि बाँध परियोजनाओं द्वारा जलाशय में पानी जमा करने के कारण समुद्र को पहुँचाई जाने वाली मात्रा घटती है। उसी प्रकार भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण समुद्र में कम मात्रा में भूजल पहुँचता है। दूसरी ओर धरती पर सिंचाई सुविधा के बढ़ने के कारण वाष्पीकरण की सालाना मात्रा में इज़ाफा होता है। परिणामस्वरूप वायुमण्डल में वाष्प का स्थायी भण्डार बढ़ता है और समुद्र को लौटाया जाने वाला पानी कम होता है। दोनों कमियाँ, संयुक्त रूप से प्राकृतिक जलचक्र में असन्तुलन पैदा करती है। गौरतलब है, जब तक धरती पर प्राकृतिक जलचक्र सन्तुलित था, मौजूदा विकृतियाँ नहीं थीं।
प्राकृतिक जलचक्र के विभिन्न घटकों के बीच सन्तुलन बिठा कर ही भूजल के दोहन को लक्ष्मण रेखा के अन्तर्गत लाया जा सकता है और भूजल परिदृश्य की विकृतिओं को न्यूनतम किया जा सकता है। इसके लिये आने वाले दिनों में विकास और प्राकृतिक जलचक्र के विभिन्न घटकों के बीच सन्तुलन बिठाना होगा। नदी जल प्रवाह बढ़ाने और भूजल रीचार्ज के लिये समानुपातिक प्रयास करना होगा।
नदियों की समाप्त होती भूमिका को बहाल करना होगा। उन्हें अविरलता और निर्मलता प्रदान करना होगा। समानुपातिक प्रयासों को अपनाकर वाटर टेबिल की गिरावट, कुओं, नलकूपों, तालाबों और स्टापडेमों का असमय सूखना कम किया जा सकता है। व्यवधानों को हटाकर नदियों के घटते प्रवाह, अविरलता और निर्मलता को बढ़ाया जा सकता है।
भूजल रीचार्ज बढ़ाकर तटीय इलाकों में खारे पानी के प्रवेश को नियन्त्रित किया जा सकता है। धरती की गहराईयों में मौजूद विषैले तथा हानिकारक रसायनों एवं जलवायु बदलाव का प्रभाव घटाया जा सकता है। यही भूजल दोहन का सुरक्षित रोडमैप है।
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