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अनसुना मत करो इस कहानी को (परम्परागत जल प्रबन्धन), 1 जुलाई 1997
अटारी खेजड़ा गाँव के लोग पशुओं को पानी उपलब्ध कराने के मामले में निश्चिंत हैं। चालीस साल तक लड़ी गई लम्बी कानूनी लड़ाई और एक लाख रुपए से भी ज्यादा खर्च करने के बाद वे (अब 1995 में) उस तालाब के पक्के मालिक बन गए हैं, जिसे आजादी से पहले मूक पशुओं को पानी पिलाने की खातिर जमींदार ने सार्वजनिक घोषित कर दिया था।
अटारी खेजड़ा गाँव के लोग पशुओं को पानी उपलब्ध कराने के मामले में निश्चिंत हैं। चालीस साल तक लड़ी गई लम्बी कानूनी लड़ाई और एक लाख रुपए से भी ज्यादा खर्च करने के बाद वे (अब 1995 में) उस तालाब के पक्के मालिक बन गए हैं, जिसे आजादी से पहले मूक पशुओं को पानी पिलाने की खातिर जमींदार ने सार्वजनिक घोषित कर दिया था।पशुओं के लिये पानी की यह लड़ाई और उसके लिये चुकाई गई कीमत उनके लिये मिसाल हैं जो हर बात के लिये सरकार का मुँह ताकने के आदी हो चुके हैं। अपनी मुश्किलें आसान करने का यह उदाहरण चारों तरफ से निराश हो चुके लोगों में भरोसा जगाता है।
इस किस्से का सिलसिला आजादी से पहले शुरू हुआ था। तब देश में जमींदारी का चलन था और श्री बालकृष्ण लढ्ढा गाँव के जमींदार थे। श्री लढ्ढा मारवाड़ के रहने वाले थे अरौर महाराष्ट्र के अमरावती शहर में रह कर अपना व्यापार चलाते थे। उनका अटारी खेजड़ा में आना-जाना कभी साल-दो-साल में होता था और जमींदारी का सारा कामकाज उनके कारिदें देखते थे।
सूखे मारवाड़ से निकलकर देश भर में फैल गए दूसरे मारवाड़ी व्यापारियों की तरह उन्हें भी पानी के मोल का अच्छी तरह पता था। उन दिनों अटारी खेजड़ा में पानी की किल्लत रहती थी। इसी से श्री लढ्ढा हर साल अपने खर्च पर गर्मियों में पशुओं के लिये गाँव में प्याऊ लगवाते थे।
लेकिन यह व्यवस्था पुख्ता नहीं थी। कारिदें बही-खातों में प्याऊ का खर्च तो बढ़ा-चढ़ाकर डालते थे पर पशुओं को ठीक से पानी मिलता रहे इसकी खास चिन्ता नहीं रखते थे। गाँव वालों ने इस बात की शिकायत श्री लढ्ढा तक पहुँचाई। लगातार शिकायतें मिलने पर दुखी श्री लढ्ढा ने प्याऊ की व्यवस्था तो तोड़ दी पर इसी के साथ अपना निजी तालाब दान-पत्र लिखकर सार्वजनिक कर दिया। तब से वर्षों तक ग्रामीण और पशुधन तालाब का इस्तेमाल करते रहे पर ग्रामीण सरकारी कागजों में दान-पत्र पर अमल कराने से चूक गए।
फिर आजादी आई, पहले राजे-रजवाड़े खत्म हुए, फिर जमींदारियाँ टूटी, अटारी खेजड़ा में भी नई बयार बही और ‘जो जोते सो खेत उसी का’ के नारे का असर बढ़ा। हवा का रुख भाँप कर बालकृष्ण लढ्ढा एक दिन अचानक अमरावती से आये और तुरत-फुरत में अपनी जमीन-जायदाद मय घर-घूरे के बेच गए।
बेचते वक्त जल्दबाजी में न श्री लढ्ढा ने देखा और ना ही गाँव वालों को पता चला कि जमीन-जायदाद के साथ सार्वजनिक तालाब भी बिक गया है। जब नए मालिक जमीन के साथ तालाब पर कब्जा लेने पहुँचे तो पशुओं को पानी की चिन्ता से परेशान गाँव वालों ने संगठित प्रतिरोध करके कब्जा नहीं होने दिया। फौजदारी की नौबत आ गई, पर पूरा गाँव एक तरफ था सो झगड़े की जगह मामला अदालत में चला गया।
मामला साल-दर-साल पहले निचली अदालत में, फिर जिले में और फिर हाईकोर्ट में चलता रहा। करीब चालीस साल तक हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी ग्राम-पंचायत हार गई।
पानी की लड़ाई लड़ रहे ग्रामीणों ने हार जाने को बावजूद तालाब पर से कब्जा नहीं छोड़ा। ग्राम-पंचायत के खिलाफ कुर्की-डिकरी हो गई पर गाँव वाले फिर भी तालाब छोड़ने को तैयार नहीं हुए। सार्वजनिक हित और संगठित प्रतिरोध के आगे पुलिस प्रशासन भी नए बने मालिकों को तालाब पर कब्जा नहीं दिला पाये। थक-हार कर पुलिस ने दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता करते हुए गाँव के सरपंच को सुझाव दिया कि ग्राम-पंचायत तालाब खरीद ले। पैसों का इन्तजाम न होने पर भी सरपंच ने हामी भर ली।
तालाब के नए बने मालिक ने भी पूरे गाँव के पशुओं को पानी के सवाल पर तय कर लिया कि यदि उन्हें एक लाख रुपए मिल जाएँगे तो वे तालाब पंचायत को दे देंगे। गाँव वालों के सामने सबसे बड़ा सवाल पैसे का था कि इतना पैसा कहाँ से आएगा। सो गाँव वालों ने घर-घर चन्दा करने की ठानी। लोगों ने क्षमता के मुताबिक पाँच रुपए से पाँच हजार तक का चन्दा दिया। जन-जन की भागीदारी से ग्राम पंचायत का काम बन गया।
तीन अगस्त 1995 को तालाब ग्राम पंचायत के नाम हो गया। रजिस्ट्री पर खर्च आया बारह हजार। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ और हारकर भी अटारी खेजड़ा के ग्रामीण अपनी एकता और संकल्प शक्ति के बूते जीत गए। श्री लढ्ढा ने जिस मकसद के लिये तालाब दान किया था, तालाब उस काम में आया तो, पर ग्रामीणों को पक्की मालिकी के लिये चालीस साल लड़ने के बाद एक लाख रुपए से भी ज्यादा रकम खर्च करना पड़ा।
ग्राम पंचायत ने तालाब को नया रूप देने के लिये जनवरी 1996 में डेढ़ लाख रुपए की योजना सरकार को भेजी है, लेकिन राजीव गाँधी जल-ग्रहण-क्षेत्र, परकोलेशन टैंक, सिंचाई तालाब, बाँध और भी न जाने कौन-कौन सी योजना बनाने और लागू करने का दावा करने वाली सरकार साल भर बाद भी अटारी खेजड़ा के ग्रामीण समाज की एकता, संकल्प और संघर्ष की भावना का सम्मान नहीं कर पाई है।
सोने से महंगी घड़ाई
और अटारी खेजड़ा की सामुदायिक कोशिशों के मुकाबले जरा मौजूदा सरकारी योजनाओं को भी देखें। सन 1995-96 में विदिशा जिले में सात परकोलेशन टैंक बनाना तय हुआ। मकसद था भूजलस्तर बढ़ाना।
परलोकेशन टैंक के लिये जिन स्थलों का चयन किया गया, उनमें से एक था, खैरोदा गाँव का बंजर पठार। हलके ढलान वाले इस पठार पर बरसात के तुरन्त बाद काम शुरू कर दिया गया। तालाब की नींव खोदकर उसमें मिट्टी के लौंदे भरने का सिलसिला शुरू हुआ। लौंदे बनाने के लिये आसपास की खंतियों से पानी लिया जाने लगा, पर जल्दी ही उनका पानी खत्म हो गया। अफसर चिन्तित हो गए।
सोच विचार के बाद पठार पर वहीं कुएँ की खुदाई शुरू हो गई पर पथरीली जमीन में 7-8 फुट से ज्यादा खुदाई नहीं की जा सकी। उतने में ही पानी मिल गया। पर जाड़ा खत्म होते-होते वह कच्चा कुआँ सूख गया। अफसर फिर परेशान हो गए।
तालाब बाँधने की प्रक्रिया में पानी की भारी जरूरत थी ताकि पाल की मिट्टी को गीला करके रोलर से ठीक से दबाया जा सके। परेशान अफसरों ने अब की दफा टैंकरों से पानी ढुलवाना शुरू कर दिया। पर जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि सोने से घड़ाई महंगी पड़ने वाली है।
खूब सोचने-विचारने के बाद दो किलोमीटर दूर के एक नाले पर एक पम्प बैठाकर एक किलोमीटर आगे एक गड्ढे में पाइप के जरिए पानी लाया गया। फिर वहाँ गड्ढे पर एक और पम्प लगाकर पानी निर्माणाधीन तालाब तक लाया गया। तब पाल की कुछ तलाई हो पाई। फिर नाले में भी पानी कम पड़ गया, सो जैसे-तैसे काम निपटाया गया। तलाई में कसर रह गई।
नतीजा? पहला- पाँच लाख रुपए के इस परकोलेशन टैंक में बरसात के बाद एक बूँद पानी भी नहीं ठहरा। दूसरा- अफसरों ने कसम खाई कि वे अब जहाँ भी परकोलेशन टैंक बनवाएँगे, पानी का इन्तजाम पहले करेंगे।