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प्रदेश के विकास के लिये औद्योगिकीकरण को बहुत जरूरी और रोजगार पैदा करने वाला माना जाता है। एक हद तक यह ठीक भी है, परन्तु यदि औद्योगिकीकरण हमारे वातावरण, नदियों और भूजल को ही प्रदूषित कर दे तो बहुत सा रोजगार छिन भी जाता है। यहाँ रहने के हालात कठिन हो जाते हैं। बीमारियों की भरमार हो जाती है। टिकाऊ विकास की व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। ऐसा विकास थोड़े समय का तमाशा बनकर रह जाता है। इसलिये औद्योगीकरण के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिये प्रदूषण नियंत्रण के कई उपाय करना जरूरी हो जाता है। हिमाचल की नदियों पर देश के विभिन्न राज्यों के पर्यावरण का जिम्मा है। पड़ोसी राज्य तो सीधे तौर पर इनका पानी इस्तेमाल करते हैं, जबकि अन्य राज्यों की बिजली की जरूरत इन्हीं नदियों से पूरी होती है। कार्बन क्रेडिट की लड़ाई में भी हिमाचल की नदियाँ उत्तर भारत में प्रमुख योगदान देती हैं। लम्बे समय से ये नदियाँ प्रदूषित होती जा रही हैं। प्रदूषण का यह स्तर औद्योगिक विकास के बाद ज्यादा है।
हिमाचल प्रदेश में औद्योगिकीकरण के अपने फायदे और नुकसान हैं। हालांकि इससे कुछ रोजगार तो खड़े हुए, परन्तु नदियों और वायु प्रदूषण के रूप में हमें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है। जो रोजगार खड़े भी हुए, उनमें ज्यादातर अकुशल मजदूरी के अस्थायी रोजगार ही हिमाचल के हिस्से आये। ऊपर से 70 प्रतिशत रोजगार हिमाचलियों को देने का वादा भी पूरा नहीं हो सका। नदियों के प्रदूषण से न सिर्फ जल प्रदूषित हुआ, बल्कि पारम्परिक रोजगार भी छिन गए।
स्थानीय समुदायों के लिये स्वास्थ्य की चुनौतियाँ भी बढ़ीं। सिरसा नदी इसकी एक बानगी है। सिरसा नदी हरियाणा के जिला पंचकूला के कालका के आसपास के क्षेत्रों से निकल कर उत्तर-पश्चिम की ओर बहते हुए बद्दी में हिमाचल में प्रवेश करती है। बद्दी, बरोटीवाला, नालागढ़, जो हिमाचल प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र है, से गुजरते हुए यह पंजाब में प्रवेश करती है और रोपड़ के पास यह सतलुज नदी में मिल जाती है। बाहरी शिवालिक क्षेत्र में बहने के कारण यह बहुविध पारिस्थितिकीय भूमिका निभाती है।
प्रदेश के विकास के लिये औद्योगिकीकरण को बहुत जरूरी और रोजगार पैदा करने वाला माना जाता है। एक हद तक यह ठीक भी है, परन्तु यदि औद्योगिकीकरण हमारे वातावरण, नदियों और भूजल को ही प्रदूषित कर दे तो बहुत सा रोजगार छिन भी जाता है।
यहाँ रहने के हालात कठिन हो जाते हैं। बीमारियों की भरमार हो जाती है। टिकाऊ विकास की व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। ऐसा विकास थोड़े समय का तमाशा बनकर रह जाता है। इसलिये औद्योगीकरण के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिये प्रदूषण नियंत्रण के कई उपाय करना जरूरी हो जाता है, जिसके लिये राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के माध्यम से मार्गदर्शिका जारी की जाती है। उद्योगों की गतिविधियों की निगरानी और अनुश्रवण की विभिन्न व्यवस्थाएँ खड़ी की जाती हैं।
औद्योगिक वर्ग लाभ कमाने के लालच में कई बहुत जरूरी सावधानियों की जानबूझकर अनदेखी कर जाता है, जिससे जनसामान्य के हितों और पर्यावरण की नाजुक व्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ता है। नदी और भूजल व्यवस्थाएँ इसका शिकार हो जाती हैं। वायु प्रदूषण भी एक बड़ा खतरा बनकर उभरता है। प्रदूषित वायु के भी कुछ अंश बारिश में घुलकर नदियों और जलस्रोतों में मिल जाते हैं और उन्हें भी प्रदूषित कर देते हैं।
बीबीएन क्षेत्र भी इन विसंगतियों से अछूता नहीं है। इसका सबसे बड़ा शिकार सिरसा नदी हुई है। सिरसा नदी की सहायक खड्डे, बलद, चिकनी खड्ड, छोटा काफ्ता नाला, पल्ला नाला, जटा वाला नाला और संधोली खड्ड हैं। इन खड्डों का भी हाल औद्योगिक प्रदूषण के चलते खराब हो चुका है।
बीबीएन क्षेत्र लगभग 3500 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसमें लगभग 2063 उद्योग हैं। इनमें से 176 लाल श्रेणी के, 779 सन्तरी श्रेणी के और 1108 हरी श्रेणी के हैं। इन उद्योगों द्वारा खतरनाक कचरे को यहाँ-वहाँ अपनी सहूलियत के अनुसार नदियों में डाल दिया जाता है, जिसके कारण कई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
इनका सम्मिलित प्रभाव कृषि, पशुपालन, जलीय जैव विविधता, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर पड़ना स्वाभाविक ही है। प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की पर्यावरणीय गाइड लाइन को लागू करने के सामर्थ्य पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है। नदी और उसकी सहायक खड्डों में प्रदूषित पानी छोड़ने के साथ कुछ उद्योगों द्वारा प्रदूषित जल को जमीन के भीतर इंजेक्ट करने की भी सूचनाएँ हैं।
60 फीसदी उद्योगों में जल उपचार प्लांट ही नहीं लगे हैं। बघेरी क्षेत्र में हवा में पारे, लेड, और कैडमियम की मात्रा सामान्य स्तर से काफी ज्यादा है। बारिश में घुलकर पारा नदी जल और भूजल में पहुँच जाता है। शरीर में पहुँच कर पारा मिथाइल पारे में बदल जाता है। यह शरीर में मस्तिष्क, हृदय, फेफड़े और गुर्दे को नुकसान पहुँचाता है और रोगरोधी व्यवस्था को भी प्रभावित करता है।
नदियों के किनारे एक्सपायर दवाइयों की और अन्य खतरनाक ठोस कचरे की डम्पिंग आम बात है। यह खतरनाक अपशिष्ट नियम, 2006 का उल्लंघन है।
क्रशर उद्योग बेलगाम
क्रशर उद्योग के लिये सिरसा नदी और उसकी सहायक खड्डें बुरी तरह से खनन का शिकार हो चुकी हैं।
ज्यादातर खनन अवैध है। नदी खनन से प्राप्त रेत, बजरी, पत्थर का प्रयोग हिमाचल और सीमा से सटे पंजाब के क्रशरों में भी अवैध रूप से होता है। खनन माफिया से स्थानीय राजनीतिज्ञों के तार भी जुड़े हो सकते हैं। इसीलिये उनके हौसले इस कद्र बढ़े हुए हैं कि कुछ समय पहले अवैध खनन पर छापा मारने वाले तहसीलदार पर ही तलवारों से हमला हो गया था।
स्थिति की गम्भीरता को समझा जाना चाहिए। सरकार, प्रबुद्ध नागरिक और स्वयं औद्योगिक उद्यमी ही मिलकर रास्ता निकाल सकते हैं। अनुमान लगाएँ कि जब जीवनदायी नदियाँ ही विषैली हो जाएँगी तो जीवन कैसे चलेगा? यह राष्ट्रीय सुरक्षा के समान जरूरी मामला है।