भारत में जल संकट गरीबी की रेखा की तरह है। इस देश में हर साल जितने क्षेत्रों को जल संकट से बाहर निकाला जाता है उससे कहीं अधिक क्षेत्र उसके दायरे में जुड जाते हैं। पुराने क्षेत्रों में भी जलसंकट लौट-लौट कर आता रहता है। यह पानी पर काम करने वाले विभागों, स्वयं सेवी संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थाओं के लगातार प्रयासों के चलते हो रहा है। ज्ञातव्य है कि आजादी के बाद से अब तक पानी पर 3.5 लाख करोड़ से अधिक की राशि व्यय की गई है। मनरेगा के अंतर्गत कुल 123 लाख से भी अधिक जल संरक्षण संरचनाएँ बनाई गईं हैं। छत के पानी को जमीन में उतारने से लेकर पानी बचाओं कार्यक्रमों तक को सम्पन्न करने के बाद हालात नहीं सुधर रहे हैं। राहत पैकेजों, अनुदानों तथा व्यय के आँकड़ों को देखकर लगता है कि प्रयासों में कमी नही है। दूसरी ओर, हालात पर काबू पाने अर्थात शुद्ध पानी उपलब्ध कराने के लिए बाजार आगे आ रहा है। नोडल विभाग सहित बाकी सब जिम्मेदार उसके पीछे असहाय जैसे खडे हैं। समाज, जल संकट की कीमत चुका रहा है।
कुछ लोगों को लग सकता है कि जल संकट का मामला कुत्ते की पूँछ की तरह टेढ़ा है। आप चाहे जितना प्रयास कर लो वह कभी सीधा नहीं होगा। वह टेढ़ा ही बना रहेगा पर इस स्थिति को अपना भविष्य मान लेना मनुष्य की फितरत नहीं है इसलिए उससे निजात पाना आवश्यक है। सभी को मिलकर संकट का हल खोजना आवश्यक है। उसे समग्रता में समझना आवश्यक है। उसके विभिन्न आयामों को समझना आवश्यक है। जल संकट से मुक्ति के लिए अपनाई रणनीति और दृष्टिबोध तथा उसके पीछे के विज्ञान को समझना आवश्यक है। विदित हो कि भारत, दुनिया का वह भाग्यशाली देश है जो पानी के मामले में बेहद समृद्ध है। देश के अधिकांश भाग में इतना पानी तो अवश्य बरसता है कि हमारी मूलभूत आवश्यकताऐं पूरी हो सकें इसके बावजूद हम कभी मौसम को दोष देते हैं तो कभी जल प्रबंध की कमी को दोषी ठहराते हैं। हमें इस पृवत्ति पर लगाम लगाना चाहिए। हमे, सबसे पहले पानी की इष्टतम मात्रा को हर बसाहट में उपलब्ध कराने की रणनीति पर काम करना चाहिए। उसके बाद अन्य सेक्टरों के लिए रणनीति बनाना चाहिए। इसके लिए जल विज्ञान को समझना होगा।
भारत में जल संकट गरीबी की रेखा की तरह है। इस देश में हर साल जितने क्षेत्रों को जल संकट से बाहर निकाला जाता है उससे कहीं अधिक क्षेत्र उसके दायरे में जुड जाते हैं। एक तरफ पानी पर काम करने वाले विभागों, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थाओं के लगातार प्रयास हैं तो दूसरी तरफ एक-दो दशकों में 3.5 लाख करोड़ से अधिक की राशि व्यय हो चुकी है। फिर भी हम आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
सबसे पहले बात पानी के नोडल विभाग के नजरिये की। केन्द्र और राज्य स्तर के नोडल विभाग, मौटे तौर पर बरसाती पानी को उपयुक्त साईट पर विभिन्न साईज के बांध बना कर जमा करते है और कमाण्ड में वितरित करते हैं वहीं उसकी दूसरी शाखा जमीन के नीचे के पानी के उतार-चढ़ाव और गुणवत्ता का काम करती है। नोडल विभाग का अर्थ केवल बांध बनाना या भूजल की मानीटरिंग करना नही है। यह बेहद सीमित नजरिया है। यही संकट की तह में है। सभी जानते हैं कि विभिन्न नामों से सम्बोधित किए जाने वाले बांधों की की मदद से देश में पानी की न्यायोचित व्यवस्था कायम करना संभव नही है। गंगा को उसकी पुरानी अस्मिता लौटाना संभव नही है। सूखती नदियों को जिन्दा करना संभव नहीं है। पानी का दूसरा स्रोत जमीन के नीचे का पानी है। नोडल विभाग की भूजल पर काम करने वाली केन्द्रीय तथा राज्य स्तरीय इकाईयों ने मुख्यतः उसके दोहन जनित बढ़ते असन्तुलन को रेखांकित किया है। काम का यह नजरिया कभी भी भूजल के संकट को समाप्त नहीं कर सकता। विचारणीय है कि जल संकट के सदंर्भ में सतही जल और भूजल की ऐजेन्सियों के कामों का ऐसा भ्रमित दिषाबोध क्यों है, पर बहुत ही कम विचार हुआ है। यह पहला अप्रिय सवाल है। इसका उत्तर खोजे बिना जल संकट के समाधान की बात करना बेमानी होगा। इसके लिए प्रचलित जल विज्ञान और उसके आधार पर बनाई जाने वाली संरचनाओं की उन खामियों की तह में जाना आवश्यक है जिनके कारण जल संकट बेलगाम हो रहा है। इसके लिए अनुसंधान संस्थाओं के कामों की समीक्षा और विष्वविद्यालयों के सिलेबस पर भी नजर डालना मौजू होगा।
पानी पर अनुसन्धान करने वाली संस्थाओं के काम पर, मौटे तौर पर नजर डालने से पता चलता है कि वे नोडल विभाग के कामों (बांध निर्माण और भूजल मानीटरिंग) को परिमार्जित करने तथा उन कामों को नई ऊँचाईयों पर ले जाने के लिए काम करती हैं। अनेक बार उनका काम सीमित समीक्षात्मक तो कई बार वह सांख्यिकीय विवेचना पर आधारित होता है। इसके अलावा और भी आयाम हैं जिन पर ये संस्थायें काम करती हैं पर एक ऐसा फील्ड भी है जिस पर सामान्यतः इन संस्थानों की नजर नहीं जाती। वह फील्ड है परम्परागत जल विज्ञान का। भारत के परम्परागत जल विज्ञान पर अनुसन्धान के उदाहरण विरले ही हैं पर देष में, प्राचीन जल संरचनाओं को आधुनिक जल विज्ञान की पाश्चात्य सोच के आधार पर सुधारने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इन सुधारों ने एक ओर यदि जल संचय को बढ़ाया है तो दूसरी ओर संरचना की आयु कम कर दी है। उदाहरण के लिए उन्नीस सौ साठ के दशक में नदी पर बने परंपरागत बांधों और तालाबों पर अनेक सुधार कार्य हुए है। उन कार्यों के कारण प्राचीन तालाब और बांध अब समाप्त होने की कगार पर हैं। संक्षेप में, जाने अनजाने में, अनुसंधान संस्थाओं ने भारत के परंपरागत जल विज्ञान की अवधारणा की अनदेखी कर पाश्चात्य जल विज्ञान को कामों का आधार बनाया है। उस अनदेखी की तह में जाने से समझ में आता है कि उन अनुसन्धानकर्ताओं के बेहद परिश्रमी और मेघावी होने के बावजूद उन्हें अपनी पढ़ाई के दौरान परंपरागत जल विज्ञान की अवधारणा के अध्ययन का अवसर ही नहीं मिला। उन्हें जो मिला, उन्होंने उसे ही ऊँचाई प्रदान करने की पुरजोर कोशिश की। इस कमी को जानने के उपरान्त आवश्यक है कि हम विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में जल विज्ञान और उसकी पूरक एवं सहायक शाखाओं के सिलेबस को देखने और समझने का प्रयास करें। यदि कहीं खामी है तो उसे दूर करें।
हमारे विश्वविद्यालयों की अकादमिक काउन्सिलों द्वारा जल विज्ञान के अंतर्गत पढ़ाई जाने वाली जो विषयवस्तु स्वीकृत की जाती है वह मूलतः विदेशी जल विज्ञान पर आधारित विषय वस्तु है। उसमें भारतीय जल विज्ञान से सम्बन्धित विषय वस्तु का पूरी तरह अभाव है। इसके अतिरिक्त विष्वविद्यालयों और अनुसन्धन संस्थाओं में रिसर्च करने वाले लोग भी जो कुछ अनुसंधान कर रहे हैं उसका आधार भी वही विदेशी विज्ञान है। इस कमी के कारण यहाँ से शिक्षित होकर निकले छात्र वही करते हैं जो उन्होंने पढ़ा है। वे उतना ही जानते हैं जो उन्होंने पढ़ा है। इस क्षेत्र में सरकारों का हस्तक्षेप लगभग नहीं के बराबर है। यही हैं वे उत्तर खोजते कुछ ज्वलंत अनसुलझे सवाल। इन सवालों को हल किए बिना जल संकट खत्म नहीं होगा। इसके लिए सबसे पहले, अकादमिक संस्थाओं को आगे आना होगा। सिलेबस में सुधार करना होगा। जलसंकट के समाधान के लिए सही दिषाबोध और तकनीकों को सिलेबस की मुख्य धारा में लाना होगा। उसके बाद ही नोडल विभागों के काम की दिशा बदलेगी। अन्यथा, जल संकट, कुत्ते की पूँछ की तरह टेढ़ा बना रहेगा। सवाल अनुत्तरित बने रहेंगे।