अवगाहन

Submitted by admin on Sun, 09/29/2013 - 13:25
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काव्य संचय- (कविता नदी)
वह मेरा सहजन!
हाय! वह मेरा सखा!
आज नदी में उतरता है।

उसने सब कपड़े उतारकर
किनार पर फेंक दिए,
यह सोचे बिना कि कार्तिक में कितनी ठंड होती है,
सुबह-सुबह नहाने की ठान ली।
पैनी हवाओं ने
जब उसके जिस्मको झिंझोड़ा,
तो उसने एक कदम थोड़ा पीछे हटकर उठाया।
अब वह फिर दूसरा कदम आगे धरता है।
लो, अब वह नदी में उतरता है।

माना उसके मन की तरह है यह नदी,
उसने इस बालू में घरौंदे बनाए हैं,
लहरों पर लिखे हैं किलोलों के दृश्य,
कई बार नाव लेकर गया है उस पार,
किंतु अधिक लग रहा है विस्तार आज कोहरे में
तट की परछाईं
एक मगरमच्छ की तरह उभर आई।
वह खुद अपरिचित की भाँति
आज परिचित से डरता है।
लेकन वह नदी में उतरता है।
उसे पता है-कहाँ भँवर हैं जल में
कहाँ गहरा है,
शंख और सीपियाँ कहाँ हैं?
लेकिन वह धारा में खोया खड़ा है!
शायद वह मना रहा है-कोई आए,
उसके हाथों से फिसल रहे बालू-कण देखे,
उसके तलुओं से दबी हुई सीपियाँ उठाए,
उनमें झाँके-
उनसे मोती निकाले,
डूबते हुए का साक्ष्य बनकर सुख पाए।
हाय! पानी में कैसी छलल-छलल होती है,
जब कोई डूबकर मरता है!
देखो, वह नदी में उतरता है।

अरे-उसे रोको-वह गिरा!
अभी खड़े-खड़े पानी पर फिसल गया।
मुझे पता है, उसे तैरना नहीं आता,
देखो, वह दृश्य की सीमा से आगे-
बहुत आगे-
अदृश्य तक निकल गया! आह!
मैं तो यहाँ तक कभी आया नहीं हूँ।
मैने यहां तक कभी सोचा नहीं है।
उसने कब तिरना सीखा लिया!
वह कैसे धारा में अनायास डुबकियाँ लगाता है,
डूबकर उभरता है।
वह देखो, नदी पार करता है।