लेखक
बाँध के लिये जिस तरह की ऊँची-नीची जगह चाहिए होती है, वह भी यहाँ पहले से ही मौजूद थी। लिहाजा बाँध बनाने का विचार प्रस्ताव में बदल गया और करोड़ों की लागत से यहाँ बाँध बनाया जाना स्वीकृत कर दिया गया। सिंचाई के लिये बनाए जाने वाले इस बाँध को कालापीपल जलाशय नाम दिया गया और इससे दूर-दूर तक नहरें निकालकर खेतों को पानी देने की योजनाएँ मूर्त रूप लेने लगी। बाँध निर्माण में सबसे बड़ा रोड़ा था कोल्हूखेड़ी और उसके आसपास की कुछ बस्तियों के डूबने का खतरा। यही उस गाँव का दुर्भाग्य है कि उसके आसपास लबालब पानी हिलोरें ले रहा है, जहाँ तक नजरें जाती है पानी और सिर्फ पानी-ही-पानी पर गाँव वालों को घड़ा भरने के लिये भी पानी नहीं मिल पा रहा है। घड़े भर पानी के लिये इन्हें यहाँ से वहाँ भटकना पड़ता है। बारिश के दिनों में भी इन्हें अपने घर के पानी के लिये जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
यहाँ के लोग बताते हैं कि पानी के लिये ही तो उन्हें अपने घर-बार छोड़कर बेदखल होना पड़ा। गाँव-खेत, घर-बार सब छोड़ दिये पर अब भी पानी हमारे नसीब में नहीं है। पुरखों के हमारे अपने गाँव में पानी की कभी कोई किल्लत नहीं रही पर यहाँ तो बीते चार सालों से हर दिन पानी की तलाश के साथ ही सूरज उगता है। अब पानी की बेरुखी हमारी नियति बन चुकी है।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के करीब यह गाँव है भोपाल जिले की ही बैरासिया ब्लाक का कोल्हूखेड़ी। नजीराबाद सड़क से थोड़ा अन्दर भोपाल से करीब 75 किमी दूर। इस गाँव के डेढ़ हजार लोग हर दिन पानी के लिये पड़ोस के दो-तीन किमी दूर एक गाँव पर आश्रित है।
कुओं और ट्यूबवेल में पानी होने पर कुछ खेत मालिक भी कभी-कभार इन्हें पानी दे देते हैं, पर ऐसा हमेशा नहीं होता। कभी बिजली की किल्लत तो कभी खेत मालिक की मर्जी। बारिश से पहले के छह महीने इन्होंने बमुश्किल निकाले। आधी जनवरी से आधे जून तक पानी का सबसे भीषण जल संकट भी इन्होंने झेला है। जब खेतों पर पानी बचा नहीं था और इन्हें पड़ोसी गाँव से पानी लाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था।
इस गाँव के (रहीम के शब्दों में) बिन पानी सब सून... हो जाने की कहानी दिलचस्प ही नहीं है, हमारे तथाकथित विकास के मॉडल की भी एक बानगी है। विकास के नाम पर गाँवों का जिस तरह कबाड़ा किया जा रहा है, इस गाँव की कहानी इसे भी बयान करती है। गाँव वालों ने हमें घेरकर जो कहानी बताई, उसका लब्बो–लुआब इस तरह है-
साल 2010 तक यह गाँव आम गाँवों की तरह ही हुआ करता था। लेकिन तभी कुछ जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की नजर इस पर पड़ी। उन्होंने यहाँ की भौगोलिक स्थितियाँ देखकर यहाँ से महज 100 मीटर की दूरी पर बहने वाली गुलाछी नदी को बाँधने की योजना बनाई।
बाँध के लिये जिस तरह की ऊँची-नीची जगह चाहिए होती है, वह भी यहाँ पहले से ही मौजूद थी। लिहाजा बाँध बनाने का विचार प्रस्ताव में बदल गया और करोड़ों की लागत से यहाँ बाँध बनाया जाना स्वीकृत कर दिया गया। सिंचाई के लिये बनाए जाने वाले इस बाँध को कालापीपल जलाशय नाम दिया गया और इससे दूर-दूर तक नहरें निकालकर खेतों को पानी देने की योजनाएँ मूर्त रूप लेने लगी।
बाँध निर्माण में सबसे बड़ा रोड़ा था कोल्हूखेड़ी और उसके आसपास की कुछ बस्तियों के डूबने का खतरा। तो बाँध निर्माण से पहले ही यहाँ के लोगों को नोटिस देकर गाँव से बेदखल होने का फरमान सुना दिया गया। थोड़ा-बहुत मुआवजा लेकर कुछ लोग तो विस्थापित होकर अन्य जगह पर चले गए। लेकिन ज्यादातर कोल्हूखेड़ी गाँव के पास ही ऊँची पहाड़ियों पर जा बसे।
वे हमेशा से यहीं रहे थे और बाहर की दुनिया उनके लिये अजनबी थी, लिहाजा उनके लिये दूर जाना मुमकिन नहीं था। इनमें ज्यादातर दलित परिवारों से थे। सरकार ने यहाँ के लोगों को स्नाहा और परसोरा में भी बसाया। जो बाकी करीब डेढ़ हजार लोग बचे थे, कोल्हूखेड़ी के नाम से बस्ती बनाकर गुलाछी नदी पर बने कालापीपल जलाशय से कुछ दूरी पर बस गए।
पहले बाँध निर्माण चल रहा था, तब तक तो ये लोग कोल्हूखेड़ी गाँव में ही बने रहे लेकिन 2013-14 की बारिश में जब इस जलाशय में पानी भरने लगा तो पूरा गाँव ही जलमग्न हो गया और लोगों को इसे छोड़ देना पड़ा।
सरकार ने स्नाहा, परसोरा और कोल्हूखेड़ी पुनर्वास स्थलों पर मूलभूत सुविधाएँ मुहैया कराने के लिये 198.67 लाख रुपए की राशि का ई-टेंडर भी दी।
10 जून 2014 को जल संसाधन विभाग के कार्यपालन यंत्री के दफ्तर से निकाला गया और ठेकेदार मेसर्स आलोक त्रिपाठी को इसका जिम्मा सौंपा गया। इस भारी-भरकम राशि का क्या हुआ और कहाँ खर्च हुई, ग्रामीणों को नहीं पता। लेकिन इससे उलट यहाँ के लोग अब भी पानी जैसी जिन्दगी की सबसे प्राथमिक मूलभूत जरूरत के लिये दो-से-तीन किमी दूर जाकर इन्तजाम कर रहे हैं।
ग्रामीण मेहरबानसिंह बताते हैं कि कोल्हूखेड़ी गाँव में आधा दर्जन कुएँ और करीब दर्जन भर हैण्डपम्प थे, लेकिन सब डूब गए। अब हमें एक-एक घड़े पानी के लिये पड़ोसी गाँवों पर निर्भर रहना पड़ता है। कोल्हूखेड़ी पुनर्वास स्थल पर ज्यादातर दलित और मजदूर पेशा लोग रहते हैं। सुबह यदि समय पर पानी नहीं मिले तो पूरे दिन की मजदूरी भी जाती रहती है।
मजदूरी नहीं करेंगे तो क्या हम खाएँगे और क्या बच्चों को खिलाएँगे। कई बार पंचायत और अधिकारियों को बता चुके हैं पर अब तक कहीं से कोई फायदा नहीं हुआ है। दो साल पहले यहाँ तीन हैण्डपम्प भी लगाए गए थे पर बीते साल कम बारिश और जलस्तर घट जाने से एक-एक कर सूख चुके हैं।
कोल्हूखेड़ी की महिला सरपंच सीमा कलावती बताती है कि वह खुद ग्रामीणों के जल संकट की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर शासन-प्रशासन स्तर से लगातार प्रयास के बाद भी कोई राहत नहीं मिल पा रही है। वे बताती हैं कि जलाशय में डूबे लोगों को उनके मकान और जमीन का मुआवजा तो मिल गया पर गाँव की मूलभूत सुविधाएँ अब तक नसीब नहीं हो सकी हैं।
गाँव के लोग बीते चार सालों से पानी तक को तरस रहे हैं। मैंने अपने स्तर पर सारी कोशिशें की हैं। इसके लिये बैरसिया के एसडीएम सहित जनपद और जिला पंचायतों में भी इस सम्बन्ध में अवगत कराया है पर आश्वासनों के सिवा कहीं से अब तक कुछ नहीं मिल सका है।
गर्मी के दिनों में यहाँ एक हैण्डपम्प लगाने का आश्वासन मिला था, पर आज तक नहीं लगाया जा सका। अभी अधिकारियों से बात की तो वे कहते हैं कि कीचड़ में मशीन जाना सम्भव नहीं है तो अब बारिश के बाद लगाएँगे। बीते एक साल से सतत दफ्तरों के चक्कर-पर-चक्कर काट रही हूँ पर नतीजा सिफर।
उन्होंने बताया कि वे खुद लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के उच्चाधिकारियों से मिलकर उन्हें स्थिति की भयावहता से अवगत करा चुकी हैं। पर हर बार 8-15 दिन का आश्वासन देकर टाल दिया जाता है। उन्होंने हमारे सामने विभाग के कार्यपालन यंत्री केएस बानिया को मोबाइल लगाने की कोशिश की लेकिन उनका मोबाइल बन्द मिला।
उधर इस मामले में भोपाल जिला पंचायत अध्यक्ष मनमोहन नागर बताते हैं कि कोल्हूखेड़ी सरपंच ने मुझे स्थिति से अवगत कराया है। मैंने खुद भी वहाँ की स्थिति देखी है। बाँध निर्माण से पहले गाँव में जल संकट नहीं था पर गाँव के जलस्रोतों के डूब में आ जाने से ग्रामीणों को पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा है। मैंने करीब छह महीने पहले ही इस समस्या के निराकरण के लिये सम्बन्धित अधिकारियों को निर्देश दे दिये थे पर अधिकारी काम करना ही नहीं चाहते। अब मैं फिर से उन्हें बताता हूँ और जल्दी ही इसे ठीक कर लिया जाएगा।
जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के अपने तर्क हैं, लेकिन गाँव के दलित परिवार पीने के पानी का संकट झेलने को मजबूर हैं। उन्हें एक फरमान सुनकर बेदखल तो कर दिया गया पर उससे पहले उनके लिये पानी तक की व्यवस्था नहीं की गई। लगातार आवाज उठाने के बाद अब तक भी उनकी माँग पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।