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मात्र चार साल में कर्नाटक के जुड़वा शहर हुबली-धारवाड़ में स्थानीय प्रशासन ने 40 करोड़ की लागत से करीब आठ बड़ी झीलें, तीन तालाब, 8 बंध, दो बड़े पार्क, दो पहाड़ियां और कई सांस्कृतिक परिसर समेत करीब एक करोड़ लागत की 600 एकड़ खुली भूमि का संरक्षित व सुरक्षित की। इस काम से शहर की जल भंडारण क्षमता में एक लाख क्यूबिक लीटर की वृद्धि हुई है। जलस्तर में प्रशंसनीय बढ़ोतरी हुई, सो अलग। यदि 40 करोड़ की छोटी सी लागत में हुबली-धारवाड़ी अपने सिर पर बरसने वाले पानी का इंतजाम कर सकता है तो, मुंबई के सिर पर तो साल भर पानी बरसता है और दिल्ली की सरकार के पास भी बहुत पैसा है। न सर्विस चार्ज, न सीवेज शुल्क! दिल्लीवासियों को प्रतिदिन 666.66 लीटर पानी एकदम मुफ्त!! सत्ता में आने के महज 48 घंटे के भीतर आम आदमी पार्टी शासन का यह फैसला निश्चित ही अच्छी सूझबूझ और इच्छाशक्ति का परिणाम है। हालांकि प्रयोग के तौर पर यह योजना फिलहाल तीन महीने के लिए है और इसका लाभ भी सिर्फ मौजूदा 27.16 लाख मीटर कनेक्शनधारकों को ही मिलेगा; हाउसिंग सोसाइटी बाशिंदों समेत टैंकर, ट्यूबवेल, तालाब व नदी से पानी पाने वाली शेष 6.25 लाख आबादी लाभ से वंचित रहेगी; बावजूद इसके यह निर्णय सराहनीय इसलिए है, चूंकि यह फैसला दिल्लीवासियों को पानी के अनुशासित उपयोग के लिए प्रोत्साहित करेगा।
उल्लेखनीय है कि प्रति कनेक्शन खपत प्रतिमाह 20 हजार लीटर से अधिक होने की स्थिति में न सिर्फ पूरा बिल वसूला जाएगा, बल्कि इसके लिए टैरिफ में भी 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। सच्चाई यह है कि एक सीमा से ऊपर खपत करने वालों के बिल में बढ़ोतरी किए बिना मुफ्त पानी देना ऐसे किसी भी जलापूर्ति तंत्र में संभव ही नहीं है, जिसमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी ‘पीपीपी’ मॉडल लागू किया जा चुका हो। जलापूर्ति क्षेत्र में निजीकरण के वैश्विक प्रस्तावकों, कर्जदाताओं और हिस्सेदारों की पहली शर्त ही यही है - “पानी कोई खैरात नहीं है कि यह किसी को मुफ्त दिया जाए।’’ दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल ने आम आदमी के लिए इस खास शर्त का जो तोड़ निकाला है, यह तारीफे काबिल जरूर है, किंतु शहरी जलापूर्ति के पब्लिक-प्राइवेट के उलझे जोड़ का तोड़ कतई नहीं।
यह सही है कि शहरी जलापूर्ति की बढ़ी हुई कीमतों के कारण कई हैं: 40 प्रतिशत लीकेज के चुनौती, मीटर में गड़बड़ी, बगैर मीटर पानी की चोरी, शोधन संयंत्रों के रखरखाव व संचालन की कीमत और अपने सिर पर बरसने वाले पानी के कुप्रबंधन। सब जानते हैं कि वर्षा की नन्हीं बूंदों के संजोकर की ही सबसे सस्ते और अच्छे पानी का इंतज़ाम किया जा सकता है। यह जानते हुए भी हमारे शहर जिस नासमझी के साथ अपने भूगोल में बरसने वाले पानी व उसे संजोकर रखने वाली जलसंरचनाओं को बेकार होते देख रहे हैं, इसका एक उदाहरण दिल्ली स्वयं है। यमुना की बेशकीमती रेत में दिल्ली को पानी पिलाने की क्षमता है। बावजूद इस जानकारी के दिल्ली की पूर्ववर्ती सरकारों ने यमुना की भूमि पर सरकारी निर्माण को मंजूरी दी। यह नासमझी दिल्ली ही नहीं, कमोबेश हर शहर ने की है; ‘रिवर फ्रंट’ के नाम अहमदाबाद ने भी। लखनऊ भी यही करने जा रहा है। खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की मंहगी तकनीक के बूते कच्छ, चेन्नई और कलपक्कम करोड़ों फेंककर सभी को महंगा पानी को पिलाने के चक्कर में पहले ही फंसे हुए हैं। इन सभी के पीछे छिपा बड़ा कारण है - पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी ‘पीपीपी’।
यूं कहने को हम कह सकते हैं कि विकास की औसत दर को बनाए रखने के लिए सरकार पिछली की तुलना में हर अगली पंचवर्षीय योजना में निवेश कम से कम दोगुना करने को बाध्य होगी। कह सकते हैं कि बुनियादी ढाँचा विकास के लिए लाखों करोड़ का निवेश जुटाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई, जलापूर्ति तथा स्वच्छता के क्षेत्र में 30 परियोजनाओं के जरिए 1,43,730 करोड़ का निवेश सोचा गया था। विशाखापट्टनम, आदित्यपुर (झारखंड), कर्नाटक, देवास-खण्डवा-शिवपुरी (मध्य प्रदेश), जयपुर, भिवंडी, नागपुर, चेन्नई, दिल्ली, अलन्दूर-तिरपुर (तमिलनाडु) हल्दिया तथा कोलकाता समेत तमाम परियोजनाएं मल निकासी व शुद्ध पानी पिलाने की गारंटी के नाम पर सूची में हैं। पीपीपी बुरा नहीं है, लेकिन दुनिया में मुनाफे की दर और रियायत के नाम पर हुए खेलों को यदि देखें तो, कह सकते हैं कि ‘पीपीपी’ फिलहाल सस्ते पानी का रास्ता नहीं।
याद कीजिए! दिल्ली में पानी के ‘पीपीपी’ की पहला नतीजा निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए एक हजार करोड़ रुपए की गड़बड़ी का आरोप बनकर सामने आया था। याद करने की बात यह भी है कि नागपुर में निजी कंपनी द्वारा काम संभालते ही जल शुल्क बढ़ गया। दिल्ली सरकार ने भी प्राइवेट कंपनियों से अनुबंध करने से पहले ही जल शुल्क बढ़ा दिया था। उत्तरी पश्चिमी दिल्ली की ‘सावदा घेवरा’ नामक एक पुनर्वास बस्ती में टैंकर के पानी की राह रोककर महंगा बोतलबंद पानी बेचने का फैसला किया गया था। सावदा घेवरा के गरीबों को भी यदि साफ पानी पीना है, तो प्राइवेट आउटलेट से 60 रुपए में एक जार खरीदना होगा। जाहिर है, या तो बीमार पानी पिओ या लुटने को तैयार रहो। प्राइवेट कंपनी के प्रवेश की आहट मात्र से दरों के बढ़ने के ये अनुभव देश ही नहीं, दुनिया के भी हैं। ताज्जुब है कि निजी निवेशक के पास भी कर्ज का ही पैसा है। कड़ी-दर-कड़ी कर्ज के इस खेल में भला जनता के प्राथमिकता पर कैसे हो सकता है। इस खेल में नीयत से लेकर नीति तक कुछ उचित है ही नहीं। अतः जरूरी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल की डोर पकड़कर दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचे केजरीवाल यदि सचमुच उचित दर पर दिल्ली की जनता को पानी से निजात दिलाना चाहते हैं तो पीपीपी के आर्थिक विकल्प तलाशने ही होंगे।
कर्नाटक का जुड़वा शहर हुबली-धारवाड़ तो शहरी जलक्षमता विकास का एक अनुपम व अनुकरणीय उदाहरण है। मात्र चार साल में स्थानीय प्रशासन ने 40 करोड़ की लागत से करीब आठ बड़ी झीलें, तीन तालाब, 8 बंध, दो बड़े पार्क, दो पहाड़ियां और कई सांस्कृतिक परिसर समेत करीब एक करोड़ लागत की 600 एकड़ खुली भूमि का संरक्षित व सुरक्षित की। इस काम से शहर की जल भंडारण क्षमता में एक लाख क्यूबिक लीटर की वृद्धि हुई है। जलस्तर में प्रशंसनीय बढ़ोतरी हुई, सो अलग। इस काम के लिए धारवाड़ के तत्कालीन उपायुक्त दर्पण जैन को वर्ष 2011-12 के प्रधानमंत्री पुरस्कार से भी नवाजा गया। यदि 40 करोड़ की छोटी सी लागत में हुबली-धारवाड़ी अपने सिर पर बरसने वाले पानी का इंतजाम कर सकता है तो, मुंबई के सिर पर तो साल भर पानी बरसता है और दिल्ली की सरकार के पास भी बहुत पैसा है।
उल्लेखनीय है कि प्रति कनेक्शन खपत प्रतिमाह 20 हजार लीटर से अधिक होने की स्थिति में न सिर्फ पूरा बिल वसूला जाएगा, बल्कि इसके लिए टैरिफ में भी 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। सच्चाई यह है कि एक सीमा से ऊपर खपत करने वालों के बिल में बढ़ोतरी किए बिना मुफ्त पानी देना ऐसे किसी भी जलापूर्ति तंत्र में संभव ही नहीं है, जिसमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी ‘पीपीपी’ मॉडल लागू किया जा चुका हो। जलापूर्ति क्षेत्र में निजीकरण के वैश्विक प्रस्तावकों, कर्जदाताओं और हिस्सेदारों की पहली शर्त ही यही है - “पानी कोई खैरात नहीं है कि यह किसी को मुफ्त दिया जाए।’’ दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल ने आम आदमी के लिए इस खास शर्त का जो तोड़ निकाला है, यह तारीफे काबिल जरूर है, किंतु शहरी जलापूर्ति के पब्लिक-प्राइवेट के उलझे जोड़ का तोड़ कतई नहीं।
यह सही है कि शहरी जलापूर्ति की बढ़ी हुई कीमतों के कारण कई हैं: 40 प्रतिशत लीकेज के चुनौती, मीटर में गड़बड़ी, बगैर मीटर पानी की चोरी, शोधन संयंत्रों के रखरखाव व संचालन की कीमत और अपने सिर पर बरसने वाले पानी के कुप्रबंधन। सब जानते हैं कि वर्षा की नन्हीं बूंदों के संजोकर की ही सबसे सस्ते और अच्छे पानी का इंतज़ाम किया जा सकता है। यह जानते हुए भी हमारे शहर जिस नासमझी के साथ अपने भूगोल में बरसने वाले पानी व उसे संजोकर रखने वाली जलसंरचनाओं को बेकार होते देख रहे हैं, इसका एक उदाहरण दिल्ली स्वयं है। यमुना की बेशकीमती रेत में दिल्ली को पानी पिलाने की क्षमता है। बावजूद इस जानकारी के दिल्ली की पूर्ववर्ती सरकारों ने यमुना की भूमि पर सरकारी निर्माण को मंजूरी दी। यह नासमझी दिल्ली ही नहीं, कमोबेश हर शहर ने की है; ‘रिवर फ्रंट’ के नाम अहमदाबाद ने भी। लखनऊ भी यही करने जा रहा है। खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की मंहगी तकनीक के बूते कच्छ, चेन्नई और कलपक्कम करोड़ों फेंककर सभी को महंगा पानी को पिलाने के चक्कर में पहले ही फंसे हुए हैं। इन सभी के पीछे छिपा बड़ा कारण है - पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी ‘पीपीपी’।
यूं कहने को हम कह सकते हैं कि विकास की औसत दर को बनाए रखने के लिए सरकार पिछली की तुलना में हर अगली पंचवर्षीय योजना में निवेश कम से कम दोगुना करने को बाध्य होगी। कह सकते हैं कि बुनियादी ढाँचा विकास के लिए लाखों करोड़ का निवेश जुटाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई, जलापूर्ति तथा स्वच्छता के क्षेत्र में 30 परियोजनाओं के जरिए 1,43,730 करोड़ का निवेश सोचा गया था। विशाखापट्टनम, आदित्यपुर (झारखंड), कर्नाटक, देवास-खण्डवा-शिवपुरी (मध्य प्रदेश), जयपुर, भिवंडी, नागपुर, चेन्नई, दिल्ली, अलन्दूर-तिरपुर (तमिलनाडु) हल्दिया तथा कोलकाता समेत तमाम परियोजनाएं मल निकासी व शुद्ध पानी पिलाने की गारंटी के नाम पर सूची में हैं। पीपीपी बुरा नहीं है, लेकिन दुनिया में मुनाफे की दर और रियायत के नाम पर हुए खेलों को यदि देखें तो, कह सकते हैं कि ‘पीपीपी’ फिलहाल सस्ते पानी का रास्ता नहीं।
याद कीजिए! दिल्ली में पानी के ‘पीपीपी’ की पहला नतीजा निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए एक हजार करोड़ रुपए की गड़बड़ी का आरोप बनकर सामने आया था। याद करने की बात यह भी है कि नागपुर में निजी कंपनी द्वारा काम संभालते ही जल शुल्क बढ़ गया। दिल्ली सरकार ने भी प्राइवेट कंपनियों से अनुबंध करने से पहले ही जल शुल्क बढ़ा दिया था। उत्तरी पश्चिमी दिल्ली की ‘सावदा घेवरा’ नामक एक पुनर्वास बस्ती में टैंकर के पानी की राह रोककर महंगा बोतलबंद पानी बेचने का फैसला किया गया था। सावदा घेवरा के गरीबों को भी यदि साफ पानी पीना है, तो प्राइवेट आउटलेट से 60 रुपए में एक जार खरीदना होगा। जाहिर है, या तो बीमार पानी पिओ या लुटने को तैयार रहो। प्राइवेट कंपनी के प्रवेश की आहट मात्र से दरों के बढ़ने के ये अनुभव देश ही नहीं, दुनिया के भी हैं। ताज्जुब है कि निजी निवेशक के पास भी कर्ज का ही पैसा है। कड़ी-दर-कड़ी कर्ज के इस खेल में भला जनता के प्राथमिकता पर कैसे हो सकता है। इस खेल में नीयत से लेकर नीति तक कुछ उचित है ही नहीं। अतः जरूरी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल की डोर पकड़कर दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचे केजरीवाल यदि सचमुच उचित दर पर दिल्ली की जनता को पानी से निजात दिलाना चाहते हैं तो पीपीपी के आर्थिक विकल्प तलाशने ही होंगे।
कर्नाटक का जुड़वा शहर हुबली-धारवाड़ तो शहरी जलक्षमता विकास का एक अनुपम व अनुकरणीय उदाहरण है। मात्र चार साल में स्थानीय प्रशासन ने 40 करोड़ की लागत से करीब आठ बड़ी झीलें, तीन तालाब, 8 बंध, दो बड़े पार्क, दो पहाड़ियां और कई सांस्कृतिक परिसर समेत करीब एक करोड़ लागत की 600 एकड़ खुली भूमि का संरक्षित व सुरक्षित की। इस काम से शहर की जल भंडारण क्षमता में एक लाख क्यूबिक लीटर की वृद्धि हुई है। जलस्तर में प्रशंसनीय बढ़ोतरी हुई, सो अलग। इस काम के लिए धारवाड़ के तत्कालीन उपायुक्त दर्पण जैन को वर्ष 2011-12 के प्रधानमंत्री पुरस्कार से भी नवाजा गया। यदि 40 करोड़ की छोटी सी लागत में हुबली-धारवाड़ी अपने सिर पर बरसने वाले पानी का इंतजाम कर सकता है तो, मुंबई के सिर पर तो साल भर पानी बरसता है और दिल्ली की सरकार के पास भी बहुत पैसा है।