सामाजिक सरोकारों और संविधान की कसौटी पर नोडल विभाग

Submitted by Editorial Team on Mon, 12/20/2021 - 12:58

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जल संसाधन विभाग ही पानी का नोडल विभाग है। अर्थात उसकी सार्थकता की कसौटी, सामाजिक सरोकार है। चूँकि समय के साथ, पानी के क्षेत्र की चुनौतियों और सामाजिक सरोकारों में बदलाव होता है इसलिए उसके क्षितिज को परिभाषित करना कठिन है। उनके कारगर निपटान के लिए संविधान के प्रावधानों का पालन आवश्यक है। भारत के संविधान के प्रविष्टि-56, सूची-I एवं II में पानी के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के दायित्वों का निर्धारण किया गया है जो इस प्रकार है - 

सूची-I केन्द्र सूची - 

प्रविष्टि-56, अंतर्राज्यीय नदियों तथा घाटियों का उस सीमा तक संचालन और विकास, जहाँ तक कि ऐसा संचालन और विकास, जनहित में संसद द्वारा विधि के अन्तर्गत केन्द्र के नियंत्रण में घोषित किया गया है।

सूची-II राज्य सूची 

17, जल, अर्थात जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, निकास और बान्ध, जलाशय और जल विद्युत, सूची- I के प्रवेश 56 के अधीन।

संविधान में जल का अर्थ और दृष्टिबोध की सीमा जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, निकास (ड्रेनेज) और बान्ध, जलाशय और जल विद्युत ही है। पानी के मामले में संविधान ने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के अधिकारों की लक्ष्मण रेखा निर्धारित कर दी है। संविधान के प्रावधानों के अनुसार ने योजनाओं के क्रियान्वयन का अधिकार राज्यों को हैं। अर्थात, चिन्तन का काम केन्द्र का और क्रियान्वयन का कार्य राज्य सरकार का है। आश्चर्यजनक है कि संविधान में भूजल का जिक्र नहीं है और प्रावधानों से समाज अनुपस्थित है। संविधान के प्रावधान, नोडल विभाग के दृष्टिबोध को निर्धारित करते हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि नोडल विभाग के दृष्टिबोध पर आधारित कार्यक्रम ही समाज के निरापद भविष्य की गारन्टी है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि नोडल विभाग से अपेक्षित सामाजिक सरोकारों के निदान का क्षितिज तो पानी का स्वराज एवं स्वावलम्बन ही हो सकता है। 

कई बार, लेखक को लगता है कि नोडल विभाग ने पानी को बांध बनाने में प्रयुक्त कच्चा माल और नदी को पानी पैदा करने वाली फैक्टरी माना है। उसके अन्य पहलुओं से बेखबर रहकर काम किया। इस कारण अनेक बुनियादी सवाल जिनका सम्बन्ध प्राणियों एवं वनस्पतियों तथा पर्यावरण के अस्तित्व से था, अनुत्तरित रहे। स्थानीय भूगोल का उपयोग बांध और नहरों को बनाने में तो बखूबी हुआ पर मिट्टी, पर्यावरण और भूजल इत्यादि से पानी के सह-सम्बन्धों की अनदेखी ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया। उनके निराकरण पर अपेक्षित काम नही हुआ। सामाजिक सरोकारों के स्थान पर ‘टाप-डाउन’ सोच हावी रही और लगभग सभी सिंचाई परियोजनाओं के कैचमेंट के इलाके बदहाल ही बने रहे।

भारत की जलवायु में चट्टानों की टूटन और सड़न, यूरोप और अमेरिका की ठंड़ी जलवायु में होने वाली टूटन और सड़न से पूरी तरह भिन्न है। इस अन्तर के कारण देश के गर्म भागों में चट्टानों की टूटन और सड़ने से बहुत अधिक मात्रा में मलबा पैदा होता है। बरसात के दिनों में यह मलबा बह कर नदियों को मिलता है और धीरे धीरे आगे बढ़कर समुद्र में जमा हो जाता है। बांध बनाते समय इस मलबे के कारगर निपटान की अनदेखी ने बांधों की लम्बी उपयोगी जिन्दगी को बौना बना दिया है। हिमालयीन नदियों के तटबन्धों के साईड़ इफेक्ट ने आम जीवन को अनेक जगह त्रासद बनाया है। लेखक को लगता है कि इस विषय पर नोडल विभाग को और अधिक चिन्तन करना चाहिये। किसी भी देश का इतिहास सौ दो सौ साल का नही होता इसलिये बांधों की कम उम्र चिन्ता का विषय है। चिन्तन के अभाव में लेखक को लगता है कि बांधों की उपयोगिता खत्म होने के बाद अन्न उत्पादन, सिंचित खेती और किसान की आजीविका के सवाल पर नए सिरे से विचार होना चाहिए। ये सारी बातें नोडल विभाग के अजेन्डे पर बहुत ऊंची पायदान पर होना चाहिये। यही सामाजिक सरोकार है। 

देश के अधिकांश भाग में लोग रहते हैं। कहीं-कहीं आबादी का घनत्व बहुत अधिक है। लोग कहीं भी रहें, पानी, उनकी मूलभूत आवश्यकता है। इसी तरह जंगलों की खुशहाली के लिए भी पानी की आवश्यकता अपरिहार्य है। इसलिये नोडल विभाग से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि वह पानी के उस माडल पर काम करे जिसमें, सबको, सब जगह, पूरे साल जरूरत के लायक पानी मिल सके। खेद है कि नोडल विभाग, पानी के असमान वितरण के माड़ल पर काम कर रहा है। परिणामस्वरुप कमान्ड के बाहर के इलाकों में, पीने के पानी तक का संकट लगातार बढ़ रहा है। यह भूजल के लगातार बढ़ते अतिदोहन के कारण हो रहा है। इसके अलावा, नोडल विभाग ने पेय जल की पूर्ति की प्राथमिकता तो तय की है पर स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये लगने वाले पानी की मात्रा की गणना कर आज तक उसका आरक्षण नही किया है।

सब जानते हैं कि बांध माडल की मदद से देश के अधिकतम लगभग 35 प्रतिशत इलाके की जमीन की ही सिंचाई की जा सकती है। अर्थात इस माड़ल पर काम करने के कारण देश का लगभग 65 प्रतिशत इलाका, हमेशा के लिये भूजल की सीमित आपूर्ति पर निर्भर रहेगा। यदि हमने भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा लांघी तो कुदरती जलचक्र असन्तुलित हो जावेगा। आश्चर्यजनक है कि नोडल विभाग ने इस 65 प्रतिशत इलाके की सिंचाई या अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति की जिम्मेदारी नही ली है। वाटरशेड अवधारणा जो सब जगह पानी की उपलब्धता को मान्यता देती है, नोडल विभाग की तकनीकी डिक्शनरी में गुमनामी झेल रही है। नोडल विभाग की बांध माड़ल नीति के कारण, केचमेंट और कमान्ड़ में पानी का असमान वितरण, सामाजिक सरोकारों की अनदेखी कर, सरकारी मान्यता प्राप्त कर रहा है। यह माड़ल कम आबादी वाले अमेरिका या आस्ट्रेलिया जैसे देशों के लिये भले ही फिलहाल उपयुक्त नजर आता हो, पर भारत जैसी सघन आबादी, घटती जोत और मानसूनी जलवायु वाले देश के लिये कतई उपयुक्त नहीं है। लेखक को लगता है सामाजिक सरोकारों को पूरा करने के लिए नोडल विभाग को इतने सीमित दायरे और इतनी सीमित तकनीकों पर काम नही करना चाहिये। 

जल सम्पदा और जल परम्पराओं से समृद्ध देश में, पानी का नोडल विभाग, सीमित दृष्टिबोध वाला विभाग नही हो सकता। होना भी नहीं चाहिए। भारत की आबादी, उसकी जरूरतों और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये जो समग्र दृष्टिबोध चाहिये वह, दृष्टिबोध ही नोडल विभाग का दृष्टिबोध होना चाहिये। वही सामाजिक सरोकार है। अब समय आ गया है जब नोडल विभाग को प्रकृति से लड़ने के स्थान पर उससे जुगत बैठाकर काम करने वाला समाजोन्मुखी विभाग बनाना चाहिए। उपरोक्त सोच को अपना कर ही वह नोडल विभाग के खिताब का हकदार बनेगा, पर्यावरण, समाज एवं समस्त जीवधारियों का भला करेगा। 

अन्त में, नोडल विभाग के आंकड़ों के अनुसार, पानी के मामले में, भारत, दुनिया का सबसे अमीर देश है इसलिये, अपील है कि ‘‘जल एक सीमित संसाधन है’’ जैसे नकारात्मक वाक्य को सरकारी दस्तावेजों से हटा देना चाहिये। इस नकारात्मक टिप्पणी को हटाने से समाज को सही संदेश जावेगा और सामाजिक सरोकारों की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।