भारत में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निजी भागीदारी

Submitted by Shivendra on Mon, 11/11/2019 - 15:26
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कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

भारत सरकार बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के प्रयास करती रही है। सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) ने सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सुविधा प्रदाता और सहायक के रूप में फिर से परिभाषित करने में सफलता प्राप्त की है, जबकि निजी क्षेत्र वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वाले, निर्माता और सेवाओं या सुविधाओं के संचालक की भूमिका निभाता है। अगर पीपीपी को सफलतापूर्वक लागू किया जाए तो इससे संचालनात्मक दक्षता, टेक्नोलॉजी सम्बन्धी नवसृजन, प्रभावी प्रबंधन और अतिरिक्त वित्त तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है।
 
सार्वजनिक निजी भागीदारी (जिसे पीपीपी, 3पी या पी3 भी कहा जाता है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्र केक दो या दो से अधिक संगठनों के बीच एक ऐसा सहकारी गठबंधन है जिसकी विशेषता इसका दीर्घावधि का होना है। इतिहास में भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि सरकारों ने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच इस तरह के गठजोड़ बनाए हैं। 20वीं सदी के बाद के वर्षों और 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में इस बात के ढेरों प्रमाण मिलते हैं। दुनिया भर में सरकारों ने विभिन्न प्रकार के पीपीपी गठबंधन बनाए।
 
सार्वजनिक-निजी भागीदारी दृष्टिकोण को अपनाने से कृषि, स्वास्थ्य, विज्ञान और टेक्नोलॉजी, शिक्षा और बुनियादी ढाँचे के विकास जैसे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से कामयाबी की मिसालें बड़ी तादाद में सामने आई है। दरअसल, देश में कृषि विकास के विभिन्न चरणों में इसी तरह की पहल करने के प्रयास किए गए लेकिन इस दिशा में विशेष तेजी कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) को लागू करने के बाद देखी गई। (पोन्नुसामी और अन्य 2012)।
 
भारत सरकार पी3 को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (प्रायोजक प्राधिकारी) और निजी क्षेत्र के उपक्रम (ऐसे कानूनी उपक्रम जिनकी 51 प्रतिशत या इससे अधिक हिस्सा पूंजी निजी क्षेत्र के साझेदार के पास हो) के बीच साझेदारी के रूप में परिभाषित करती है जिसका उद्देश्य एक निश्चित अवधि (छूट की अवधि) के लिए सार्वजनिक उद्देश्य वाले बुनियादी ढाँचे का सृजन और/या प्रबंधन वाणिज्यिक शर्तों पर करना है। इसमें निजी साझेदार का चयन पारदर्शी और खुली प्रक्रिया के जरिए किया जाता है।
 
भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के वित्तीय मामलों के विभाग के अन्तर्गत वर्ष 2006 में स्थापित पीपीपी सेल पीपीपी मूल्यांकन समिति (पीपीपीएसी) के लिए सचिवालय के तौर पर तथा वायविलिटी गैप फंड द्वारा आर्थिक मदद हेतु प्रस्तावित परियोजनाओं हेतु एम्पावर्ड समिति (ईसा) और एम्पावर्ड संस्थान (ईआई) के स्वरूप में कार्य करता है। विश्व बैंक के अनुसार, कार्यान्वयन के विभिन्न पड़ावों में लगी 1500 पीपीपी परियोजनाओं के साथ,भारत पीपीपी (मॉडल) के प्रति तत्पर तमाम राष्ट्रों में अग्रणी स्थान पर है। इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट की 2015 की इन्फ्रास्कोप रिपोर्ट के अनुसार भारत पीपीपी परियोजनाओं के कार्यरूप में पूर्ण परिणति के मामले में प्रथम, उप-राष्ट्रीय पीपीपी सक्रियता में तृतीय एवं पीपीपी परियोजनाओं हेतु आदर्श वातावरण के मामले में पांचवे स्थान पर है। (www.ppindia.gov.in)
 
महाराष्ट्र में बुनियादी ढाँचे के विकास की प्रमुख परियोजनाएँ ( 50 प्रतिशत से अधिक) पी3 मॉडल पर ही आधारित हैं। 2000 में कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु जैसे दूसरे राज्यों ने भी इस मॉडल को अपनाया। अगर क्षेत्रवार विचार करें तो संख्या की दृष्टि से कुल परियोजनाओं में से 53.4 प्रतिशत और लागत के लिहाज से कुल लागत में से 46 प्रतिशत लागत की परियोजनाएँ पीपीपी मोड में चलाई जा रही है। इसके बाद बंदरगाहों का स्थान है जिनका परियोजनाओं की कुल संख्या में 8 प्रतिशत और हिस्सा है। (कुल लागत के अनुसार 21 प्रतिशत)। बिजली, सिंचाई, दूरसंचार, जल आपूर्ति और हवाई अड्डा जैसे क्षेत्रों में भी पी3 मॉडल से तेजी आई है। आवागमन संरचना में पीपीपी के विकास में भारत का रिकॉर्ड अच्छा है। यद्यपि कृषि आधारित संरचना के मामले में पीपीपी मॉडल को उसी उत्साह के साथ समन्वित नहीं किया गया।
 
भारतीय कृषि में पीपीपी के आयाम

भारत आज दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जिसकी वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 8 प्रतिशत है। देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर को इस रफ्तार से आगे बढ़ाने के लिए बुनियादी ढाँचे से सम्बन्धित सेवाओं का विकास बहुत जरूरी है और सार्वजनिक-निजी भागीदारी यानी पीपीपी की पहचान इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सर्वाधिक कारगर प्रणाली के रूप में की गई है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
पिछले वर्षों में भारतीय कृषि की औसत वार्षिक विकास दर 2.7 प्रतिशत रही है और यह अर्थव्यवस्था का सबसे धीमी गति से विकास करने वाला क्षेत्र बना हुआ है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में चार प्रतिशत की एक समान औसत दर हासिल करने में विफलता से इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में हमारे सामने बड़ी चुनौती है। इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी के जरिए नवाचार को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता भी रेखांकित होती है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
पिछले वर्षों में भारतीय कृषि की औसत वार्षिक विकास दर 2.7 प्रतिशत रही है और यह अर्थव्यवस्था का सबसे धीमी गति से विकास करने वाला क्षेत्र बना हुआ है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में चार प्रतिशत की एक समान औसत दर हासिल करने में विफलता से इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में हमारे सामने बड़ी चुनौती है। इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी के जरिए नवाचार को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता भी रेखांकित होती है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
कृषि के विकास और कृषक समुदाय के उत्थान के लिए कुछ निजी संस्थान कार्य कर रहे हैं। महाराष्ट्र इस परिवर्तनात्मक दिशा में पहले करने वाला प्रथम राज्य बना जिसने समेकित कृषि विकास हेतु अपनी तरह का अभिनव महाराष्ट्र पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप शुरू की जिससे चुनिंदा फसलों हेतु समेकित वैल्यू चेंस का पीपीपी एवं सह-निवेश द्वारा विकास किया जा सके।
 
मंडल के अनुसार (2014), पार्टनरशिप का विकास पाँच विभिन्न चरणों द्वारा होता है जोकि चक्रीय क्रिया भी हो सकती है।
 
कृषि के विभिन्न पक्षों में पीपीपी दृष्टिकोण

कृषि क्षेत्र में पीपीपी मॉडल एक (महत्त्वपूर्ण बदलाव का कारक) बड़ा बदलाव हो सकता है। यह सभी स्टेकहोल्डरों की सामूहिक शक्तियों का समन्वय करते हुए कृषि क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर (सभी को एक साथ लाते हुए) महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला सकता है।
 
कृषि के विभिन्न पक्षों जैसे अनुसंधान और विकास, गुणवत्ता संवर्धन, फसल उत्पादन, कृषि प्रसार और विपणन में पीपीपी दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। पीपीपी सम्पर्कों के प्रकार्यात्मक और संचालनात्मक घटक साझेदारों की क्षमता, बजट और समयावधि के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होते हैं।
 
अनुसंधान में पीपीपी

विकासशील देशों में कृषि जैव प्रौद्योगिकी, जैव सुरक्षा विनियमन, बौद्धिक सम्पदा अधिकार (आईपीआर) और टेक्नोलॉजी हस्तातंरण के तौर-तरीकों के बारे में पीपीपी के माध्यम से किए गए कई अध्ययनों में गरीबों की मदद पर जोर दिया गया। (स्पीलमैन और अन्य, 2007)।
 
भारत में कई अनुसंधान कार्यक्रमों में साझेदार के रूप में निजी हितधारकों और अनुसंधानकर्ताओं के साथ और अधिक सम्पर्क की जोरदार वकालत की गई क्योंकि उन्हें पीपीपी के बीच बेहतर तालमेल के लिए कई तरह के संस्थागत नवाचार तथा प्रोत्साहनों की आवश्यकता होती है। इससे उत्पादन का स्वामित्व लेने और उन्हें प्रभावी तरीके से बढ़ावा देने में सुधार होता है। इनमें से कुछ पहल नीचे दी गई हैं।
 
कृषि बायो-टेक्नोलॉजी सहायता कार्यक्रम (एबीएसपी)-द्वितीय मॉडल जिसमें माहयको, भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर), कृषि विज्ञानि विश्वविद्यालय (यूएएस) धारवाड़ और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (टीएनएयू) कोयम्बटूर, बैंगन की ऐसी ट्रांसजेंडर यानी परिवर्तित जीन वाली किस्मों के विकास में लगे हैं जो फ्रूट एंड शूट बोरर नाम के कीट से बेअसर रहती हैं। इस परियोजना में एबीएसपी ने वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था की, जैव टेक्नोलॉजी विभाग ने विनियामक ढाँचा तैयार करने में मदद दी, माहयको ने क्राय जीन उपलब्ध कराया और आईआईवीआर ने प्रतिरोध क्षमता वाली किस्मों के विकास की जिम्मेदारी ली।
 
सब्जियों से सम्बन्धित बायो-टेक्नोलॉजी के बारे में पीपीपी परियोजना एशिया और अफ्रीका में ब्रैसिकाज नाम के कीट के प्रबंधन के बारे में है। कोलेबोरेशन ऑन इनसेक्ट मैनेजमेंट फॉर ब्रैसिकाज इन एशिया फंड अफ्रीका (सीआईएमबीएए) के अन्तर्गत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, ताइवान के एशियन वेजिटेबल रिसर्च एण्ड डेवलेपमेंट सेंटर, ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन के ग्रीनविच विश्वविद्यालय के प्राकृतिक संसाधन संस्थान, अमरिका के कॉर्नेल विश्वविद्यालय, और नुनहेम्स इंडिया ने संयुक्त निवेश और सहयोगपूर्ण अनुसंधान के जरिए जैव खेती, प्रिसीजन यानी सुनिश्चित खेती, बीमारियों और सूखे के प्रति प्रतिरोध क्षमता रखने वाली परिवर्तित-जीन वाली किस्मों के उत्पादन के क्षेत्र में सहयोग किया। इस अनुसंधान से जलवायु परिवर्तन जैसी उभरती समस्याओं के समाधान में मदद मिलेगी। (एपीसीओएबी, 2007)।
 
चूँकि भारत में छोटे और मझोले किसानों को निर्यात के उद्देश्य से अंगूर की खेती के वास्ते व्यक्तिगत रूप से ‘यूरेपगैप’ प्रमाणपत्र हासिल करना बड़ा महंगा है, इसलिए माहग्रेप्स ने किसानों की सहकारी समितियों को यह प्रमाणपत्र और अन्य सहायता देने की व्यवस्था कर ली है। इसके लिए महाराष्ट्र राज्य कृषि विपणन बोर्ड (एमएसएएमबी), अंगूरों के एनआरसी, राष्ट्रीय सहकारिता विकास आयोग (एनसीडीसी), अपीडा और एनएचबी को योजना में सहभागी बनाया गया है। इसका फायदा यह हुआ कि सहकारी समिति के सदस्यों को प्रमाणपत्र के लिए सिर्फ 1200 रुपए देने पड़े जोकि व्यक्तिगत सदस्यता हासिल करने की लागत से काफी कम है। (रॉय और थोराट, 2006)।
 
विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से संचालित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का नेशनल एग्रिकल्चर इमेजरी प्रोग्राम (एनएआईपी) परियोजना के अन्तर्गत सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के साझेदारों का सहयोगात्मक बाजारोन्मुख गठबंधन तैयार किया गया और गेंदे के फूलों, कपास, कृषि वानिकी, कोबिया, न्यूट्रास्यूटिकल्स, ट्रिकोग्रामा उत्पादन आदि के क्षेत्र में 51 मूल्य श्रृंखला बनाई गई। (कोचु बाबू और अन्य, 2011)।
 
रीकॉम्बिनेंट टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से बीमारियों के इलाज के टीकों के विकास, बीमारियों के निदान के लिए एंजाइम से सम्बद्ध इम्यूनोसोर्बेट एसे (एलिस) परीक्षण किट, जीन साइलेंसिंग, स्टेम सेल और जीन चिकित्सा बायो टेक्नोलॉजी, अनुसंधान और विकास के कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं। (एपीसीओएबी, 2007)।
 
कृषि में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने में पीपीपी मॉडल का उपयोग भारत के छह राज्यों में एक्शन रिसर्च मोड में प्रारम्भ किया गया जिससे कृषक महिलाओं को टेक्नोलॉजी और बाजार तक पहुँच का फायदा मिला। (पोन्नुसामी और अन्य, 2012)। संयुक्त उद्योग और संस्थाओं के बीच पारस्परिक साझेदारी पर जोर देने से नेटवर्किंग की सम्भावनाएँ अधिकतम करने में मदद मिल सकती है और कृषि में परिणामोन्मुखी अनुसंधान से किसानों को बहुमूल्य उत्पाद प्राप्त हो सकते हैं।
 
कृषि प्रसार में पीपीपी
 
पीपीपी का दायरा बहुत बड़ा है और इसके अन्तर्गत प्रसार सेवाएँ भी शामिल हैं जिससे चिरस्थाई विकास के लिए टेक्नोलॉजी अपनाने को बढ़ावा मिल सकता है। कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) ने बिहार में बासमती चावल और औषधीय पौधों, आन्ध्रप्रदेश में मक्का और महाराष्ट्र में आम के उत्पादन तथा वितरण में जिंस पर आधारित समूहों को निजी क्षेत्र की एजेंसियों के साथ साझेदारी करने में मदद की। (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)।
 
पीपीपी प्रसार सम्बन्धी सुधार उन लोगों तक पहुँचने का तरीका है जिन तक अभी तक पहुँचा नहीं जा सका है। हालांकि तत्काल नतीजे प्राप्त करना मुश्किल है क्योंकि प्रसार के कार्य में किसानों की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें नए तौर-तरीके अपनाने को राजी करने के लिए उनकी सोच में बदलाव जरूरी है जिसमें पीपीपी को काफी वक्त लगसकता है। प्रसार कार्य में पीपीपी के साझेदारों का लक्षित लोगों के साथ लगातार तीव्र और चिरस्थाई तालमेल होना जरूरी है ताकि अध्ययन के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। संस्थाओं को अपने ज्ञान, टेक्नोलॉजी और संसाधनों को अन्य लोगों के साथ स्वेच्छा से बांटने के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि पीपीपी के तरीके में सभी पक्षों का फायदा है।
 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल एक्सटेंशन मैनेजमेंट (मैनेज) ने धानुका एग्रीटेक समूह, जोकि एक कीटनाशक (उत्पादक) कम्पनी है तथा कृषि विभाग के साथ एक रूपरेखा तैयार की है, जिसमें मध्यप्रदेश के कृषि विभाग के साथ साझीदारी है, तथा होशंगाबाद जिले के किसानों को विभिन्न प्रकार की सेवाएँ देने का लक्ष्य है।
 
बाजार और बुनियादी ढाँचा विकास में पीपीपी

भारत सरकार का आदर्श कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम प्रत्यक्ष विपणन को बढ़ावा देता है ताकि किसानों को उनकी उपज का बेहतरीन दाम मिले और बैंकों व वित्तीय तथा लॉजिस्टिक कम्पनियों के साथ ऐसी साझेदारी कायम हो जिससे न्यूनतम लागत पर वित्त सुविधा मिले और उपज का विपणन सम्भव हो। इससे विपणन के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निजी निवेश आकृष्ट करने और प्रतिस्पर्धा के सृजन में मदद मिलेगी तथा किसानों को बेहतर सेवाएँ भी मिल सकेंगी। (अज्ञात, 2005)
 
भारत में इक्रिसैट के हाइब्रिड पेरेंट्स रिसर्च कंसोर्टिया ने चारा फसलों, ज्वार और अरहर के व्यावसायीकरण के लिए 34 छोटी और मझोली घरेलू बीज कम्पनियों को एक साथ ला दिया है। इससे देश में घरेलू बीज कम्पनियों और विस्तृत बीज बाजार, दोनों ही की वाणिज्यिक व्यवहार्यता बढ़ाने में मदद मिली है। आईटीसी ई-चौपाल और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के सार्वजनिक-निजी साझेदारी से ई-मार्केटिंग के मॉडल ने छोटे किसानों को व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध कराया है.
 
अनाज भंडारण के मामले में आने वाली चुनौतियों एवं कमियों से निपटने के लिए, सरकार ने फूड कार्पोशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के द्वारा एक चरणबद्ध कार्यान्वयन नीति के तहत स्टील के आधुनिक भंडारगृहों, जिनकी क्षमता 10 मिलियन मीट्रिक टन होगी, के वर्ष 2020 तक पीपीपी मॉडल के तहत निर्माण का निर्णय किया है।
 
कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के अनुसार, 2016 के आंकड़ों के मुताबिक माइक्रो इरीगेशन अर्थात लघु सिंचाई के अन्तर्गत मात्र 8.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि है जोकि भारत की कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 5 प्रतिशत है। पीपीपी माइक्रो इरीगेशन के प्रयोग को सुविधाजनक बनाते हुए इरीगेशन अर्थात सिंचाई क्षमता में वृद्धि कर सकती है। पीपीपी के द्वारा समन्वित माइक्रो इरीगेशन नेटवर्क बनाए जा रहे हैं।
 
पीपीपी मॉडल का कृषि पर असर

जमीनी-स्तर पर पीपीपी का अच्छा असर तमाम उपलब्ध सार्वजनिक और निजी कौशलों को एकजुट करने और सहयोग हासिल करने में संस्थाओं की सहभागिता पर निर्भर करता है। पीपीपी ने कृषि उत्पादों के बाजार से सम्बन्धों, कृषक परिवारों में क्षमता निर्माण, जोखिम और अनिश्चितताएँ, कम करने, सामाजिक लामबंदी और किसानों के आर्थिक सशक्तिकरण के बाजार से सम्बन्धों के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव ला दिया है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
ज्ञान प्रबंधन

पीपीपी के सन्दर्भ में ज्ञान प्रबंधन रणनीति के नतीजे बढ़े हुए उत्पादन और बेहतर सेवाओं के रूप में सामने आ सकते हैं। पीपीपी दृष्टिकोण से बिहार के पटना जिले में चावल की परम्परागत किस्मों के स्थान पर बासमती चावल, औषधीय तथा सुगंधित पौधों और मशरूम की खेती को बढ़ावा देने में मदद मिली है। इसी तरह आध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में मूंगफली और धान के स्थान पर मक्का की खेती को अपनाने से किसानों की आमदनी में वृद्धि हुई है और मक्का की फसल का क्षेत्र बढ़ाने में मदद मिली है। (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)।
 
परिष्कृत टेक्नोलॉजी का विकास

पीपीपी से उच्च लागत वाली परिष्कृत टेक्नोलॉजी के विकास में मदद मिली है। परिणामस्वरूप प्रबंधन की दक्षता में सुधार हुआ है और संस्थागत बौद्धिक सम्पदा प्रबंधन कौशल तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध टेक्नोलॉजी के बारे में सूचनाओं का डाटाबेस भी समृद्ध हुआ है। विश्व की नौ प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सुपर चारे के विकास और 2004 में चावल की जीनोम सीक्वेंसिंग पूरी हो जाने से पीपीपी दृष्टिकोण के जरिए अत्यन्त परिष्कृत टेक्नोलॉजी अपनाना सम्भव हुआ है। (खुश, 2005)।
 
पारिस्थितिकीय आघातों के प्रति किसानों को लचीला/सहनशील बनाना तथा जोखिम और अनिश्चितताएँ कम करना
 
पीपीपी मॉडल के द्वारा कृषि क्षेत्र को मौसमी आघातों के प्रति तैयार करने एवं किसानों को स्वयं को बीमा आदि के द्वारा जोखिम मुक्त करने में सहायता मिली है। पीपीपी में फसलों के खराब होने, फसली महामारियों और बीमारियों, प्राकृतिक आपदाओं और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से सम्बन्धित जोखिमों और अनिश्चितताओं को कम करने की क्षमता है। भारत में अंगूर के निर्यात के मामले में खाद्य सुरक्षा सम्बन्धी बाधाओं को पीपीपी दृष्टिकोण के जरिए दूर किया गया (नैरोड और अन्य, 2007)।
 
कृषि का मशीनीकरण

कृषि उपकरण निर्माता प्रमुख कम्पनी जॉन डीरे ने गुजरात के जनजातीय इलाकों में यांत्रिक खेती को बढ़ावा देने के लिए पीपीपी के माध्यम से आठ कृषि उपकरण संसाधन केन्द्रों की स्थापना की जिनमें से प्रत्येक केन्द्र के अन्तर्गत 600 एकड़ जमीन आती थी। (रेड्डी और राव, 2011)।
 
सामाजिक लामबंदी

विकास से सम्बन्धित विभाग स्वयंसहायता समहों, किसान क्लबों, सामुदायिक समूहों, किसान सहकारी समितियों और परिसंघों के जरिए बेहतर सामाजिक सम्पर्क विकसित करने के लिए साझेदारियाँ विकसित करते हैं। कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसियों (एटीएमए) ने नेल्लुरु, संगरूर, रत्नगिरी, चित्तौड़ और पटना में बड़े पैमाने पर किसान हित समूहों का गठन किया है। उन्हें निजी क्षेत्र के प्रसारकर्मियों के साथ सहयोग के लिए मदद दी जाती है ताकि कई फार्म उत्पादों का सीधे तौर पर विपणन हो सके (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)। यूएएस, बेंगलुरु ने ग्रामीण बायोफ्यूल उत्पादक एसोसिएशन के गठन में मदद की जिसने 75 गाँवों के किसानों को आत्मनिर्भर उद्यमिता मॉडल में अंशदान करने एवं मदद करने की सुविधा प्रदान की। (एपीएएआरआई, 2012)। 2011 में जनजातीय पुरुष और महिला कृषकों को शामिल करके उत्पादकों के एक समूहका गठन किया गया जिसका उद्देश्य ओडिशा के खार्दा जिले में पीपीपी मोड के जरिए मक्का का उत्पादन और बिक्री करना था। (पोन्नुसामी, 2014।)
 
उत्पादन में वृद्धि

भारत को बीटी कपास टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण के बारे में मोनसेंटो के साथ वार्ता भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और भारत सरकार के बायो टेक्नोलॉजी विभाग ने शुरू की। बाद में माहिको ने मोनसेंटो के साथ साझेदारी कर ली जिसके परिणामस्वरूप भारत में बीटी कपास की शुरुआत हुई। (एपीसीओएबी, 2007)। स किस्म के कपास को अपनाने से उत्पादन क्षेत्र और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हुई तथा उत्पादन की वास्तविक लागत में कमी आई। (रामासुंदरम और अन्य, 2011)
 
अनाज उत्पादन इंडस्ट्री में मिली अद्वितीय सफलता एवं पूर्णकालिक प्रभावों में बायोटेक्नोलॉजी का सफल प्रभाव दिखता है। इसी सफलता को तिलहन औ दलहनी फसलों जो सघन-आयातित हैं, में पीपीपी मॉडल की मदद से दोहराया जा सकता है।
 
अनुकूल माहौल तैयार करने में पीपीपी का योगदान भारत के आर्थिक परिदृश्य में स्पष्ट नजर आने लगा है जहाँ पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में पीपीपी परियोजनाओं की संख्या बढ़ी है और 12वीं योजना में तो इनके निवेश खर्च में भी 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इस तरह की परियोजनाओं में आर्थिक बुनियादी ढाँचे वाली परियोजनाओं का हिस्सा काफी अधिक है। पीपीपी ठेकों के प्रकार की दृष्टि से लगभग सभी ठेके बनाओ-चलाओ-सौंप दो (बीओटी)/बनाओ-रखो-चलाओ-सौंप दो (बीओओटी) किस्म की हैं जिनमें या तो टॉल या वार्षिक राशि वाला मॉडल अपनाया जाता है। पीपीपी की ज्यादातर परियोजनाएँ सड़क निर्माण क्षेत्र की हैं (कुल परियोजनाओं में से 53.43 प्रतिशत) और इसके बाद शहरी विकास परियोजनाओं का स्थान है (20.05 प्रतिशत) और इसके बाद बिजली परियोजनाओं का नम्बर (7.39 प्रतिशत) आता है।
 
स्मार्ट वैल्यू चेन्स (मूल्य श्रृंखला) में निवेश
 
कृषि क्षेत्र का एक उदीयमान अनुक्षेत्र, फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री, जोकि निजी एवं सरकारी दोनों ही प्रकार के निवेशों द्वारा संरक्षित है, कृषि, विस्तार/ विकास सेवाओं, मूल्य संवर्धन, बिचौलियों का निराकरण तथा पूर्ववर्ती एवं अग्रणी कड़ियों के माध्यम से सप्लाई चेन (विपणन श्रृंखला) में सुधार आदि ये सभी कार्यों के लिए (सुविधा प्रदान) प्रावधान कर सकता है।
 
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के कृषि हेतु नया दृष्टिकोण (न्यू विजन फॉर एग्रीकल्चर) द्वारा उत्प्रेरित होकर महाराष्ट्र पीपीपी आईएडी समन्वित मूल्य श्रृंखलाओं के निर्माण हेतु प्रस्तुत है। वर्ष 2013 में 11 परियोजनाओं की शुरुआत के बाद इसमें वर्ष 2014-15 में 33 मूल्य श्रृंखला कार्यक्रमों का दायरा विस्तार किया जिसमें 60 से ज्यादा कम्पनियाँ सहभागी रहीं। 15 मुख्य फसलों को केन्द्रित करते हुए इसने अब तक आधा मिलियन किसानों पर पहुँच बना ली और 2020 तक 5 मिलियन किसानों का लक्ष्य रखा है।
 
भारत सरकार फसल कटाई उपरान्त विपणन श्रृंखलाओं को एकीकृत करने हेतु प्रारम्भिक तौर पर पीपीपी परियोजनाएँ बना रही हैं जिनमें मुख्य रूप से पूर्ण नाशवान फसले एवं पुष्पीय वस्तुएँ होंगी जो एक ‘हब और स्पोक’ मॉडल के तहत कृषि संचयन केन्द्र और प्राथमिक प्रसंस्करण केन्द्र होंगे, जो अग्रगामी एवं पूर्ववर्ती कड़ियों द्वारा समर्थित होंगे।
 
कृषि क्षेत्र में पीपीपी मॉडल की सीमाएँ

भारत में निजी क्षेत्र की बीज कम्पनियाँ हाइब्रिड यानी संकर बीज पर ध्यान केन्द्रित कर रही हैं जिनमें मुनाफा काफी ऊँचा और निश्चित होता है। लेकिन किसानों के फायदे के लिए, खासतौर पर अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों से हाइब्रिड बीज से खेती करने वाले किसानों के लिए पीपीपी मॉडल में कई कमियाँ हैं जिनसे किसानों को फायदा नहीं मिल पाता। (रामासुंदरम और अन्य, 2011)।
 
पीपीपी दृष्टिकोण की चुनौतियाँ और आगे का रास्ता

भारत में पीपीपी क्षेत्र अब भी नया और हाल का है। किसी भी आर्थिक परिघटना प्रभाव और असर को मापने के लिए उसका एक खास न्यूनतम अवधि गुजर जाना जरूरी होता है। भारत में सार्वजनिक-निजी साझेदारी का ज्यादातर कार्य पिछले 7 से 10 वर्षों में हुआ है। जाहिर है कि इस सम्बन्ध में रिपोर्ट और समीक्षाएँ भारतीय अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) के सकारात्मक प्रभाव की ओर इशारा करते हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों ने पीपीपी के लिए अनुकूल माहौल बना दिया है जिससे निजी क्षेत्र के निवेश से निजी सार्वजनिक साझेदारियाँ हो रही हैं।
 
सार्वजनिक-निजी भागीदारी के अनुबंध तैयार करना बड़ा अनोखा कार्य है। कोई भी दो पीपीपी अनुबंध एक समान नहीं होते। इसलिए पीपीपी अनुबंधों के प्रारूप का मानकीकरण बड़ा मुश्किल है। इसका कारण यह है कि पीपीपी परियोजना बनाते समय जो मानदंड अपनाए जाते हैं वे हमेशा एक समान नहीं हो सकते। एक पीपीपी दूसरे से कई आधारों पर भिन्न हो सकता है जैसे उसके लिए वांछित बुनियादी ढाँचे के स्वरूप और प्रकार की दृष्टि से तथा उसमें शामिल क्षेत्र और उसके लिए अपनाए गए मॉडल आदि के लिहाज से भिन्न हो सकता है। इसके अलावा, पीपीपी परियोजना में केन्द्र और राज्य सरकार का हिस्सा और परियोजना से होने वाली आमदनी, जिम्मेदारी और परियोजना के जोखिम में साझेदारी जैसी बातें भी परिस्थितिजन्य होती हैं और इस आधार पर भी एक अनुबंध दूसरे से भिन्न होता है।
 
निष्कर्ष
भारत सरकार बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के प्रयास करती रही हैं। सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) ने सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सुविधा प्रदाता और सहायक के रूप में फिर से परिभाषित करने में सफलता प्राप्त की है, जबकि निजी क्षेत्र वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वाले, निर्माता और सेवाओं या सुविधाओं के संचालक की भूमिका निभाता है। अगर पीपीपी को सफलतापूर्वक लागू किया जाए तो इससे संचालनात्मक दक्षता, टेक्नोलॉजी सम्बन्धी नवसृजन, प्रभावी प्रबंधन और अतिरिक्त वित्त तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है। पीपीपी में, सार्वजनिक और निजी, दोनों ही क्षेत्रों की विशेषताओं को अपनाकर अन्तरराष्ट्रीय-स्तर की सेवाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। कृषि के क्षेत्र में कुछ चुने हुए मॉडलों की सफलता के बावजूद अभी इसे वांछित सफलता हासिल करने के लिए लम्बा रास्ता तय करना है।

महाराष्ट्र पीपीपीआईएडी परियोजना जैसे पीपीपी मॉडल ही वास्तव में भारतीय कृषि के उपयुक्त हैं। भारत ने वर्ष 2015-16 की तुलना में वर्ष 2022-23 तक कृषकों की आय को वास्तविक मूल्यों में दोगुना करने का लक्ष्य लिया है, जिसमें विशेष और विशाल निवेश की आवश्यकता है। इस हेतु प्राइवेट सेक्टर को साझेदारी के लिए तैयार करने के लिए ज्यादा ठोस कदमों की आवश्यकता है।
 (लेखक द्वय क्रमशः कृषि संचार विभाग, जी.बी.पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर, उधमसिंह नगर, उत्तराखण्ड और कृषि प्रसार विभाग, कृषि संस्थान, विश्व भारती विश्वविद्यालय, श्रीनिकेतन, बीरभूम, (पं.बंगाल) से सम्बद्ध हैं।)