15 जून 2019 को भोपाल के हिन्दी भवन में मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से वरिष्ठ विमर्श कार्यक्रम आयोजित हुआ। इस विमर्श-कार्यक्रम का विषय जल संकट एवं नागरिक जागरूकता रखा गया था। इस कार्यक्रम में विभिन्न क्षेत्रों के अनेक वरिष्ठ जनों ने भाग लिया और भोपाल में गहराते जल संकट पर अपने विचार रखे। लगभग दो घंटे चली बैठक के उपरान्त जो समझ और उदाहरण सामने आए, वे निम्नानुसार हैं-
भोपाल की जलवायु मानसूनी है और उसकी औसत सालाना बरसात 1126.7 मिलीमीटर है। मानसूनी जलवायु होने के कारण भोपाल में बरसात के मौसम में 1032.6 मिलीमीटर और बाकी आठ माहों में 94.2 मिलीमीटर पानी बरसता है। इसमें कमीवेशी होती रहती है। इसके बावजूद, आसानी से कहा जा सकता है कि पानी के मामले में, भोपाल समृद्ध नगर है। यदि नगर में कहीं पानी का संकट पनपता है तो वह पानी के प्रबन्धन की कमी का प्रतिफल है। वरिष्ठ जनों का मानना था कि जल प्रबन्ध में समाज की भागीदारी होना चाहिए। इसके लिए दोनों ओर अर्थात सरकार और समाज की ओर से प्रयास होना चाहिए। प्रजातंत्र में समाज ही मालिक है। उसे तरजीह मिलना चाहिए।
भोपाल के तालाब के कैचमेंट में गहरे तालाबों का जाल छिाया जाए। बड़े तालाब को पानी देने वाली कोलांश और उलझावन नदियों के कछार में दोहन की तुलना में रीचार्ज को कम से कम दो गुना बढ़ाया जाए। गहरीकरण को समाधान के तौर पर नहीं देखा जाये। खेती में पानी की खपत को कम करने तथा पानी को रीसाईकिल करने और परंपरागत खेती को बढ़ावा देने पर सहमति बनी। समाज की सहमति से पानी की उपलब्धता के आधार पर खपत का बजट बने।
विमर्श में भोपाल की पेयजल आपूर्ति पर लम्बी चर्चा हुई। विदित हो कि भोपाल को पानी की सप्लाई परमारकालीन बड़े तालाब, कोलार डैम और नर्मदा नदी से होती है। इसके अलावा, काफी बड़ी आबादी के पास व्यक्तिगत नलकूप हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले साल की वर्षा ऋतु में नर्मदा कछार में लगभग 30 प्रतिशत कम पानी बरसा था। कोलार डैम और भोपाल का बड़ा तालाब भी पूरी तरह नहीं भर पाया था। सरकार के पास आवश्यक आंकड़े थे। इसके अलावा, मीडिया ने इस हकीकत से सभी को अवगत करा दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अक्टूबर 2018 में ही सभी सम्बन्धितों को पता चल गया था कि आने वाले दिनों में भोपाल नगर में पानी की आपूर्ति में समस्या आवेगी।
इस हकीकत को जानने के बाद एहताती कदम (आंशिक कटौती) उठाना आवश्यक था। पानी की कमी के परिप्रेक्ष्य में समाज और सरकार के बीच संवाद होना था। रोडमैप बनना था। हकीकत यह है कि किसी भी ओर से पहल नहीं हुई और बडे तालाब से, बिना आंशिक कटौती के सप्लाई होती रही। तालाब के पानी की घटती मात्रा की अनदेखी होती रही। इसके बाद मध्यप्रदेश की विधान सभा का चुनाव आ गया और सब लोग चुनाव में व्यस्त हो गए। उससे निपटने के बाद लोकसभा का चुनाव आ गया और एक बार फिर से सभी चुनाव में व्यस्त हो गए।
पानी की कमी का मसला लगभग 6 माह अनदेखी का शिकार हुआ। पानी की बढ़ती कमी नजरअन्दाज हुई। अब हालत यह है कि बड़े तालाब का पानी डेड स्टोरेज के नीचे चला गया। आपूर्ति के दबाव के कारण फिलहाल डेड स्टोरेज से पानी उठाया जा रहा है। दुर्भाग्यवश यह सिलसिला उस समय तक चलेगा जब तक अच्छी बरसात नहीं होती। लेकिन अब समस्या यह है कि डेड स्टोरेज के पानी का उपयोग करने के कारण 2019 की बरसात में पहले डेड स्टोरेज प्रतिपूर्ति करनी होगी। उसके बाद ही बडे तालाब में जल संचय होगा।
यदि 2019 की बरसात ने सही-सही साथ नहीं दिया तो एक बार फिर बड़े तालाब के आधे-अधूरे खाली भरने का खतरा बढ़ जायेगा। विमर्श में अनेक लोगों को बरसात के चरित्र और तालाब के भरने के सम्बन्ध पर सही समझ नहीं थी। अधिकांश लोग तालाब के कम भरने और सिल्ट जमाव के असली कारण से अनभिज्ञ थे। गौरतलब है कि बड़े तालाब में पिछले लगभग 55 सालों में बेतहाशा सिल्ट जमा हुई है। वेस्टवियर के सामान्यतः नहीं खुलने के कारण कैचमेंट से आई सारी की सारी गाद तालाब में जमा हुई है। गाद जमा होने के कारण तालाब की क्षमता में काफी कमी आई है और ये सिलसिला 1963 से चला आ रहा है।
क्षमता में कमी के बावजूद तालाब का आधा-अधूरा भरना बरसात की कमी का परिणाम नहीं है। वह कैचमेंट से पानी की आवक के कम होने के कारण हैं। पानी देने वाली नदी के प्रवाह की कमी के कारण है। कैचमेंट में भूजल के दोहन के बेतहाशा बढ़ने के कारण हैं। लोग, अज्ञानवश, सारा दोष जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिग, कैचमेंट में भूमि उपयोग के बदलाव और बरसात के कम होने को देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग, कैचमेंट से आने वाले पानी की मात्रा के घटने के बावजूद तालाब को गहरा करने की अतार्किक पैरवी करते हैं। उपर्युक्त उदाहरण दर्शाते हंै कि जब तक समाज में रन ऑफ और बरसात के चरित्र, गाद हटाने के तौर तरीके, पानी की पूर्ति करने वाली नदी के प्रवाह के बरसाती और गैर-बरसाती योगदान जैसे महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सही समझ नहीं होगी, उसकी सरकार से सार्थक चर्चा नहीं हो सकती। वह गुमराह हो सकता है, जनहित पराजित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि भोपाल के बड़े तालाब को मिले बहुत सारे धन का बहुत थोडा हिस्सा उसकी सेहत को ठीक करने पर खर्च हुआ है। विमर्श में स्पष्ट हुआ कि मूल मुद्दों पर सरकार और समाज के बीच संवादहीनता का संभवतः यही असली कारण है।
गौरतलब है कि सरकार और समाज में तभी संवाद हो सकता है जब दोनों पक्ष के ज्ञान के एक ही धरातल पर हों। चर्चा का लब्बो-लुआब यह था कि समाज और सरकार के बीच संवादहीनता को असरकारी बनाने की आवश्यकता है। एक और बिन्दु चर्चा में उभरा। लगा कि जनहित के मामलों पर जनप्रतिनिधियों से भी संवाद होना चाहिए। यह संवाद उनकी तकनीकी क्षमता को निखारेगा और जो योजनाएं धरातल पर उतरेंगीं, वे टिकाऊ होंगी। इस सम्बन्ध में नलकूपों का सांकेतिक उल्लेख हुआ। जब कभी जल संकट की बात उठती है लोग एक और नलकूप को समस्या का समाधान मान लेते हैं, गुमराह हो जाते हैं।
विमर्श इस सहमति पर समाप्त हुआ कि भोपाल के तालाब के कैचमेंट में गहरे तालाबों का जाल छिाया जाए। बड़े तालाब को पानी देने वाली कोलांश और उलझावन नदियों के कछार में दोहन की तुलना में रीचार्ज को कम से कम दो गुना बढ़ाया जाए। गहरीकरण को समाधान के तौर पर नहीं देखा जाये। खेती में पानी की खपत को कम करने तथा पानी को रीसाईकिल करने और परंपरागत खेती को बढ़ावा देने पर सहमति बनी। समाज की सहमति से पानी की उपलब्धता के आधार पर खपत का बजट बने। पानी का प्रदूषण मुक्ति को स्वास्थ्य से जोड़कर देखा जाए। इन बिन्दुओं पर अच्छी तरह समझ बनाई जाना चाहिए। उसके बाद ही समाज का सरकार से संवाद होना चाहिए, वही कारगर होगा।