देश की राजधानी दिल्ली के बहुतेरे मकान ऐसे हैं जिनके सेप्टिक टैंक ड्रेनेज से जुड़े हुए नहीं है। इन मकानों से निकलने वाला मानव अपशिष्ट (मल) कहाँ जाता है इसकी फिक्र किसी को नहीं है और भला हो भी क्यों। मल कहाँ जाता है यह जानकर लोग क्या करेंगे लेकिन अब वक्त आ गया है इसकी पड़ताल होनी चाहिए क्योंकि कहीं-न-कहीं यह यहाँ के लोगों को ही प्रभावित कर रहा है।
वैसे यहाँ के लोग भले ही न जानते हों लेकिन मनोज कुमार भली प्रकार इससे अवगत हैं। मनोज कुमार इसलिये अवगत हैं क्योंकि वे इन सेप्टिंग टैकों में भरे मल को बाहर निकालकर दूसरे जगह फेंकने के काम में लगे हुए हैं।
मनोज कुमार पिछले 2 दशक से सेप्टिक टैंक क्लीनर के रूप में काम कर रहे हैं। सम्प्रति उसके पास तीन वैक्युम टैंकर हैं जिनके जरिए सेप्टिक टैंक से अपशिष्ट को बाहर निकाला जाता है। मनोज के साथ एक हेल्पर भी है राजबीर पाल। दोनों दक्षिण दिल्ली के संगम विहार के एक मोहल्ले में दाखिल होते हैं। राजबीर टैंकर पर चढ़ता है और एक बड़ी-सी पाइप निकालकर उसे मोहल्ले के एक मकान के सेप्टिक टैंक में डाल देता है लेकिन उसने न तो मास्क पहना है और न ही दस्ताने। इससे जुड़ा सवाल पूछे जाने पर राजबीर कहता है, ‘सेप्टिक टैंक में जहरीले गैस के कारण कई लोगों के मरने की खबर हमने सुनी है, हमें कम-से-कम दस्ताने मुहैया करवाए जाने चाहिए।’
जिस मकान के सेप्टिक टैंक से मल निकाला गया, वह दो मंजिला है और इसमें कुुल 7 परिवार रहते हैं। वैसे सेप्टिक टैंक में दो चेम्बर होने चाहिए और इनमें से एक चेम्बर ऐसे सोकिंग पिट या फिर दूसरे तरह के परिशोधन व्यवस्था से जुड़ा होना चाहिए ताकि मल पदार्थ को सुरक्षित तरीके से बाहर निकाला जा सके लेकिन इस मकान के सेप्टिक टैंक में एक ही चेम्बर है। मकान मालिक बीरेंद्र सिंह को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सेप्टिक टैंक में दो चेम्बर होने चाहिए। वे उल्टे शिकायत के लहजे में कहते हैं, हमें हर महीने सेप्टिक टैंक को साफ करवाना पड़ता है।
बीरेंद्र सिंह से जब पूछा गया कि क्या वे जानते हैं कि सारा मल कहाँ जाता है तो उन्होंने ना में सिर हिला दिया। सेप्टिक टैंक को साफ करवाने में बीरेंद्र सिंह को 1 हजार रुपए लगे।
दूसरी तरफ मल से भरा हुअा वैक्यूम टैंकर लेकर मनोज और राजबीर सीधे बत्रा अस्पताल, तुगलकाबाद की ओर निकल पड़े। अस्पताल के बाहर यमुना में मिलने वाले एक बड़े ड्रेन में उन्होंने वैक्यूम टैंकर का सारा मल उड़ेल दिया। कुमार से जब सवाल किया गया कि वह मल को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (दिल्ली में 21 स्थानों पर 36 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं) में क्यों नहीं ले गया तो उसने झेंपते हुए कहा, ‘जितनी देर हम मल को ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाने में लगाएँगे, उतनी देर में तो हम 3-4 घरों का मल निकाल फेंकेंगे। अगर पकड़ लिये गए तो 100 से 200 रुपए चुकाकर छूट जाएँगे।’
मनोज कम-से-कम 10 से 15 घरों से रोज मल निकालता है। मानसून में उसके धंधे को परवाज लग जाता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुल 350 से 400 ऐसे वैक्यूम टैंकर संचालित हो रहे हैं। इनका संचालन निजी लोग और यूनियनें करती हैं। इससे समझा जा सकता है कि इस क्षेत्र और भारत में कितना मल बाहर निकलता है।
भारत के महज एक तिहाई शहरी घर ही सीवेज सिस्टम से जुड़े हुए हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 38.2 प्रतिशत घरों में सेप्टिक टैंक से जुड़े हुए शौचालय हैं। इसमें समस्या यह है कि इन घरों के टैंकों की कंस्ट्रक्शन क्वालिटी बेहद घटिया है। परिणास्वरूप सीवेज का परिशोधन भी अाधा-अधूरा ही रह जाता है। दूसरी बात है कि मल पदार्थों को ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है जिस कारण इन्हें खुले तौर पर नगर निकायों की सीवेज और जलाशयों में फेंक दिया जाता है।
हर रोज निकलता है 1.75 मिलियन मानव मल
भारत में हर रोज 1.2 बिलियन लोग 1.75 मिलियन टन मल त्यागते हैं। इन मलों को कमोड से नीचे करने के लिये फ्लश का इस्तेमाल किया जाता है जिससे समस्याएँ और बढ़ी हैं। पानी के इस्तेमाल के कारण मल में कई गुना बढ़ोत्तरी हो गई है और नगर निकायों को मल से पानी को अलग करने में बहुत खर्च करना होगा।
घर अगर सीवेज से जुड़ा है तो सीवेज बिल्डिंग के इंटरनल वेस्टवाटर कलेक्शन सिस्टम के जरिए म्युनिसिपल सीवर सिस्टम तक पहुँचेगा। अगर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट है तो पम्पिंग स्टेशनों से गन्दा पानी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुँचता है। वैसे इस ढाँचे का निर्माण महंगा पड़ता है और हर क्षेत्र के लिये यह कारगर भी नहीं है। अतएव सेप्टिक टैंक और पिट लैट्रिन के जरिए उसी स्थान पर मल का प्रबन्धन मौजूदा वक्त की जरूरत है।
जनगणना के अाँकड़े बताते हैं कि लगभग 45.3 प्रतिशत शहरी घर अॉन साइट सिस्टम पर निर्भर हैं। यहाँ से निकलने वाले गन्दे पानी का एक बड़ा हिस्सा खेतों में छोड़ा जाता है। यह भूमि के नीचे गहरे चला जाता होगा जिससे भूजल प्रदूूषित हो सकता है।
सेप्टिक टैंकों से निकाले गए मल को ट्रीटमेंट प्लांट में भेजना चाहिए और यहाँ केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानदंडों के आधार पर उनका ट्रीटमेंट होना चाहिए। विडम्बना है कि अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं हो रहा है। जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि देश के 65 प्रतिशत शहरों में मल को संग्रह करने की कायदे की कोई व्यवस्था नहीं है, इनको ठिकाने लगाने की बात तो दूर रही।
मल प्रबन्धन पर नहीं है ठोस कानून
स्वच्छता और पर्यावरण को लेकर देश में कई कानून हैं लेकिन मल के प्रबन्धन के लिये कोई कानून नहीं है। वैसे वर्ष 2013 में शहरी विकास मंत्रालय ने मल के प्रबन्धन के लिये दिशा-निर्देश जारी किया था। इस दिशा-निर्देश में मल के प्रबन्धन के लिये मल-प्रबन्धन सब-प्लान के साथ ही नेशनल अरबन सेनिटेशन पॉलिसी के सिटी सेनिटेशन प्लान के अनुसरण की बात कही गई थी।
दिल्ली के एक एनजीओ सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) (Centre for Science and Environment -CSE) ने पता लगाया कि भारत के 11 शहरों का मल आखिर जाता कहाँ है। एनजीओ ने अलग-अलग तरह के क्षेत्रों का आकलन करने के लिये अलग-अलग शहरों को चुना।
पूरे मामले पर शोध करने वाले सीएसई के शोधकर्ताअों में शामिल भितुश लुथरा कहते हैं, ‘किसी क्षेत्र का भू-स्तर, जलवाही स्तर तथा शहरीकरण का स्तर गन्दगी को काबू में रखने और इसका प्रबन्धन करने में महत्त्वपूर्ण होता है इसलिये यह जरूरी है।’
बीअाईएस मानकों की अनदेखी, कुप्रबन्धन
घरों में सेप्टिक टैंक के निर्माण को लेकर ब्यूरो अॉफ इण्डियन स्टैंडर्ड (बीअाईएस) ने कुछ नियम तय किये हैं। नियम के अनुसार सेप्टिक टैंक में तरल पदार्थ रखने की न्यूनतम क्षमता 1000 लीटर होनी चाहिए और अगर इसकी क्षमता 2 हजार लीटर की जाती है तो इसके लिये दो चेम्बर बनाना अनिवार्य है। पहले चेम्बर का आकार दूसरे चेम्बर से दोगुना होना चाहिए। बीआईएस ने यह भी अनिवार्य किया है कि टैंक का फर्श पक्का होना चाहिए। कहने का मतलब है कि एक आदर्श टैंक वह होता है जिसमें दो चेम्बर हों और वह या तो सोक पिट से जुड़ा हो ताकि प्राथमिक तौर पर ट्रीटमेंट के बाद मल को बाहर किया जाये या फिर वह दूसरे तरह की ट्रीटमेंट व्यवस्था से जुड़ा हुअा हो।
बीअाईएस का यह दिशा-निर्देश केवल सुझाव है। यह अनिवार्य नहीं। यही वजह है कि अधिकांश सेप्टिक टैंकों में इस दिशा-निर्देश का पालन नहीं किया गया है।
हालांकि सेप्टिक टैंक की डिजाइन उसे बनाने वाले मिस्त्री की स्कील और उसके अनुभव पर भी निर्भर करता है। मिसाल के तौर पर संगम विहार के घर के सेप्टिक टैंक को लिया जा सकता है। सेप्टिक टैंक का आकार 6 हजार लीटर की क्षमता जितना है तो उसमें दो चेम्बर होने चाहिए। सिंह के घर को अगर लें तो यहाँ दो चेम्बर वाला सेप्टिक टैंक बनाने का सवाल ही नहीं उठता है। संगम विहार कल्सटर कॉलोनी है जहाँ घर का भूतल क्षेत्र 21 वर्ग मीटर से अधिक नहीं।
दिल्ली में व्यक्तिगत घरों में 3 हजार से 8 हजार लीटर क्षमता वाले सेप्टिक टैंक हैं। दिल्ली के एनजीओ फाउंडेशन फॉर एनवायरमेंट एंड सेनिटेशन के चेयरमैन पीके झा कहते हैं, ‘दिल्ली के अधिकांश घरों में सिंगल-चेम्बर वाले सेप्टिक टैंक हैं। वे आगे कहते हैं, दिल्ली के मीठापुर और प्रताप विहार में मल को सेप्टिक टैंक से सीधे खुले मैदान में फेंक दिया जाता है।’ सीएसई ने भी पाया कि हर्ष विहार व अन्य क्षेत्रों में ओपन ड्रेन के तर्ज पर सेप्टिक टैंक बनाए गए हैं। यह हालात तब है जब नेशनल बिल्डिंग कोड, 2005 स्पष्ट तौर पर कहता है कि ट्रीटमेंट किये बिना मल को किसी भी सूरत में ओपन चैनल ड्रेन या जलाशयों में नहीं फेंका जा सकता। मैदानगढ़ी और मीठापुर में सीएसई ने पाया कि सेप्टिक टैंक के नाम पर चहबच्चा है जिससे मल को बाहर निकालने की कोई व्यवस्था ही नहीं है। झा बताते हैं कि गरीब घरों में सेप्टिक टैंक के नाम पर स्टोरेज टैंक हैं।
ऐसा माना जाता है कि बीअाईएस मानक को मानने के लिये कानून बना दिया जाये तो हालत बदल जाएँगे लेकिन अागरा में किये गए एक अध्ययन से पता चलता है कि मामला वैसा नहीं है। उत्तर प्रदेश वाटर सप्लाई एंड सीवेज एक्ट 1975 के अनुसार आगरा नगर निगम (Agra Nagar Nigam) के पास अधिकार है कि वह ठीक से सेप्टिक टैंक नहीं बनवाने वाले मकान मालिकों पर जुर्माना ठोंक सकता है। इस अधिकार के बावजूद आगरा में बीअाईएस के मानक को मानते हुए सेप्टिक टैंक नहीं बनवाए जाते हैं और मल खुले ड्रेन से बहते रहते हैं। आगरा में पिट लैट्रिन भी बहुत हैं।
तिरुचिरापल्ली में यही स्थिति है। तमिलनाडु द्वारा 2014 में जारी अधिसूचना में कहा गया था कि मानकों पर खरे नहीं उतरने वाले सेप्टिक टैंकों को तमिलनाडु पब्लिक हेल्थ एक्ट, 1939 के तहत नोटिस जारी किया जाएगा। इसके बावजूद तिरुचिरापल्ली के सेप्टिक टैंक मानदंडों के अनुसार नहीं है।
अध्ययन में यह बात सामने आई है कि कई बार मिस्त्री भी अपने तरीके से सेप्टिक टैंक बना देते हैं जो बीअाईएस मानकों से एकदम अलग होता है। बीकानेर इसका उदाहरण है। राजस्थान के इस शहर में कुई के रूप में कतारबद्ध पिट अर्द्ध पारगम्य और खुले फर्श वाले शौचालय हैं। कुई को ढकने के लिये स्लैब का इस्तेमाल किया जाता है जो 20 से 30 वर्षों में भर जाते हैं। बीकानेर के शहर-ग्राम संधि स्थलों में ऐसी ही व्यवस्था आम है। कुई व्यवस्था वैज्ञानिक नहीं है क्योंकि इसमें खुला फर्श होता है जिससे भूजल प्रदूषित हो सकता है हालांकि सीएसई का मानना है कि बीकानेर जैसे क्षेत्रों में भूजल स्तर काफी नीचे है और कुई से गन्दगी रिसकर भूजल तक नहीं पहुँच सकता है। इस सूरत में अच्छा होगा कि पारम्परिक सेप्टिक टैंक का इस्तेमाल कर मल पदार्थ को ओपन ड्रेन या मैदानों में फेंककर जोखिम उठाने की जगह मल पदार्थ सीधे मिट्टी में डाला जाये ताकि मिट्टी के माइक्रो आर्गनिज्म उसे पचा ले।
कटक और श्रीकाकुुलम जैसे तटीय शहरों में पिट की संख्या सेप्टिक टैंकों से अधिक है। ऐसा इसलिये है कि पिट की डिजाइन यहाँ कंक्रीट रिंग के रूप में बनाई जाती है जिससे यह सस्ता भी होता हैै और इसे आसानी से बन्द और बदला भी जा सकता है।
अधिकांश शहरों में मल पदार्थ के ट्रीटमेंट की व्यवस्था नहीं
सेप्टिक टैंक से निकले मल पदार्थ के ट्रीटमेंट के लिये किसी भी शहर के पास ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। यहाँ तक कि देवास, श्री काकुलम और सोलापुर के पास तो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक नहीं है।
श्रीकाकुलम में निजी क्लीनर मल पदार्थों को शहर के बाहर डम्प कर देते हैं, सूख जाने पर इन पदार्थों का इस्तेमाल किसान खाद के रूप में करते हैं।
सोलापुर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन मल पदार्थों को शहर से 10 से 15 किलोमीटर दूर डम्प यार्ड में फेंक देता है जबकि निजी क्लीनर खुले ड्रेन में इसे फेंक देते हैं। देवास में सीवर लाइन से निकलने वाला गन्दा पानी काली सिंध और शिप्रा नदी में फेंक दिया जाता है जबकि मल पदार्थ को सतही ड्रेन या खेतों में डाला जाता है।
वैसे जिन शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं वहाँ भी सभी मल पदार्थ प्लांट तक नहीं पहुँच पाते हैं क्योंकि कई बार यातायात में खर्च और अधिकांशतः क्लीनरों द्वारा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक जाने में आनाकानी किया जाता है। अाइजौल में क्लीनर मल पदार्थ लेकर टुइरियाल, बेथानी और मुअालपुई जाते हैं और 100 रुपए देकर निजी भूमि पर मल पदार्थ फेंक देते हैं। टुइरियाल में अॉक्सीडेशन तालाब है जहाँ मल पदार्थ कुछ हद तक परिशोधित होता है। बेथानी में फेंके गए मल पदार्थ का इस्तेमाल कृषि के लिये किया जाता है।
सच बात ये है कि देश के अधिकांश सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का इस्तेमाल उसकी क्षमता के मुताबिक नहीं हो पाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 15 राज्यों में फैले 152 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता जितनी है उसका महज 66 प्रतिशत (3,126 मिलियन लीटर प्रतिदिन) ही इस्तेमाल हो रहा है। तिरुचिरापल्ली में 58 मिलियन लीटर प्रतिदिन परिशोधित होता है जो क्षमता से कम है। इसमें सीवेज और मल पदार्थ का भी परिशोधन होता है। आगरा में कुल 9 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं जिनकी क्षमता 221.25 मिलियन लीटर प्रतिदिन है लेकिन 175.75 मिलियन लीटर का ही परिशोधन होता है। अागरा में भी तिरुचिरापल्ली का मॉडल अपनाया जा सकता है। आगरा की तरह ही दिल्ली में भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का इस्तेमाल उसकी क्षमता के अनुसार नहीं हो रहा है जबकि बिना परिशोधित व अर्द्ध परिशोधित सीवेज के लिये यमुना डम्पिंग ग्राउंड बन गया है। वहीं, मल पदार्थ निचले इलाके, खाली प्लाट, जलाशय और खेतों में फेंक दिये जाते हैं।
अोखला के एक निजी गार्ड ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि वह अक्सर देखता है कि यमुना नदीं में टैंकरों में भरकर लाये गए मल पदार्थ गिराए जाते हैं। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में सीवेज का ट्रीटमेंट किया जाता है लेकिन ट्रीटमेंट की गुणवत्ता तयशुदा नियमों के अनुसार नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश के 152 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों में से 48 प्लांट ही बीओडी के मानदंड के अनुरूप हैं जबकि 7 प्लांट सीओडी मानदंड का उल्लंघन करते हैं। इसी वजह से टुमकुर के परिशोधित सीवेज बोमनसांद्रा झील में फेंके जाते हैं जिस वजह से झील में कचरा जमा हो गया है। जहाँ तक रिसाव की बात है तो अाईजौल के सेप्टिक टैंकों में ही सोकअवे की व्यवस्था पाई गई है। कई शहरों में खतरे इसलिये कम हैं क्योंकि यहाँ भूजल स्तर काफी नीचे है।
सुरक्षा उपायों की भी होती है अनदेखी
एक चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत में सेप्टेज प्रबन्धन अवहेलित है। भारत के अधिकांश शहरों में सेप्टिक टैकों को हाथ से ही खाली किया जाता है। सीएसई ने देखा कि आगरा, कटक और आइजौल में हाथों से ही सेप्टिक टैंकों को खाली किया जाता है। ऐसा तब है जब हाथ से मल निकालने की परम्परा को खत्म करने के लिये भारत सरकार ने मैनुअल स्केवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन अॉफ ड्राइ लैट्रिन (प्रोहिबिशन) एक्ट, 1993 को लागू कर दिया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि दिशा-निर्देशों को मानते हुए कितने लोग सेप्टिक टैंक खाली करने के लिये सुरक्षा उपाय अपनाते हैं। बीएसअाई के मानदंडों के अनुसार साल या छमाहे में सेप्टिक टैंक को खाली करवाया जाना चाहिए। मल पदार्थ खाली करते वक्त पूरा पदार्थ न निकालकर कुछ भीतर ही छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि माइक्रोआर्गनिज्म टैंक में मौजूद रहे और वह कचरे को पचा ले। जहाँ तक क्लीनर द्वारा सुरक्षा उपाय अपनाने की बात है तो शहरी विकास मंत्रालय की ओर से जारी किये गए मैनुअल को अपनाते हुए वर्करों को सेफ्टी गेयर, दस्ताना, मास्क, सेफ्टी बेल्ट और जैकेट मुहैया करवाना चाहिए।
इन दिशा-निर्देशों के पालन में 11 शहर कहाँ ठहरते हैंं? दिल्ली में टैंक से मल पदार्थ तभी निकाले जाते हैं जब टैंक जाम हो जाता है या वो ओवरलोड हो जाता है। अाइजौल में टैंकों को तीन वर्षों पर खाली करवाया जाता है कि लेकिन ऐसे भी मामले हैं जिनमें 10 वर्षों से टैंकों को खाली नहीं करवाया गया है। ग्वालियर में भी 3 वर्षों के अन्तराल पर टैक खाली करवाए जाते हैं।
सीएसई के सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली, आगरा, देवास, सोलापुर, कटक, श्रीकाकुलम, बीकानेर, अाइजौल में टैंक खाली करने के लिये सुरक्षा उपाय नहीं अपनाए जाते हैं। इस काम से जुड़े अाइजौल के कर्मचारियों ने कहा कि सुरक्षा उपाय नहीं अपनाने के कारण अभी तक उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या नहीं हुई।
वैक्यूम टैंकर बेहतर विकल्प
भारत में सेप्टिक टैंकों को खाली करवाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों के लिये भी मानदंड/दिशा-निर्देशों की जरूरत है। सबसे अच्छा तरीका है ट्रकों या ट्रैक्टरों पर लदे वैक्यूम टैंकरों का इस्तेमाल। नेशनल सॉलिड वेस्ट एसोसिएशन अॉफ इण्डिया के संस्थापक अमिय कुमार साहूू कहते हैं, ‘निकट भविष्य में ऐसी तकनीकी आएगी जिससे वैक्यूम टैंकर में ही मल पदार्थों को ट्रीट किया जा सकेगा।’ उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। हालांकि इस पर खर्च अधिक होता है जिस कारण सम्भव है कि अधिकतर लोग इस सिस्टम से बिदक जाएँ।
सरकारी सहभागिता से बनेगी बात
अध्ययन में केवल 3 शहर ऐसे मिले जिन्होंने टैंकों को खाली करवाने में शामिल अॉपरेटरों को रेगुलेट करने के लिये कदम उठाया है। अलग-अलग शहरों में मल पदार्थ प्रबन्धन के अध्ययन में पता चलता है कि सरकार की भूमिका बढ़ने से हालात बदल सकते हैं। इस सिलसिले में मध्य प्रदेश के देवास का उदाहरण दिया जा सकता है। यहाँ देवास म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (Dewas Municipal Corporation) टैंकों की सफाई का प्रबन्ध और इसको नियंत्रित करता है। देवास में सेप्टिक टैंक को खाली करवाने के लिये मकान मालिकों को कॉरपोरेएशन को आवेदन देना पड़ता है। क्लीनर एक ट्रिप के लिये 500 रुपए लेता है हालांकि देवास में सेप्टिक टैंकों का आकार बड़ा है इसलिये क्लीनरों को कई ट्रिप लगाने पड़ते हैं। श्रीकाकुलम में प्राइवेट अापरेटर इस काम में लगे हुए हैं। वहाँ अॉपरेटर सुरक्षा उपाय नहीं अपनाते हैं और टैंक खाली करने के लिये 1500 से 2500 रुपए तक लेते हैं। दिल्ली में टैंक खाली करने के 500 से 3 हजार रुपए तक लिये जाते हैं। निजी-सरकारी साझेदारी इसका एक समाधान लगता है। दोनों की साझेदारी से बेहतर काम होगा क्योंकि इससे निजी क्लीनरों का माफिया खत्म होगा और साथ ही उनकी जवाबदेही भी बनेगी। निजी क्लीनर इसके बदले में अनुभवी मानव संसाधन भी मुहैया करवाएगा।
दिल्ली में निजी अॉपरेटर मल पदार्थ अपनी मर्जी से जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं और इसके लिये मकान मालिकों से मनमानी रकम वसूलते हैं। दिल्ली जल बोर्ड हाल ही में इस कारोबार को नियमित करने के लिये सक्रिय हुअा है। वर्ष 2015 के अगस्त महीने में जल बोर्ड ने दिल्ली वाटर बोर्ड एक्ट 1958 के अधीन दिल्ली वाटर बोर्ड सेप्टिक टैंक वेस्ट मैनेजमेंट रेगुलेशन पास करवाया था। इस नियम के मुताबिक, वे निजी क्लीनर ही मल पदार्थ का संग्रह और उन्हें डम्प कर सकते हैं जिनके पास लाइसेंस है। अगर किसी निजी क्लीनर के पास लाइसेंस नहीं है और वह यह काम कर रहा है तो उस पर जुर्माना लगेगा। जुर्माने की राशि तय नहीं की जाती है।
कानून में लाइसेंस मिलने की शर्तें भी तय की गई हैं। कानून में कहा गया है कि उन अॉपरेटरों को ही लाइसेंस दिया जाएगा जिनके पास लीक, ओडोर स्पिल-प्रूव वाहन, वैक्युम और डिस्चार्जिंग उपकरण हो। अॉपरेटरों के पास गैस डिटेक्टर, गैस मास्क, प्रोटेक्टिव गेयर, फर्स्ट एड बॉक्स, अॉक्सीजन मास्क और सिलिंडर भी होना चाहिए। लाइसेंसधारी अॉपरेटर बोर्ड द्वारा तयशुदा जगह पर ही मल पदार्थ फेंक सकते हैं। खाली करने के लिये फीस भी निर्धारित की जाएगी। लोनी बोर्डर पर संचालित क्लीनरों की यूनियन से जुड़े यासीन कहते हैं, ‘यह बहुत कठिन प्रणाली है। हमने लाइसेंस के लिये 4 महीने पहले आवेदन किया लेकिन आवेदन पर प्रक्रिया अब शुरू हुई है।’
तिरुचिरापल्ली में भी नियम बने हैं लेकिन इन नियमों को लागू करने में ढिलाई है। इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता कृष्ण चैतन्य राव का सुझाव है कि शहरों के नगर निकाय को नियमित तौर पर सेप्टिक टैंक की सफाई के लिये नियम बनाना चाहिए और निजी क्लीनरों को इस काम में लगाने के लिये निविदा और कॉल सेंटर आधारित मॉडल अपना कर प्रक्रिया को कारगर करना चाहिए। राव कहते हैं, ‘इससे घरों को फायदा होगा क्योंकि इन्हें कम खर्च पर बेहतर सेवा मिलेगी, निकाय टैरिफ और मल पदार्थ को ठिकाने लगाने पर नियंत्रण कर सकता है, निकाय को इससे फायदा मिलेगा वहीं, निजी क्लीनरों को फायदा ये होगा कि बाजार तक उनकी सीधे पहुँच होगी और वे औपचारिक सेक्टर का हिस्सा होंगे।’
मल पदार्थों का परिशोधन
मल पदार्थों से होने वाले संक्रमण को रोकने के लिये सेप्टिक टैंक से निकाले गए मल पदार्थ का पहले परिशोधन किया जाये और पर्यावरण (रक्षा) अधिनियम 1986 के मानदंड के आधार पर उसे ठिकाने लगाया जाये या ट्रीटमेंट प्रणाली के तहत ईंधन के रूप में, सॉलय कंडिशनर या फिलिंग मटीरियल के रूप में इस्तेमाल किया जाये। मगर सच ये है कि अधिकतर मामलों में सेप्टिक टैंक से संग्रह किये गए मल पदार्थों को नदी में फेंका जाता है, ड्रेन व सीवर्स में डाला जाता है या फिर बिना ट्रीट किये ही उसे खेतों या निचले क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है। मल पदार्थों का बहुत छोटा भाग सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुँचता हैं लेकिन होना चाहिए इसका उल्टा।
सेप्टिक टैंक से निकाले गए मल पदार्थों में ठोस व सस्पेंडेड सॉलिड, बॉयोलॉजिकल अॉक्सीजन डिमांड (बीओडी), केमिकल अॉक्सीजन डिमांड (सीओडी), नाइट्रोजन और पोटैशियम की अधिकता होती है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की डिजाइन ऐसी नहीं है कि इन तत्वों का परिशोधन किया जा सके। सीएसई से जुड़े लुथरा ने कहा, ‘सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट में मल पदार्थ का ट्रीटमेंट केवल अन्तरिम समाधान है।’
जैविक खाद के रूप में हो सकता है इस्तेमाल
मल पदार्थों का इस्तेमाल जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है। परिशोधित मल पदार्थ के खेतों में इस्तेमाल को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन) का सुझाव है कि मल में कॉलिफार्म की मात्रा कुल सूखे ठोस के अनुपात में 1000 मोस्ट प्रोबेबल नम्बर (एमपीएन) प्रति ग्राम होना चाहिए। सलमोनेला का घनत्व प्रति चार ग्राम में 3 एमपीएन से कम और ई कोली का घनत्व प्रति ग्राम 1 हजार एमपीएन होना चाहिए। नेशनल सॉलिड वेस्ट एसोसिएशन अॉफ इण्डिया के साहू कहते हैं, ‘इस सम्बन्ध में किया यह जा सकता है कि मल पदार्थ को सूखने के लिये धूप में छोड़ दिया जा सकता है।’ उन्होंने कहा कि मल पदार्थ को कच्चे रूप में खाद के रूप में इस्तेमाल को कभी बढ़ावा नहीं दिया गया।
अली शेर कर रहे हैं जैविक खाद के रूप में प्रयोग
राजधानी दिल्ली से महज 5 किलोमीटर दूर रह रहे अली शेर अपने फॉर्म में कच्चे मल पदार्थों का इस्तेमाल जैविक खाद के रूप में कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वे आज इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। वे लम्बे समय से मल पदार्थ का इस्तेमाल खाद के रूप में कर रहे हैं। अली शेर कहते हैं, ‘मैं वर्षों से अपने खेतों में मल पदार्थ का इस्तेमाल खाद के रूप में कर रहा हूँ। अली शेर अपने फॉर्म में गेहूूँ व अन्य फसल तथा आलू व दूसरे तरह की सब्जियाँ उगाते हैं।’
वे कहते हैं, ‘मल पदार्थ काफी नहीं है और इसलिये मुझे खेत में यूरिया भी डालना पड़ता है लेकिन मल पदार्थ मुझे निःशुल्क मिलता है। कभी-कभी मुझे इसके लिये रुपए भी चुकाने पड़ते हैं।’
स्वच्छता के उपाय
भारत में सेप्टिक टैंक की व्यवस्था छोड़ी नहीं जा सकती है। मल पदार्थों के प्रबन्धन में खामियों को दूर कर इसे बेहतर किया जा सकता है। इस सिलसिले में टैंक का निर्माण करने वाले मिस्त्री को डिजाइन और निर्माण के सम्बन्ध में प्रशिक्षित किया जा सकता है। इसके बाद निजी क्लीनरों का नियमन भी बहुत जरूरी है। निजी और सार्वजनिक साझेदारी से यह सम्भव है। इस सझेदारी से घरों को बेहतर सेवा मिलेगी, नगर निकाय इस पर नियंत्रण रख सकेंगे और निजी क्लीनर को बाजार तक पहुँच बनेगी और उन्हें रोजगार मिलेगा।
जहाँ तक इन्हें सुरक्षित ढंग से ठिकाने लगाने की बात है तो इस सम्बन्ध में सीएसई के अरबन वाटर मैनेजमेंट के प्रोग्राम डायरेक्टर सुरेश कुमार रोहिल्ला कहते हैं, ‘वेस्टवाटर ट्रीटमेंट सिस्टम को विकेन्द्रित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस तरह की व्यवस्था का इस्तेमाल घरों, स्कूलों और कॉलोनियों में किया जाना चाहिए।
रोहिल्ला इस सम्बन्ध में पुडुचेरी के अभिषेकपक्कम में स्थित अरविंद अाई केयर अस्पताल का उदाहरण देते हैं जिसने 2003 में ही विकेन्द्रित व्यवस्था को अपनाया। अस्पताल ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि यहाँ बागवानी के लिये पानी की अधिक जरूरत थी। यहाँ प्राथमिक परिशोधन की व्यवस्था इम्प्रूव्ड सेप्टिक टैंक की तरह ही है जिसे अनएरोबिक बेफल्ड रिएक्टर कहा जाता है। मूलतः यह कई चेम्बरों वाला सेप्टिक टैंक है जिसके आखिरी कुछ चेम्बरों में फिल्टर लगा होता है। इसमें फिल्टर मीडिया से जुड़े माइक्रोआर्गनिज्म मल पदार्थ को परिशोधित करते हैं।
दूूसरे स्तर में ग्रावेल फिल्टर बेड की मदद से परिशोधन किया जाता है। इस व्यवस्था में गन्दे पानी से नाइट्रेट और फास्फेट सोख लिया जाता है और इसमें अॉक्सीजन डाला जाता है। इससे नाइट्रेट, फास्फेट और बीओडी में 50 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। तीसरे स्तर पर पॉलिशिंग तालाब की मदद से पानी से बाकी की गन्दगी खत्म की जाती है। पालिशिंग तालाब छिछलादार तालाब होते हैं। अल्ट्रावायलेटेड रोशनी इस तालाब के गहरी जाती हैं और गन्दे पानी से बाकी नाइट्रोजन को खत्म करती हैं। इस सिस्टम के जरिए अरविंद अाई केयर अस्पताल रोज 270 से 300 किलोलीटर गन्दे पानी को साफ करता है।
मध्य प्रदेश के उज्जैन की रवींद्रनगर कॉलोनी के लोगों ने रीड बेड तैयार किया है जिसके जरिए 13 किलोलीटर गन्दे पानी को परिशोधित किया जाता है।
जहाँ सामुदायिक समाधान सम्भव नहीं है उन शहरों में गन्दे पानी के परिशोधन के लिये पृथक ट्रीटमेंट प्लांट की जरूरत है। इस तरह के प्लांट स्थापित किये जा सकते हैं और परिशोधन के एवज में फीस लेकर इनका रख-रखाव किया जा सकता है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि शहरों को चाहिए कि वह परिशोधित मल पदार्थ का पुनःइस्तेमाल करे। झा कहते हैं, पदार्थ शत-प्रतिशत जैविक है। अगर इसे सीवर लाइन में डाला जाएगा तो इसमें जहरीला तत्व मिल जाएगा जिससे इसका पुनःइस्तेमाल नहीं हो सकेगा। सिनिगल के डकर में स्थित जनिकी बायोइनर्जी ओम्नी प्रोसेसर पुनः इस्तेमाल का सबसे बेहतरीन उदाहरण है। इस प्रोसेसर की फंडिंग बिल एंड मीलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने की है। यह प्रोसेसर शहर के एक तिहाई मल पदार्थ को बिजली, राख और यहाँ तक कि पीने के पानी में तब्दील कर देता है।’ बताया जाता है कि 12.3 क्यूबिक मीटर मल पदार्थ से रोज 10,800 लीटर स्वच्छ पानी तैयार किया जाता है। भौगोलिक स्थिति, शहरीकरण के स्तर, जनसंख्या, जमीन की उपलब्धता, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की मौजूदगी और आवासीय क्षेत्रों की निकटता के आधार पर शहर इस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था का संयुक्त रूप से इस्तेमाल कर सकते हैं। इसकी शुरुअात मल पदार्थ के प्रबन्धन के प्लान के साथ किया जा सकता है।
शिट फ्लो डायग्राम प्रमोशन पहल के तहत सीएसई ने 11 शहरों के मल पदार्थ कहाँ जाते हैं, इसकी पड़ताल की। इस पड़ताल में कुछ शहरों से चौंकाने वाले तथ्य मिले। श्रीकाकुलम का केस लिया जाये तो वहाँ किसी भी तरह के वर्ज्य पदार्थ का सुरक्षित प्रबन्धन नहीं किया जाता है। यहाँ सीवेज और मल पदार्थों के परिशोधन की सुविधा नहीं है।
श्रीकाकुलम में मल पदार्थ व अन्य वर्ज्य पदार्थ बिना परिशोधित किये ही निजी भूूमि, कृषि भूमि और नगावती नदी में फेंक दिये जाते हैं। सोलापुर में स्थिति कुछ बेहतर दिखी। यहाँ जितनी गन्दगी निकलती है उसके 2 प्रतिशत हिस्से का सुरक्षित परिशोधन किया जाता है।
अाइजौल में मल पदार्थ के प्रबन्धन को लेकर अच्छी व्यवस्था दिखी। यहाँ सेप्टिक टैंक सोक पिट सेे जुड़े हुए थे ताकि गन्दगी को सुरक्षित ठिकाने लगा दिया जाये। अध्ययन के अनुसार 11 शहरों में महज 3 शहरों ने ही मल पदार्थ को सेप्टिक टैंक से निकालने की व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिये कदम उठाए। जहाँ तक मल पदार्थों को दूसरे स्थान पर पहुँचाने, उसके ट्रीटमेंट और ठिकाने लगाने की बात है तो नियमों को अपनाना अनिवार्य है कि नहीं इसमें स्पष्टता नहीं है। सभी 11 शहरों में से किसी भी शहर में मल पदार्थ के परिशोधन के लिये पृथक प्लांट नहीं है। जिन शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है वहाँ मल पदार्थों का प्राथमिक प्रबन्धन भी नहीं हो सकता है। श्रीकाकुुलम, सोलापुर और देवास में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक नहीं है।
ये तकनीके होंगी कारगर?
विशेषज्ञोंं का कहना है कि कई नई तकनीक हैं जिनके बारे में बहुत कम बताया गया है। इन तकनीकों के जरिए मल पदार्थों को परिशोधित और उसका पुनः इस्तेमाल किया जा सकता है। इस सिलसिले में पहला कदम होगा शौचालय से मल पदार्थ निकालकर खुले में फेंकने पर नियंत्रण लगाना। वैसे जब हम अॉन-साइट सेनिटेशन व्यवस्था की बात करते हैं तो हमारे जहन में सबसे पहले सेप्टिक टैंक की बात आती है। उद्यमियों ने बायो डाइजेस्टर के रूप में इसका एक और समाधान दिया है। बायो-डाइजेस्टर एक मेकैनिकल स्टमक है जिसमें माइक्रो आर्गनिज्म मल पदार्थों को बायोगैस और दूसरे तत्वों में बदल देता है जिनका इस्तेमाल खाद के रूप में किया जा सकता है।
बायो-डाइजेस्टर बनाने वाली कम्पनी अर्किन क्रिएशंस प्राइवेट लिमिटेड के प्रबन्ध निदेशक मनोज झा ने कहा, ‘बायो डाइजेस्टर न केवल सेप्टिक टैंक से ज्यादा प्रभावी है बल्कि यह सस्ता भी है। झा ने कहा कि बायो डाइजेस्टर मल पदार्थों को 90 प्रतिशत तक गला देता है जबकि सेप्टिक टैंकों में महज 40 प्रतिशत ही गलता है। सेप्टिक टैंक से हाइड्रोजन सल्फाइड का जबकि बायो-डाइजेस्टर से मिथेन और कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। बायो डाइजेस्टर में 99 प्रतिशत रोगाणुओं को निष्क्रिय कर दिया जाता है लेकिन सेप्टिक टैंक में यह प्रतिशत बेहद कम होता है। बायो डाइजेस्टर का आकार सेप्टिक टैंक का आधा होता है अतः इसके निर्माण में खर्च भी सेप्टिक टैंक की तुलना में आधा होता है।’ झा ने आगे कहा, ‘बायो डाइजेस्टर से निकलने वाले गन्दे पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड और टोटल सस्पेंडेड सॉलिड की मात्रा सेप्टिक टैंक की अपेक्षा कम होती है।’
परिशोधन के नए विकल्प
विशेषज्ञों का कहना है कि वर्मी-फिल्ट्रेशन मल पदार्थों के परिशोधन की अच्छी और दीर्घकालिक तकनीक है। यह तकनीक केंचुए और माइक्रोअॉर्गनिज्म के बीच सहजीवी सम्बन्धों पर आधारित है। माइक्रोअॉर्गनिज्म जहाँ मल पदार्थों के बायोकेमिकल असर को कम करता है वहीं केंचुए गन्दे पानी से खतरनाक पैथोजेन्स को हटाते हैं। बी लाल इंस्टीट्यूट अॉफ बायोटेक्नोलॉजी की विज्ञानी सुदीप्ति अरोड़ा कहती हैं, ‘वर्मी-फिल्ट्रेशन में हर तरह का परिशोधन होता है। पहले स्तर में सिल्ट और ग्रिट को हटाया जाता है। दूसरे स्तर में यह जैविक तत्वों को हटाता है और तीसरे स्तर में संक्रमण और पैथोजन को हटाता है। वर्मी फिल्टर में गन्दा पानी टैंक से फिल्टर में पहुँचता है। इसमें कई फिल्टर होते हैं जिनमें कंकर, बालू आदि होते हैं। इस फिल्टर से निकलने वाला पानी पार्क, गार्डन और खेतों में सिंचाई और मल पदार्थ का इस्तेमाल खाद के रूप में किया जा सकता है। इस फिल्टर के रख-रखाव में खर्च 80 प्रतिशत से कम होता है क्योंकि अॉक्सीजन पम्प की जरूरत नहीं पड़ती है।’
अाईअाईटी रुड़की समेत अन्य संस्थानों में इस तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। रुड़की में पायलट स्केल पर घरेलू गन्दा पानी और नगर निगम के वर्ज्य पदार्थों का परिशोधन किया जा रहा है। इस तकनीक में बीओडी में 90 प्रतिशत तक की कमी और सीओडी में 80 प्रतिशत तक की कमी देखी गई। पैथोजन और अमोनिया में भी गिरावट दर्ज की गई। हालांकि नाइट्रेट और फॉस्फेट की मात्रा अधिक थी जो अपेक्षित है। वर्मी फिल्ट्रेशन को लागू करने की सबसे बड़ी चुनौती केंचुए पर निर्भरता को सुनिश्चित करना होगा क्योंकि केंचुए तापमान, पीएच लेवल और आर्द्रता पर निर्भर हैं। फिल्टर बेड से केंचुए को अलग करना उबाऊ प्रक्रिया है।
ऐसे भी हो सकता है पुनः इस्तेमाल
पुनः इस्तेमाल के नए विकल्पों में मल पदार्थों से बायोडीजल को निकालना शामिल है। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कार्तिक चन्द्रन और उनकी टीम ने एक पायलट रिसर्च प्रोग्राम शुरू किया है ताकि इस लक्ष्य को हासिल किया जा सके।
इस प्रोग्राम को कुमासी, घाना में लागू किया गया और कोलम्बिया विश्वविद्यालय में इस तकनीकी को और बेहतर बनाया गया।
बायोडीजल वसा (Lipids) और मेथनॉल में रासायनिक प्रक्रिया से बनता है। एक व्यस्क व्यक्ति के मल में 7 से 10 प्रतिशत तक वसा होती है। चंद्रन कहते हैं, ‘इसलिये हमने मल के जैविक हिस्से को बायोडीजल में तब्दील करने का विचार किया। उन्होंने आगाह किया कि मल पदार्थों के पुनः इस्तेमाल के लिये उससे बायोडीजल का उत्पादन एक अच्छा विचार है लेकिन मौजूदा ऊर्जा उद्योग के उत्पादन से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है।’