भरपूर पानी का भ्रम

Submitted by Hindi on Fri, 01/25/2013 - 10:59
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प्रभात खबर (रांची), जून 6, 2006, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
भारत की जनसंख्या बढ़ रही है, उद्योगों में बढ़ोत्तरी है और कृषि उत्पादन बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप ग्रामीण और शहरी, दोनों ही इलाकों में पानी की मांग भी बढ़ रही है। जो नहीं बढ़ रही है, वह है पानी की प्राकृतिक आपूर्ति। मौसम में हो रहे परिवर्तनों से भविष्य में पानी और भी कम हो जायेगा, इसलिए यही समय है कि कोई कारगर नीति बनायी जाए। अभी तक की सरकारी योजनाओं से बहुत ही कम मदद हो पायी है। इसकी एक वजह है कि हमारे तकनीकी विशेषज्ञ भी उतनी ही दूर दृष्टि-वाले हैं, जितनी निकट-दृष्टि वाले हमारे राजनीतिज्ञ। वे सरकारों को एक ऐसी दूरगामी योजना दे देते हैं, जिसके लिए पैसे और समय, दोनों की आवश्यकता होती है। दुख की बात है कि दोनों ही विचार विध्वंसकारी हैं। दूरगामी नज़रिया बहुत ही कम अवधि के लक्ष्य की पूर्ति करता है। ये भव्य योजनाएं सुनने में बहुत ही अच्छी लगती हैं और नेता हमें उस शानदार दुनिया में ले जाने का वादा भी करते हैं, यहां पानी लगातार उपलब्ध रहता है।

अकेले दिल्ली में 360 करोड़ लीटर पानी की आपूर्ति होती है। मोटे तौर पर इसका आधा घरों तक पहुंचता है। सरकारी भाषा में कहें तो यह पानी वितरण में बर्बाद हो जाता है। पानी की आपूर्ति में भी असमानता और बर्बादी है। दिल्ली की 70 फीसदी जनता को 5 फीसदी से भी कम पानी मिलता है। वहीं सरकारी अधिकारियों और अमीर लोगों को आश्चर्यजनक रूप से 400 से 500 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी मिलता है।

अभी यह ज्ञात नहीं है कि व्यक्ति और कारखाने ज़मीन से नीचे का कितना पानी इस्तेमाल करते हैं, पर इसकी गणना उपयोग के बाद निकले पानी से की जा सकती है। दिल्ली में प्रतिदिन 390 करोड़ लीटर अपशिष्ट पानी निकलता है। इसका अर्थ है कि दिल्ली संभवतः 440 करोड़ लीटर पानी का इस्तेमाल करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यहां प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन 317 लीटर पानी उपलब्ध होता है।

भारत को सही दिशा में जाने के लिए दृष्टि को भी सही दिशा में रखना होगा। सबसे दुखदायी मुद्दा यह है कि मितव्ययिता को हम गरीबी की स्वीकारोक्ति मानते हैं। कोई भी राजनीतिज्ञ, जो संरक्षण की बात करता है, राशनिंग और अभाव का अग्रदूत मान लिया जाता है। इसलिए वे बड़ा खेल खेलते हैं, भव्य योजनाओं का वायदा भी करते हैं और उनका कहना है कि देश भी यही चाहता है।

अगर सिंगापुर से तुलना करें, तो वहां प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्र 165 लीटर पानी ही उपलब्ध है। अलबत्ता सिंगापुर कुछ ऐसा करता है, जो कि दिल्ली नहीं करती । सिंगापुर अपने अपशिष्ट पानी को साफ कर उसे पुनः उपयोग के लायक बनाता है। सैद्धांतिक तौर पर दिल्ली भी ऐसा कर सकती है, पर अपशिष्ट उपचार में हुए भारी निवेश के बावजूद अच्छे नतीजे नहीं निकले हैं। उदाहरण के लिए अपशिष्ट संयंत्रों का निर्माण वहां नहीं किया गया, जहां उनकी आवश्यकता थी, बल्कि वे वहां बनाये गये जहां पर भूखंड खाली थे। इस कारण अपशिष्ट को लंबी दूसरी तय करनी पड़ती है। बड़े संयंत्रों में गंदे पानी के पहुंच की लागत उसके शोधन से ज्यादा थी। इसके साथ संयंत्रों की तुलना में ड्रेनेज पर निवेश नहीं किया गया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में यह पाया गया कि वर्ष 2004 में दिल्ली के 73 फीसदी अपशिष्ट शोधन संयंत्र अपनी क्षमता से कम पर कार्य कर रहे हैं और सात फीसदी तो किसी भी लायक नहीं है।

हाल ही में दिल्ली के लिए विश्व बैंक के सहयोग से बनी योजनाओं में वास्तविक आवश्यकताओं के बजाय निजीकरण के सिद्धांत को बढ़ावा दिया गया है, जैसे कि निजीकरण होते ही स्वच्छ पानी हफ्ते के सातों दिन, चौबीसों घंटे उपलब्ध हो जायेगा। लेकिन यहां भी अपशिष्ट पानी पर ध्यान नहीं दिया गया। इस बात का भी अनुमान नहीं लगाया गया कि चौबीसों घंटे पानी आपूर्ति के लिए कितने अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होगी। हानि के बारे में कोई समझ नहीं बनायी गयी थी। क्या विश्व बैंक सच में इसमें विश्वास रखता है कि वह उन गरीब लोगों से पैसा वसूल कर सकता है, जिन्होंने संभवतः पानी की चोरी की है? जो भी थोड़ी बहुत जानकारी है, उससे पता चलता है कि पानी की हानि जमीन के नीचे के कनेक्शनों में हो रहे रिसाव से हो रही है । कितनी ही सक्षम कंपनी क्यों न हो, क्या वह इन सभी कनेक्शनों को पुनः ठीक कर पायेगी?

व्यावहारिक रूप से अमीरों को और बेहतर सुविधाएँ प्रदान करने के लिए इस योजना के द्वारा गरीब लोगों से अधिक धन वसूला जायेगा। दिल्ली की परेशानियों को दूर करने के लिए बनी इस कमाल की योजना के बावजूद असली मुद्दा है सबको समानता के सिद्धांत पर आपूर्ति की जाये। अमीर लोगों के यहां मीटर लगाये जायें, उनसे पूरी लागत वसूली जाये और सीवर प्रणाली को ठीक किया जाये। सिद्धांततः प्रत्येक शहर ऐसी रणनीति बना सकते हैं और उन्हें बनानी भी चाहिए, जो इस बात पर आधारित हो कि पानी स्थानीय स्तर पर इकट्ठा किया जायेगा, स्थानीय स्तर पर ही इसका निवारण किया जायेगा और अपशिष्ट का शोधन भी स्थानीय स्तर पर ही होगा। शहरों को सावधानीपूर्वक अपने भूजल भंडारों को देखना चाहिए और उन्हें बचा कर रखना चाहिए।

घरेलू अपशिष्ट को औद्योगिक अपशिष्ट से अलग कर लिया जाये। इससे जो कम जहरीला पानी होगा, वह साफ किया जा सकेगा और फिर उसे भूजल-स्तर समृद्धि करने या खेती में सिंचाई के कार्य में लिया जा सकता है। इस्राइल ऐसा ही करता है। इसी के साथ घरों और कारखानों में पानी का प्रयोग किफायत से किये जाने की आवश्यकता है। ऑस्ट्रेलिया ने एक विधेयक पारित किया है, जिसके अनुसार सभी घरेलू उपकरणों के लिए यह अनिवार्य है कि वे कम – से – कम पानी का इस्तेमाल करने वाले हों। वहीं भारत के शौचालयों के फ्लश में आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा पानी इस्तेमाल हो रहा है।

भारत को सही दिशा में जाने के लिए दृष्टि को भी सही दिशा में रखना होगा। सबसे दुखदायी मुद्दा यह है कि मितव्ययिता को हम गरीबी की स्वीकारोक्ति मानते हैं। कोई भी राजनीतिज्ञ, जो संरक्षण की बात करता है, राशनिंग और अभाव का अग्रदूत मान लिया जाता है। इसलिए वे बड़ा खेल खेलते हैं, भव्य योजनाओं का वायदा भी करते हैं और उनका कहना है कि देश भी यही चाहता है।