भारत कृषि प्रधान देश है। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है ‘कृषि’। जब से दुनिया में सभ्यताओं का प्रारंभ हुआ तभी से खेती की जा रही है। खेती करने के लिए मिट्टी, धूप, पानी और खाद की जरूरत पड़ती है। ये एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें जमीन में पौधा या बीज बो दो, तो कुछ महीनों में वो लहलहाती फसल और सालों में बड़ा पेड़ बन जाता है, लेकिन अब सब्जियां मिट्टी में ही नहीं बल्कि ‘पानी’ में भी उग सकती हैं, वो भी मछलियों वाले पानी में। खेती की इस पद्धति को ‘एक्वापोनिक्स’ कहते हैं। पानी से उगने वाली इन सब्जियों में मिट्टी में उगने वाली सब्जियों के मुकाबले अधिक पोषक तत्व होते हैं और पानी भी कम लगता है। जो जल संरक्षण की दृष्टि से लाभदायक है।
दुनिया भर में आबादी तेजी से बढ़ती जा रही है। कई अनुमान लगाए जाते हैं कि 2050 तक भारत की जनसंख्या 160 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी, लेकिन धरती पर जमीन उतनी ही रहेगी। हो सकता है बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती और वन भूमि कम हो जाए। ऐसे में बढ़ती आबादी का दबाव पानी सहित सभी प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ेगा। इन संसाधनों में सबसे ज्यादा प्रभावित जल होगा। जल संकट का असर इंसान की कई जरूरतों के साथ ही खेती पर भी पड़ेगा, इसका असर अभी से दिखने भी लगा है और भारत जल संकट के सबसे भीषण दौर से गुजर रहा है। कई स्थानों पर सूखे से किसानों की फसल बर्बाद हो रही है, जबकि विभिन्न स्थानों पर पानी के अभाव में किसानों को खेती छोड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है। देश के विभिन्न स्थानों में खेती की जिस पद्धति को अपनाया जा रहा है, उसमें अधिकांश किसान अधिक पैदावार के लिए कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। इसने फसल और मिट्टी को ज़हरीला बना दिया है, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों को जन्म दे रहे हैं। कीटनाशक धरती से जैव विविधता को भी समाप्त कर रहे हैं। क्योंकि कीटनाशकों का उपयोग कीट मारने के लिए किया जाता है। इन मरे हुए कीटों को विभिन्न पक्षी खाते हैं। जिस कारण उनकी भी मौत हो रही है। कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं, जिनमें चील भी शामिल हैं। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों से सबक लेते हुए और भविष्य को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती अपनाने तथा जल संरक्षण पर जो दिया जा रहा है। भविष्य की जरूरत और इन समस्याओं के समाधान के लिए ‘एक्वापोनिक्स’ तकनीक सबसे फिट बैठती है।
बेंगलुरु का माध्वी फार्म भारत का पहला और सबसे बड़ा एक्वापोनिक्स फार्म है। तो वहीं देश के विभिन्न स्थानों पर एक्वापोनिक्स खेती की जा रही है। इस तकनीक में पानी के टैंक या छोटे तालाब बनाए जाते हैं, जिनमे मछलियों को रखा जाता है। मछिलयों के मल से पानी में अमोनियों की मात्रा बढ़ जाती है। इस पानी को पौधों के टैंक में डाल दिया जाता है। पौधे के टैंक में मिट्टी की जगह प्राकृतिक फिल्टर बनाया गया होता है, जहां पौधे पानी से आवश्यक पोषक तत्व सोख लेते हैं। फिर पानी को वापिस मछलियों के टैंक में डाल दिया जाता है। इस प्रकार ये साइकिल रिपीट होती रहती है और जल की बर्बादी नहीं होती। एक्वापोनिक्स तकनीक का मरुस्थल, लवणीलय, रेतीली, बर्फीली किसी भी प्रकार की भूमि पर किया जा सकता है। इससे देश में लाखों हेक्टेयर बंजर भूमि का उपयोग किया जा सकता है। इससे आजीविका के साधन बढ़ेंगे। तो वहीं एक्वापोनिक्स में साधारण खेती के मुकाबले 90 प्रतिशत कम पानी लगता है। मिट्टी पर उगने वाली फसल मिट्टी में उगने वाली फसल के मुकाबले तीन गुना तेजी से बढ़ती है। प्रति स्क्वायर फीट में अधिक पैदावार होती है। मिट्टी के मुकाबले इस तकनीक से उगी फसल में 40 प्रतिशत तक अधिक पोषक तत्व होते हैं और यें पूरी तरह जैविक होती हैं। इसके अलावा मछलियों को उपयोग भी उपभोग और आय के सृजन के लिए किया जा सकता है।
एक्वापोनिक्स तकनीक भविष्य को ध्यान में रखते हुए लाभदाय है, लेकिन इसमें मृदा उत्पादन और हाइड्रोपोनिक्स की तुलना में शुरुआती लागत अधिक आती है। मछलियों, बैक्टीरिया और पौधों की जानकारी होना बेहद जरूरी है। इस तकनीक के अंतर्गत पौधे उगाने के लिए अनुकूल तापमान की जरूरत होती है। हालांकि पूरे एहतियात और जानकारी प्राप्त कर ये खेती की जाती है, तो काफी लाभदायक है। जल संरक्षण की दृष्टि से तो काफी लाभदायक है। क्योंकि भारत भूजल का सबसे ज्यादा उपयोग खेती के लिए करता है या कहें कि सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी खेती में ही की जाती है। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से हम कह सकते हैं कि एक्वापोनिक्स भविष्य की जरूरत है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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