बांदा/ उत्तर प्रदेश/ जागरण पिछले चार सालों से सूखे ने पूरे बुंदेलखंड को तबाह कर रखा है। धरती फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। सच तो यह है कि विदेशी तकनीक और जल प्रबंधन प्रणाली अपनाने से सिंचाई और पेयजल के इंतजाम में गंभीर गड़बड़ियां हुई हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र आधुनिक तकनीक से अंधाधुंध इस्तेमाल का सर्वाधिक शिकार हुआ है। यहां लगाये गये राजकीय नलकूपों, हैंडपंपों आदि के कारण तेजी से भूगर्भ जल स्तर गिर रहा है। धरती फटने से तमाम तरह की शंकायें व्यक्त की जा रही हैं। अकेले बांदा जिले में तकरीबन 450 राजकीय नलकूपों से पचास से ज्यादा बेकार हो गये हैं। शेष में जल उत्सर्जन क्षमता 50 फीसदी से भी कम हो गई है। परिणाम स्वरूप संचालित नलकूप निर्धारित सिंचाई क्षमता का 22 फीसदी ही सिंचाई कर पा रहे हैं। शहर में पेयजल आपूर्ति के लिये बने जल संस्थान के 15 में से 8 नलकूप बेकार हो चुके हैं। बाकी नलकूपों की पेयजल आपूर्ति क्षमता घटकर आधी से कम रह गई है।
जिले के हजारों हैंडपंप भी भूगर्भ जल स्तर के नीचे गिरने से बेकार हो चुके हैं। वैसे तो अधिक भूगर्भ जल दोहन से बुंदेलखंड में पारंपरिक जल प्रबंधक प्रणाली मार्च, अप्रैल के बाद निष्फल हो जाती है, लेकिन बारिश न होने से इन दिनों भीषण शीतलहरी में शहरी व ग्रामीण अंचलों में यही हालात हैं। जानकार बताते हैं कि भूगर्भ जल स्तर गिरने की गति यही रही तो आने वाले पांच, सात सालों में आधुनिक तकनीक पर आधारित नलकूप और हैंडपंप अप्रैल माह के बाद 70, 80 फीसदी तक फेल हो सकते हैं। पिछले डेढ़ दशक के अंतराल में आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल का एक और बुरा प्रभाव बुंदेलखंड में जन्म ले रहा है।
वर्ष 83-84 के बाद निरंतर तापमान में वृद्धि हो रही है। वर्ष 83 के पहले तापमान 42-43 डिग्री सेल्सियस तक रहता था, लेकिन इधर तापमान साल दर साल बढ़ोत्तरी होते-होते 48 से 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने लगा है।
बांदा और चित्रकूट जिलों के 13 ब्लाकों में से 8 भूगर्भ जल सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार पहले ही 'डार्क श्रेणी' में पहुंच गये हैं। कारण कि विकास योजनाओं को बनाते समय पारंपरिक ज्ञान, व्यवस्था और तकनीक को अनदेखा करने की वजह से जल प्रबंधन में अनेक विकृतियां व प्रभाव उपजते हैं। बुंदेलखंड में लगभग सभी गांवों में तालाब मिलते हैं। इनका निर्माण समाज ने धर्म और मोक्ष की कामना से कराया था। गांव की गलियों में आज भी कुओं की असंख्य श्रृंखला है। इनमें 70 फीसदी ग्रामीण अपनी पानी की जरूरत पूरी करते हैं।
गांवों के लोगों का मानना है कि यदि आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल छोड़कर कुआं और तालाबों का निर्माण स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों, मिट्टी, ईट और पत्थर से कराया जाये तो न हैवी रिंग मशीनों की जरूरत पड़ेगी, न ही बीटेक, एमटेक इंजीनियरों की। बल्कि अंगूठा छाप देहाती मजदूर ही इनका निर्माण कर लेंगे। शतप्रतिशत धनराशि योजन और श्रम पर खर्च होगी। गरीबों को भी रोजी-रोटी मिलेगी। बस जरूरत है दस मीटर व्यास के कुआं बनाने और पुराने तालाबों के दस पंद्रह मीटर गहरा करने की।
इधर दूसरी ओर इस क्षेत्र में धरती फटने की घटनाओं में इजाफा हो रहा है। भूगर्भ जलवेत्ता या वैज्ञानिक इस संदर्भ में कोई सही कारण नहीं बता पा रहे हैं। वर्तमान में सिर्फ कारणों की तह में पहुंचने के लिये विचार मंथन ही शुरू है।