लेखक
13 जून, वर्ष 2008 को प्रो. जी डी अग्रवाल ने उत्तर काशी में शुरू किया लोहारी नागपाला परियोजना के खिलाफ पहला अनशन। 23 जून, 2008 को हरकी पौड़ी में स्वामी परिपूर्णानन्द और प्रेमदत्त नौटियाल का आमरण अनशन। फिर कई अनशन हुए। गंगा में रेत खनन व पत्थर चुगान के खिलाफ मातृसदन हरिद्वार के स्वामी निगमानन्द ने आमरण अनशन कर प्राण गंवाये। जहां-जहां परियोजनाएं गईं; लगभग सभी जगह विरोध हुआ। धारी देवी के डूब में आने का मामला हुआ संवेदनशील। समझदार लोग वे होते हैं, जो समय पूर्व भविष्य को देख लेते हैं और चेत जाते हैं; दूसरों को भी चेताते हैं। वे जानते हैं कि आसमान सूना होने का मतलब है, हरियाली का सूना होना। आफत आसमान से नहीं आती, उसे धरती पर हम खुद बुलाते है। मां मारने की पहल खुद कभी नहीं करती। हम उसे मारते हैं; तब वह हमें मारती हैं। उत्तराखंड में इसे जानने वाले लोक ज्ञान और बताने वाले लोगों की कमी कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। हां! अब उनकी सुनने वाले लोक प्रतिनिधि नहीं रहे। उनके अनपढ कहकर कुपढों ने सुनना बंद कर दिया है।
नदी अलकनंदा, गांव रेणी, घाटी हमवाल, जिला चमोली। 2500 पेड़ों को काटने का सरकारी ठेका। महिलाओं ने चेताया। माना पेड़ों को प्राणाधार। उठाई आवाज। गौरादेवी ने किया नेतृत्व। घनश्याम रतूड़ी, बूचनी देवी और धूमसिंह ने किया एकजुट। लामबंद हुआ गांव। 26 मार्च, 1974-पेड़ों से चिपक कर किया नहीं कटने देने का संकल्प। चंडी प्रसाद भट्ट ने दी ताकत। पूरे देश ने देखा चिपको का चरम। दिया समर्थन। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिखाई संजीदगी। उत्तर प्रदेश में 1980 से 1995 तक 15 साल के लिए की हरे पेड़ की ठेका-कटाई प्रतिबंधित। एक बड़ी जीत!
जेपी समूह द्वारा निर्मित विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना उत्तराखंड की नदियों पर बनने वाली पहली परियोजना है। निर्माण 1988-89 में शुरू हुआ। किंतु चंडी प्रसाद भट्ट ने छह वर्ष पूर्व 15 मार्च, 1982 को प्रधानमंत्री इंदिरा जी को पत्र लिखा। संभावित विनाश को लेकर सावधान किया। लेकिन परियोजना रुकी नहीं।
विष्णु प्रयाग परियोजना निर्माण शुरू होते ही विनाश शुरू हुआ। साथ ही शुरू हुईं शिकायतें। चाराबंदी हुई। विस्फोट से निकले पत्थरों से मवेशी घायल हुए। वन नष्ट होने शुरू हुए। मकानों में दरारें पड़ीं। गांव के तत्कालीन प्रधान भूपाल सिंह पंवार ने शासन-प्रशासन को सैकड़ों पत्र लिखे। हुआ कुछ नहीं। अंततः 2007 में चांई धंस गया। थेवाड़ी और बगीचा नामक 25 मकान, 954 नाली कृषि भूमि, सैकड़ों पेड़, गौशालायें पूरी तरह मटियामेट हो गये। 20 मकानों को आंशिक क्षति पहुंची।
प्रस्तावित टिहरी बांध तब का सबसे बड़ा और दुनिया का सबसे ऊंचा बांध था। इसके बनने से टिहरी डुबेगा; यह तय था। सुंदरलाल बहुगुणा ने 1984-85 से ही सभी को चेताना शुरू कर दिया था। कभी निर्माण, तो कभी पुनर्वास को लेकर संघर्ष चलता ही रहा। बावजूद उसके बांध बना भी, थर्राया भी। सरकारें फिर भी नहीं चेती।
12 मार्च, 2003 को उत्तराखंड पहुंची राजेन्द्र सिंह की जलयात्रा ने सुंदरलाल बहुगुणा, राधा भट्ट, रवि चोपड़ा, सुरेश भाई समेत तमाम स्थानीय नेतृत्वों को जोड़कर नदी संरक्षण चेतना को दी गति। उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान ने वर्ष 2008 को उत्तराखंड नदी बचाओ वर्ष घोषित किया। सक्रिय हुए बहन बसंती, राधा भट्ट, सुशीला भंडारी, सुनीता शाही, सुरेश भाई, रवि चोपड़ा पत्रकार शमसेर सिंह बिष्ट, लक्ष्मण सिंह नेगी, राजीव लोचन शाह, भुवन चन्द्र जोशी, बसंत पांडे समेत कई मुख्य कार्यकर्ता। 15 नदी घाटियों पर गांव-गांव हुआ चेतना कार्य। सरयू नदी बचाने के संघर्ष में सीधे टकराया सोनगांव। लोहारी नाग पाला में वन विध्वंस के खिलाफ उत्तरकाशी जिले की महिलाओं ने पेड़ों को राखी बांध शुरू किया’ रक्षा सूत्र आंदोलन’। 2008 को जल सत्याग्रह वर्ष’ घोषित कर जलबिरादरी ने जुटाया देशव्यापी समर्थन।
13 जून, वर्ष 2008 को प्रो. जी डी अग्रवाल ने उत्तर काशी में शुरू किया लोहारी नागपाला परियोजना के खिलाफ पहला अनशन। 23 जून, 2008 को हरकी पौड़ी में स्वामी परिपूर्णानन्द और प्रेमदत्त नौटियाल का आमरण अनशन। फिर कई अनशन हुए। गंगा में रेत खनन व पत्थर चुगान के खिलाफ मातृसदन हरिद्वार के स्वामी निगमानन्द ने आमरण अनशन कर प्राण गंवाये। जहां-जहां परियोजनाएं गईं; लगभग सभी जगह विरोध हुआ। धारी देवी के डूब में आने का मामला हुआ संवेदनशील। कैग ने बांधों के खिलाफ रिपोर्ट दी। गंगा ज्ञान आयोग ने उपाय सुझाये। पर्यावरण मंत्री रहते हुए जयराम रमेश ने गंगोत्री से धरासूं तक 135 किमी क्षेत्र को संवेदनशील घोषित करने का वादा किया। अधिसूचना जारी भी हुई, लेकिन 100 किमी की लंबाई और घोषित कुल जमा 4179.50 वर्ग किमी क्षेत्रफल के हिसाब से नदी के दोनों तरफ मात्र दो-दो किलोमीटर की सीमित चौड़ाई के लिए।
इसका मतलब पूरा क्षेत्र नहीं, सिर्फ भगीरथी नदी प्रभाव क्षेत्र में निर्माण, खनन व वनकटान पर रोक रहेगी, जबकि मांग उस पूरे क्षेत्र को संवेदनशील घोषित करने की थी, जो नदी के पानी और उसके गुण का निर्माण करता है। यह आधी-अधूरी संवेदना है। बी के चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गठित गंगा अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट ने भी यही प्रदर्शित किया है। जयराम रमेश ने उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित करने के लिहाज से परमिट प्रणाली शुरू करने समेत कई सुझाव दिए थे। उस पर संजीदगी उत्तराखंड की भाजपा-यूकेडी सरकार ने भी नहीं दिखाई। संजीदा निवर्तमान कांग्रेस सरकार भी नहीं है।
चिपको ने चेताया
नदी अलकनंदा, गांव रेणी, घाटी हमवाल, जिला चमोली। 2500 पेड़ों को काटने का सरकारी ठेका। महिलाओं ने चेताया। माना पेड़ों को प्राणाधार। उठाई आवाज। गौरादेवी ने किया नेतृत्व। घनश्याम रतूड़ी, बूचनी देवी और धूमसिंह ने किया एकजुट। लामबंद हुआ गांव। 26 मार्च, 1974-पेड़ों से चिपक कर किया नहीं कटने देने का संकल्प। चंडी प्रसाद भट्ट ने दी ताकत। पूरे देश ने देखा चिपको का चरम। दिया समर्थन। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिखाई संजीदगी। उत्तर प्रदेश में 1980 से 1995 तक 15 साल के लिए की हरे पेड़ की ठेका-कटाई प्रतिबंधित। एक बड़ी जीत!
पहला बांध : पहली चेतना
जेपी समूह द्वारा निर्मित विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना उत्तराखंड की नदियों पर बनने वाली पहली परियोजना है। निर्माण 1988-89 में शुरू हुआ। किंतु चंडी प्रसाद भट्ट ने छह वर्ष पूर्व 15 मार्च, 1982 को प्रधानमंत्री इंदिरा जी को पत्र लिखा। संभावित विनाश को लेकर सावधान किया। लेकिन परियोजना रुकी नहीं।
चांईं की चेतावनी
विष्णु प्रयाग परियोजना निर्माण शुरू होते ही विनाश शुरू हुआ। साथ ही शुरू हुईं शिकायतें। चाराबंदी हुई। विस्फोट से निकले पत्थरों से मवेशी घायल हुए। वन नष्ट होने शुरू हुए। मकानों में दरारें पड़ीं। गांव के तत्कालीन प्रधान भूपाल सिंह पंवार ने शासन-प्रशासन को सैकड़ों पत्र लिखे। हुआ कुछ नहीं। अंततः 2007 में चांई धंस गया। थेवाड़ी और बगीचा नामक 25 मकान, 954 नाली कृषि भूमि, सैकड़ों पेड़, गौशालायें पूरी तरह मटियामेट हो गये। 20 मकानों को आंशिक क्षति पहुंची।
टिहरी के खिलाफ बहुगुणा
प्रस्तावित टिहरी बांध तब का सबसे बड़ा और दुनिया का सबसे ऊंचा बांध था। इसके बनने से टिहरी डुबेगा; यह तय था। सुंदरलाल बहुगुणा ने 1984-85 से ही सभी को चेताना शुरू कर दिया था। कभी निर्माण, तो कभी पुनर्वास को लेकर संघर्ष चलता ही रहा। बावजूद उसके बांध बना भी, थर्राया भी। सरकारें फिर भी नहीं चेती।
2003 से सतत् उठी आवाजें
12 मार्च, 2003 को उत्तराखंड पहुंची राजेन्द्र सिंह की जलयात्रा ने सुंदरलाल बहुगुणा, राधा भट्ट, रवि चोपड़ा, सुरेश भाई समेत तमाम स्थानीय नेतृत्वों को जोड़कर नदी संरक्षण चेतना को दी गति। उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान ने वर्ष 2008 को उत्तराखंड नदी बचाओ वर्ष घोषित किया। सक्रिय हुए बहन बसंती, राधा भट्ट, सुशीला भंडारी, सुनीता शाही, सुरेश भाई, रवि चोपड़ा पत्रकार शमसेर सिंह बिष्ट, लक्ष्मण सिंह नेगी, राजीव लोचन शाह, भुवन चन्द्र जोशी, बसंत पांडे समेत कई मुख्य कार्यकर्ता। 15 नदी घाटियों पर गांव-गांव हुआ चेतना कार्य। सरयू नदी बचाने के संघर्ष में सीधे टकराया सोनगांव। लोहारी नाग पाला में वन विध्वंस के खिलाफ उत्तरकाशी जिले की महिलाओं ने पेड़ों को राखी बांध शुरू किया’ रक्षा सूत्र आंदोलन’। 2008 को जल सत्याग्रह वर्ष’ घोषित कर जलबिरादरी ने जुटाया देशव्यापी समर्थन।
13 जून, वर्ष 2008 को प्रो. जी डी अग्रवाल ने उत्तर काशी में शुरू किया लोहारी नागपाला परियोजना के खिलाफ पहला अनशन। 23 जून, 2008 को हरकी पौड़ी में स्वामी परिपूर्णानन्द और प्रेमदत्त नौटियाल का आमरण अनशन। फिर कई अनशन हुए। गंगा में रेत खनन व पत्थर चुगान के खिलाफ मातृसदन हरिद्वार के स्वामी निगमानन्द ने आमरण अनशन कर प्राण गंवाये। जहां-जहां परियोजनाएं गईं; लगभग सभी जगह विरोध हुआ। धारी देवी के डूब में आने का मामला हुआ संवेदनशील। कैग ने बांधों के खिलाफ रिपोर्ट दी। गंगा ज्ञान आयोग ने उपाय सुझाये। पर्यावरण मंत्री रहते हुए जयराम रमेश ने गंगोत्री से धरासूं तक 135 किमी क्षेत्र को संवेदनशील घोषित करने का वादा किया। अधिसूचना जारी भी हुई, लेकिन 100 किमी की लंबाई और घोषित कुल जमा 4179.50 वर्ग किमी क्षेत्रफल के हिसाब से नदी के दोनों तरफ मात्र दो-दो किलोमीटर की सीमित चौड़ाई के लिए।
इसका मतलब पूरा क्षेत्र नहीं, सिर्फ भगीरथी नदी प्रभाव क्षेत्र में निर्माण, खनन व वनकटान पर रोक रहेगी, जबकि मांग उस पूरे क्षेत्र को संवेदनशील घोषित करने की थी, जो नदी के पानी और उसके गुण का निर्माण करता है। यह आधी-अधूरी संवेदना है। बी के चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गठित गंगा अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट ने भी यही प्रदर्शित किया है। जयराम रमेश ने उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित करने के लिहाज से परमिट प्रणाली शुरू करने समेत कई सुझाव दिए थे। उस पर संजीदगी उत्तराखंड की भाजपा-यूकेडी सरकार ने भी नहीं दिखाई। संजीदा निवर्तमान कांग्रेस सरकार भी नहीं है।