भले ही उत्तर प्रदेश से अलग हुए 17 साल हो गए है परन्तु आज भी देहरादून में बैठी सरकार वही काम कर रही है जो लखनऊ में बैठकर करती थी। 1979 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राम नरेश यादव ने कहा था कि क्या प्रदेश में पहाड़ भी है? इन चिन्ताओं को ध्यान में रखकर ही 2000 में अलग उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना की गई। लेकिन हालत आज भी जस-की-तस है। 90 प्रतिशत पहाड़ी राज्य की राजधानी देहरादून होना एक और बड़ा बाधक है विकास में।
अमरीकी विद्वान लेखक डेविड फ्रॉले के अनुसार पृथ्वी की सबसे पहली ईसा से कम-से-कम 7000 साल पहले की सभ्यता वैदिक सभ्यता है और यह हिमालय क्षेत्रीय सभ्यता है। जिसमें भारत के 11 राज्य आते हैं, उत्तराखण्ड जिनमें एक राज्य है।राज्य आन्दोलनकारी त्रेपन सिंह चौहान ने अपनी पुस्तक यमुना में उत्तराखण्ड राज्य बनने से पूर्व की कहानी को बताते हुए लिखते हैं ‘‘तमाम दुःख उठाकर हम अपने बच्चों को पालते पोसते हैं और वे जब बड़े होते हैं तो हमें छोड़कर नौकरी की तलाश में मैदानों की ओर चले जाते हैं। ...इन पहाड़ों में बहने वाली नदियों का पानी और पहाड़ में पलने वाली जवानी, ये दोनों हमारे किसी काम नहीं आतीं। पहाड़ों का पानी पहाड़ों के कभी काम आया भी, तब, जब पहाड़ों के असहनीय कष्टों से जीने से बेजार होने पर यहाँ की महिलाओं को निराश होना पड़ा, तो उन्होंने इन नदियों में डूबकर आत्महत्या कर ली।”
ये दुःख तब निकला, जब लम्बे समय से यह पहाड़ी क्षेत्र पिछड़ेपन का शिकार हो रहा था। 1993-94 से 1999-2000 के बीच उत्तराखण्ड क्षेत्र उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, तब इसकी विकास दर 2.9 फीसदी थी जबकि वार्षिक राष्ट्रीय विकास दर 6.6 फीसदी थी। उसी समय पड़ोसी पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की विकास दर 7 फीसदी थी। यह विरोधाभास भी एक अलग पड़ोसी राज्य के लिये आन्दोलन का प्रमुख कारण था। संघर्षों और आन्दोलनों के बाद, 9 नवम्बर 2000 को अपार उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ उत्तर प्रदेश से अलग होकर देश का 27वाँ राज्य उत्तराखण्ड बना। लेकिन स्थिति में कोई खासा बदलाव नहीं आया।
राज्य फिर पहाड़ और मैदान में बँट गया। त्रेपन सिंह चौहान अपनी पुस्तक हे ब्वारी में राज्य निर्माण के बाद की कहानी को यमुना की दासता के रूप में बताते हुए लिखते हैं...कैते है कि यां भौत बिकास हो रा है। देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी में फैकटरी लग री है। हमें लगा चलो राज बनाने में हमारा चाहे कुछ फैदा नी हो रहा। इस प्रदेश में किसी का तो फैदा हो रा है। जिस राज के लिये हमने इतना कुछ बर्बाद किया उसका फायदा हमारे भाई बन्धुओं को तो मिलना चाए। इन फैकटरियों से हमको फैदा मिलना तो दूर वो हमारे छोरों का खून चूसने वाली जोंक बनकर आये है इस राज में। अपना हाड़-मांस गलाकर हम इन बच्चों को जवानी दे रहे हैं और वे इस जवानी को चूसकर बर्बाद कर रे हैं।
ये कथन उस विभाजन की ओर इशारा कर रहा है जो राज्य निर्माण के बाद इन 17 सालों में पैदा हुआ। यहाँ कुल 13 जिले है, जिसमें 4 मैदानी और 9 पहाड़ी हैं। कुल क्षेत्रफल का 90 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है। लगभग 30 लाख से ज्यादा शहरी आबादी है और 70 लाख से ज्यादा ग्रामीण है। यहाँ कुल आबादी में 30.55 शहर है और 69.45 प्रतिशत गाँव है। यह विभाजन पहाड़ के 9 जिलों के साथ मैदान के 4 जिलों के बीच का है, राज्य बनने के बाद प्रति व्यक्ति आय में दस गुना का इजाफा हुआ। राज्य में पर्यटन का विकास हुआ। राज्य ने वृद्धि तो की साथ में असमानता और विस्थापन में भी तेजी आई।
विस्थापन
2000 से 2011 के बीच के आँकड़ों के आधार पर जनसंख्या में वृद्धि असमानता दिखती है। एक ओर जहाँ चार मैदानी जिलों नैनीताल-25.2, देहरादून-32.48, उधमसिंह नगर-33.4 और हरिद्वार-33.16 प्रतिशत जनसंख्या की बढ़ोत्तरी हुई है। वही इन दस सालों में अल्मोड़ा-1.73 और पौढ़ी गढ़वाल -1.51 प्रतिशत जनसंख्या में गिरावट देखी गई। जो लगातार हो रहे विस्थापन की ओर इंगित करता है। विस्थापन के प्रमुख कारणों में बेरोजगारी और शिक्षा के उचित संसाधनों का अभाव है।
यहाँ चार प्रकार के विस्थापन देखने को मिलते हैं, जिनमें रोजगार के लिये पुरुष का और शादी के कारण महिलाएँ राज्य से बाहर जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोग अपने गाँवों को छोड़कर आसपास के शहरों में आकर रहने लगते हैं जिसे अन्तरराज्यीय विस्थापन कहा जाता है। साथ ही कुछ लोग एक जिले से दूसरे जिले में कतिपय कारणों से विस्थापित हो जाते हैं और इनमेें से कुछ देश के बाहर शिक्षा-दिक्षा के लिये विस्थापन करते हैं। विस्थापन राज्य की लगातार खतरनाक हो रही समस्या है।
जनसंख्या की असमानता
राज्य में जनसंख्या की असमान वितरण देखने को मिलता है। एक ओर जहाँ उत्तरकाशी जिले में कुल राज्य की जनसंख्या का 3.26 प्रतिशत आबादी निवास करती है और जिले का जनसंख्या घनत्व 41 वर्ग किमी है। वहीं दूसरी ओर राज्य के एक अन्य जिले हरिद्वार की जनसंख्या 19.05 प्रतिशत है और वहाँ का जनसंख्या घनत्व 817 है। ध्यात्वय हो कि उत्तराखण्ड का जनसंख्या घनत्व औसत 189 और देश का औसत घनत्व 382 है।
इस प्रकार एक आँकड़े के अनुसार 9 पहाड़ी जिलों की जनसंख्या 38.43 प्रतिशत है और 4 मैदानी जिलों की आबादी का प्रतिशत 61.57 है। इस असमान जनसंख्या वितरण को असमान संसाधनों के वितरण के रूप में भी देखा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्रों में मूलभूत आवश्यकताओं की कमी रहती है वहीं मैदानी जिलों में रोजगार के साधनों के साथ रोड, स्कूल, चिकित्सालयों की उचित व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त गाँवों से लगातार लोगों का पलायन हो रहा है। 2001 में 16,826 गाँव थे जो 2011 में 16,793 गाँव हो गए एवं पलायन अब भी लगातार बढ़ता जा रहा है।
असमान आर्थिक वितरण
वर्ल्ड बैंक ने डीआईपीपी के साथ मिलकर निकाली व्यापार सुगमता रिपोर्ट के आधार पर उत्तराखण्ड राज्य अपने पिछले स्थान 23 से 9वें नम्बर पर आ गया है। एसोचौम के आर्थिक अनुसन्धान ब्यूरो की रिपोर्ट में उत्तराखण्ड एक दशक में उद्योग और सेवा क्षेत्रों में सबसे आगे रहा है। ताजा अध्ययन के अनुसार 2004-05 से 2014-15 में उद्योग क्षेत्र में 16.5 प्रतिशत और सेवा क्षेत्र में 12.3 प्रतिशत सालाना वृद्धि हासिल की है। जो साल प्रतिशत की औसत सालाना वृद्धि के मुकाबले कही आगे है। उत्तराखण्ड सीएजीआर में शीर्ष पर है।
इस अवधि के दौरान देश की अर्थव्यवस्था में उत्तराखण्ड का योगदान 0.8 प्रतिशत से बढ़कर 1.2 तक पहुँच गया है। इन सब के बावजूद पिछले दस सालों में कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। यह 22 प्रतिशत से लुढ़ककर 9 प्रतिशत पर पहुँच गया है। राज्य की 75 प्रतिशत से ज्यादा आबादी आज भी कृषि पर निर्भर करती है। उत्तराखण्ड औषधीय पौधों के मामले में बहुत महत्त्वपूर्ण है यहाँ 175 प्रकार की विरल औषधि मिलती है। इसके अतिरिक्त फल, सब्जी और औषधि उत्पादन की दृष्टि से राज्य की भूमि उर्वर है। इन सब के बावजूद यह वानिकी के क्षेत्र में हिमाचल और अन्य राज्यों की तुलना में काफी पीछे है।
मैदानी जिले हरिद्वार, नैनीताल, उधमसिंह नगर और देहरादून जिलों का सकल राज्य घरेलू उत्पाद में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान है। उद्योग निदेशक उत्तराखण्ड के आँकड़े के अनुसार दिसम्बर 2012 में 230 उद्योग थे जिनमें 274,501.81 करोड़ का निवेश किया गया और जो 85,333 लोगों को रोजगार देती थी। इन उद्योगों का उत्तराखण्ड के मैदानी क्षेत्र तक सीमित होने की वजह से 90 प्रतिशत पहाड़ी भाग पिछड़ता जा रहा है।
एक ओर जहाँ आँकड़ों के आधार पर राज्य अव्वल बना है वही दूसरी ओर इन पर गम्भीरता से विचार करने पर पता चलता है कि यह मात्र चार जिलों तक सीमित है। राज्य में पर्यटन एक बड़ा आर्थिक माध्यम है। पर्यटन 2013-14 में 20.03 लाख से 2014-15 में 22.09 लाख हो गया है। चारधाम और पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने के लिये हर साल सैलानी उत्तराखण्ड आते हैं। यह धार्मिक पर्यटन के साथ स्वास्थ्य, साहसिक पर्यटन का मुख्य क्षेत्र रहा है। लेकिन दुर्भाग्य है कि राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से पर्यटन के लिये सुनियोजित मॉडल नहीं बन पाया है।
उत्तराखण्ड के बदहाल हालत के कारणों की बात करें तो सबसे पहले राजनैतिक अस्थिरता है। 17 सालों में राज्य त्रिवेन्द्र सिंह रावत 8वें मुख्यमंत्री हैं। जिसमें नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये हैं। इसके अलावा एक बहुत बड़ा कारण कि उत्तर प्रदेश के मॉडल पर पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड के विकास करने की बात की जा रही है।
भले ही उत्तर प्रदेश से अलग हुए 17 साल हो गए है परन्तु आज भी देहरादून में बैठी सरकार वही काम कर रही है जो लखनऊ में बैठकर करती थी। 1979 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राम नरेश यादव ने कहा था कि क्या प्रदेश में पहाड़ भी है? इन चिन्ताओं को ध्यान में रखकर ही 2000 में अलग उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना की गई। लेकिन हालत आज भी जस-की-तस है। 90 प्रतिशत पहाड़ी राज्य की राजधानी देहरादून होना एक और बड़ा बाधक है विकास में। सन 1984 में जब सबसे पहले अलग उत्तराखण्ड राज्य की माँग उठी थी तभी से चमोली जिले में स्थित गैरसैण को राजधानी बना दिया गया था। लेकिन आज भी यह मामला राजनीतिक घोषणा पत्रों में लटका पड़ा है।
आज पहाड़ी जिलों में लोगों में निराशा है भय है। निराशा सरकार से और भय प्राकृतिक आपदाओं का। इस वजह से वे अपने घरों को छोड़कर कही भी जाने को मजबूर हैं। इसके चलते राज्य में भूतहा गाँवों की संख्या बढ़ती जा रही है। खेत बंजर हो रहे हैं घर खाली हो रहे हैं। राजनेताओं के बीच एक और वर्ग है जो ठेकेदार है। चाहे वो भूमाफिया हो, खनन हो, स्कूल, रोड के निर्माण की धाँधली हो इनके पीछे ये ही गिरोह है। जो राज्य में दीमक की तरह काम कर रहा है। प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा राज्य उत्तराखण्ड बेहाल हो रहा है तो उसमें राजनेताओं के साथ ठेकेदारों का भी बहुत बड़ा हाथ है।
आज राज्य में सामाजिक एवं सांस्कृतिक बनावट के साथ विकास करने की जरूरत है। साथ ही राज्य की पर्यावरणीय चिन्ता के साथ विकास के मॉडलों का नियोजन करना चाहिए। फल, सब्जी उत्पादन के साथ सरकार को पर्यटन एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर राज्य में बेरोजगारी की चिन्ता से लड़ा जा सकता है। इस सबके साथ राज्य में दबाव समूहों, गैर सरकारी संगठनों को भी सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना जगाने का काम करना चाहिए।