मौजूदा जल संकट बेहद गम्भीर है। उसे तत्काल समाधान की आवश्यकता है क्योंकि देश के दस राज्यों की लगभग 70 करोड़ आबादी सूखे से प्रभावित है। प्रभावित आबादी का अधिकांश हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों से है। इन इलाकों में पानी का मुख्य स्रोत कुएँ, तालाब, नदी या नलकूप हैं। वे ही सूख रहे हैं। प्रभावित लोग पानी के लिये तरस रहे हैं।
इन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन रोकने और राहत प्रदान करने की गरज से मनरेगा व्यवस्थाओं को चाक-चौबन्द किया जा रहा है। सूखे से उत्पन्न पेयजल संकट पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट संज्ञान ले रहे हैं। कुछ इलाकों में अभी से लू चलने लगी है। गर्मी के कारण मरने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया है। अभी से पारा, अनेक इलाकों में 45 डिग्री को छू रहा है।
महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, और आन्ध्र प्रदेश प्रभावित राज्यों में शुमार हो गए हैं। महाराष्ट्र के लगभग 20 हजार गाँव सूखे की चपेट में हैं। मराठवाड़ा में हालात बेहद खराब हैं। जलस्रोतों में जमा पानी रीतने के कगार पर है।
सर्वाधिक प्रभावित इलाकों के अस्पतालों में मरीजों को पानी उपलब्ध कराने में कठिनाई का अनुभव होने लगा है। गुजरात के सौराष्ट्र के बाँधों में मात्र दो माह के लिये पानी बाकी बचा है। बुन्देलखण्ड अंचल के काफी बड़े हिस्से में कहीं पलायन तो कहीं पानी पर पहरे की स्थिति है। प्रशासन, पानी की कमी झेल रहे इलाकों में पानी परिवहन के तौर-तरीकों पर विचार कर रहा है।
देश के 91 प्रमुख बाँधों के जलाशयों में मात्र 25 प्रतिशत पानी बाकी बचा है। बचे पानी पर बढ़ती गर्मी, उठाव और वाष्पीकरण का संकट है। जमीन के नीचे का पानी भी अतिदोहन का शिकार है। प्रभावित राज्यों में लगभग 90 प्रतिशत भूजल का दोहन हो चुका है। प्रभावित राज्यों के प्रशासन के सामने संकटग्रस्त इलाकों में बचे भूजल के भरोसे मानसून आने तक पेयजल पुराने की चुनौती है।
मौजूदा जल संकट दबे पाँव नहीं आया है। वह सूचना देकर आया है। वह उस मेहमान की तरह है जो हर साल किसी-न-किसी इलाके में आता है। उसे लेकर, संसद तथा विधानसभाओं में बहस हो रही है। पहले भी हुई है। सरकारें उसके निराकरण के लिये प्रयासरत हैं।
इसी कारण पिछले कई सालों से सेमीनारों में वैज्ञानिक और तकनीकी लोग जल संकट के कारणों पर गम्भीर चर्चा कर रहे हैं। अपने विचारों और सुझावों से समाज और सरकार का ध्यान खींच रहे हैं। कुछ लोग जल संकट के लिये समाज को तो कुछ लोग सरकार को जिम्मेदार बताते हैं। कुछ बरसात को जिम्मेदार बताते हैं। कुछ जागरुकता की कमी को कारण बताते हैं। सरकार जागरुकता बढ़ाने के लिये अनुदान देती है।
अनुदान की धनराशि से समय-समय पर आयोजन भी हो रहे हैं पर आयोजनों में सबसे अधिक चर्चा कारण गिनाने और लोगों को जिम्मेदार बताने पर है। कई बार ये आयोजन महंगी होटलों में आयोजित होते है। इन आयोजनों में प्रभावित लोगों की संख्या सामान्यतः नगण्य होती है।
दुर्भाग्यवश, इन मंचों पर उन योजनाओं या नीतिगत खामियों की चर्चा नहीं होती जिन्हें अपनाकर देश जल संकट के मौजूदा मुकाम पर पहुँचा है इसलिये सबसे अधिक ध्यान उस दृष्टिबोध पर दिया जाना चाहिए जिसे सुधारे बिना जल संकट का हल खोजना कठिन है।
जल संकट, हर साल की कहानी है। मौजूदा जल संकट भी उसी कड़ी का अंग है। इस कारण, जल संकट के कारणों को जानने के स्थान पर शायद उसके कदमों की आहट को क्रमबद्ध तरीके से देखना, कुछ अलग नजरिया हो सकता है। अनुभव बताता है कि अपवादों को छोड़कर लगभग हर साल बरसात के मौसम में तालाब, जलाशय और बाँध भर जाते हैं।
कुओं और नलकूपों में पानी लौट आता है। सूखी नदियाँ भी उफन पड़ती हैं। उनमें कुछ दिनों के लिये प्रवाह लौट आता है। बरसात खत्म होते ही छोटी नदियों में प्रवाह टूटने लगता है। दिसम्बर आते-आते अनेक इलाकों में कुएँ सूखने लगते हैं। कुओं के बाद मंझोली नदियों, स्टापडैमों और तालाबों का नम्बर आता है। अन्त में नलकूप सूखते हैं।
नलकूपों के पानी की पाँच सौ से हजार फुट नीचे उतरने की जानकारी मिलने लगती है। इस क्रम में अपवाद हो सकते हैं पर एक बात तय है कि हर साल, जल संकट के सिर उठाते ही अमूनन दो काम प्रारम्भ होते हैं। पहला काम, अभावग्रस्त इलाके में नए-नए नलकूप खोदना। दूसरा काम टैंकरों की मदद से आबादी को पानी उपलब्ध कराना।
नये जलस्रोतों में योजनाओं के अधीन बनने वाली संरचनाओं का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। जहाँ कुएँ और नलकूप सूख रहे हैं, बीसों नलकूप असफल हो चुके हैं या उनका पानी उतर गया है, उन इलाकों में नए सिरे से कुओं और नलकूपों का बनना प्रारम्भ हो जाता है। हर प्रयास में, कुछ स्रोत सफल सिद्ध होते हैं तो कुछ असफल। इस काम के पूरा होते-होते गर्मी का मौसम बीत जाता है। दूसरा काम टैंकरों की मदद से पानी उपलब्ध कराना। इस काम में अनेक लोग जुट जाते हैं।
मीडिया कभी-कभी उन्हें टैंकर माफिया भी कहता है। वे इस अवधि में अच्छा खासा व्यापार कर लेते हैं। बरसात आते ही जल संकट की चर्चा बन्द हो जाती है। पिछले अनेक सालों से यही हो रहा है। यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। स्थायी समाधान जल संकट की जड़ पर चोट करना, उसे पूरी तरह खत्म करना और समाज को मुख्य धारा से जोड़ना है। वही हम सबका असली मकसद होना चाहिए।
जल संसाधन विभाग खेती के लिये अलग-अलग साइज के बाँध बनाता है। ग्रामीण विकास विभाग कपिलधारा योजना के अर्न्तगत कुएँ खोदता है वहीं लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पेयजल पूर्ति के लिये नलकूप बनाता है। इसके अलावा, लाखों की संख्या में निजी स्तर पर खेती और पेयजल के लिये नलकूप बनाए जाते हैं। जल संसाधन विभाग मुख्यतः बाढ़ के पानी अर्थात रन-आफ का उपयोग करता है। बाकी विभाग और लोग भूजल का दोहन करते हैं। इनमें कोई भी भूजल रीचार्ज के लिये जिम्मेदार नहीं है।
बाँध को कैचमेंट से पानी मिलता है पर कैचमेंट के पानी का लाभ केवल कमाण्ड को मिलता है। वह लाभ से वंचित है इसलिये पानी देने वाला कैचमेंट प्यासा रह जाता है। कैचमेंट में खेती और पेयजल की पूर्ति का एकमात्र जरिया भूजल होता है। भूजल रीचार्ज के लिये समानुपातिक प्रयास नहीं होते इसलिये हर साल, सूखे दिनों में जलसंकट गहराता है। कैचमेंट के संकट को कम करने के लिये बाँध के पानी के उपयोग की कोई नीति नहीं है। यह कैचमेंट के सालाना जल संकट का मुख्य कारण है।
उस संकट को कम करने के लिये नीति निर्धारकों को, कैचमेंटों के लिये, रन-आफ का समानुपातिक आवंटन करना चाहिए। यह आवंटन कैचमेंट की आवश्यकतानुसार होगा। उस आवश्यकता को जलाशय से पूरा कराया जाना चाहिए। यह कदम पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों और नदियों की अविरलता के लिये आवश्यक है।
देश के अधिकांश इलाकों में पेयजल संकट का असली कारण जलस्रोतों यथा नदियों, झरनों, तालाबों, कुओं और नलकूपों का असमय सूखना है। इस समस्या का एकमात्र इलाज समानुपातिक रीचार्ज है। यह काम अविलम्ब होना चाहिए। वर्षा आश्रित इलाकों में प्राथमिकता के आधार पर काम और बजट उपलब्ध कराना चाहिए। सही अमले की अविलम्ब व्यवस्था की जानी चाहिए।
केन्द्र स्तर पर सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड और राज्य स्तर पर भूजल संगठनों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। राज्यों को समानुपातिक रीचार्ज के लिये धन उपलब्ध कराना चाहिए अन्यथा वह दिन अब बहुत दूर नहीं जब टैंकरों से पानी पहुँचाना सम्भव नहीं होगा।
हमें याद रखना होगा, जल संरक्षण के छुटपुट प्रयास मौजूदा संकट दूर नहीं कर पाएँगे। इसके साथ-साथ पानी की गुणवत्ता को ठीक रखने के लिये तत्काल प्रयासों की आवश्यकता है। यदि समय रहते इस दिशा में समुचित प्रयास नहीं हुए तो आगामी सालों में भारत की बड़ी आबादी गम्भीर बीमारियों का शिकार होगी।
एक सवाल और। उसका उत्तर खोजा जाना चाहिए। क्या मौजूदा जल संकट बिना सही दृष्टिबोध के चलाई योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रतिफल है? इस सवाल पर निर्णायक बहस होना चाहिए क्योंकि कल्याणकारी राज्य, सही योजनाओं के क्रियान्वयन के माध्यम से ही समाज की जरूरतों की पूर्ति का वायदा और उसके सुरक्षित भविष्य का सपना संजोता है। यह बहस उसकी साख के लिये भी आवश्यक है।
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