बाढ़, भूस्खलन और तबाही

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नैनीताल समाचार, 15 अगस्त 1983

उत्तराखंड के हृदय, गढ़वाल की तत्कालीन राजधानी श्रीनगर के प्रत्येक मकान को भूचाल से भारी क्षति पहुँची, मुख्य राजपथ के दोनों ओर के मकानों में से 80 प्रतिशत इतने ध्वस्त हो गये कि मानव निवास के योग्य नहीं रहे। राजप्रासाद के कुछ भाग सर्वथा नष्ट हो गये और अनेक इतने जर्जर कि उनके पास तक पहुँचना खतरनाक हो गया। राज्य में अन्यत्र भी ऊँचे मकानों को क्षति पहुँची जन, धन एवं पशुओं की अपार हानि हुई। सारे राज्य में घोर अव्यवस्था छा गई। स्थान-स्थान पर खेत व गाँव नष्ट हो गये। सारे राज्य में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस भूकम्प के झटके कलकत्ता तक पहुँचे थे।

23 जुलाई 1983 को अल्मोड़ा जिले के दूरस्थ एवं पिछड़े हुए क्षेत्र मल्ला दानपुर के एक गाँव ‘कर्मी’ में हुई दुर्घटना हिमालय क्षेत्र के लिए नये तरह की घटना नहीं है। अपने जन्म से ही हिमालय मनुष्य के खिलाफ बगावत छेड़ता रहा है, जैसे-जैसे मनुष्य द्वारा उसके साथ विकृत छेड़छाड़ की जाती रही है, वैसे-वैसे हिमालय क्षेत्र का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है, मध्य हिमालयी क्षेत्र में अवस्थित उत्तराखंड में पिछले लगभग 180 वर्षों के ज्ञात इतिहास में अनेक प्राकृतिक आपदाओं से यहाँ के वासियों को जूझना पड़ता रहा है।

1803


भादों की अनन्त चतुर्दशी, बृहस्पतिवार 8 सितम्बर 1803 की रात्रि 1 बजकर 30 मिनट पर गढ़ राज्य में भूचाल के भीषण झटके आए। इस भूकम्प के झटके सात दिन व सात रात आते रहे। कुमाऊँ की अपेक्षा गढ़वाल पर इनका प्रहार अधिक तीव्र था। उत्तराखंड के हृदय, गढ़वाल की तत्कालीन राजधानी श्रीनगर के प्रत्येक मकान को भूचाल से भारी क्षति पहुँची, मुख्य राजपथ के दोनों ओर के मकानों में से 80 प्रतिशत इतने ध्वस्त हो गये कि मानव निवास के योग्य नहीं रहे। राजप्रासाद के कुछ भाग सर्वथा नष्ट हो गये और अनेक इतने जर्जर कि उनके पास तक पहुँचना खतरनाक हो गया। राज्य में अन्यत्र भी ऊँचे मकानों को क्षति पहुँची जन, धन एवं पशुओं की अपार हानि हुई। सारे राज्य में घोर अव्यवस्था छा गई। स्थान-स्थान पर खेत व गाँव नष्ट हो गये। सारे राज्य में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस भूकम्प के झटके कलकत्ता तक पहुँचे थे।

गढ़वाल में उस समय प्रद्युम्न शाह का शासन था। उसके भाई पराक्रम शाह ने राज्य हड़पने के उद्देश्य से प्रद्युम्न शाह के राजभक्तों रामा व धरणी खण्डूरी की 1803 ई. में हत्या करवा दी। जनसाधारण का विश्वास था कि श्रीनगर में भूचाल निरपराध ब्रह्मणों की हत्या के कारण ही आया है। गढ़राजवंश काव्य में वर्णन हैः-

“कुंवर पराक्रम तंत्र करि रामा दिया मराय
धरणी लीन्यो पकरि के सो वो दया कटाय
रामा धरणी दोनों मारे, श्रीनगर महि तब पग धारे
साठ साल भूकम्प हि आयो, सहर बजार महल सब ढायो
भार पाप को बढ़यो महा ही, प्रजा पीड़न ब्रह्म हत्या ही मरे हजारों
गढ़ के माहि...”


1880


19 सितम्बर 1880, रविवार प्रातः 10 बजे पर्यटकों के स्वर्ग नैनीताल नगर को भयंकर भूस्खलन का सामना करना पड़ा था, यह भूस्खलन उत्तराखंड में आज तक के सभी भूस्खलनों से अधिक जानलेवा सिद्ध हुआ। सम्पत्ति, मकानों के अथाह विनाश के साथ-साथ 151 जानें गयीं। मरने वालों में 43 यूरोपियन थे, विक्टोरिया होटल, एसेम्बली कक्ष, एक मंदिर, धर्मशाला पूरी तरह मलवे से ध्वस्त हो गये। भूस्खलन का मलवा ताल के पश्चिमी हिस्से में भर गया और ‘फ्लैट्स’ का निर्माण हुआ।

मि. रोज एच. चैरी, जो घटनास्थल से केवल 20 यार्ड की दूरी पर थे, कहते हैं एक जबर्दस्त धमाका हुआ जो तेज आवाज के कौव्वों के चीखने सरीखा था। पेड़ तेज आवाज से सरसराते हुए गिरने लगे और पहाड़ मलवे के रूप में भरभरा कर विक्टोरिया होटल की ढलान की ओर बढ़ने लगा। होटल टूटा नहीं बल्कि अपनी नींव सहित मलवे के साथ खिसकता चला गया। इसकी छत ऊपर-नीचे होकर उखड़ गयी। वैल्स की दुकान टूटने से धूल का गुब्बार सा उठा। यह मेरा अनुमान है कि पहाड़ के टूटने और मलवे के झील तक पहुँचने में आठ सेकेन्ड से अधिक समय नहीं लगा।

एक भंयकर गड़गड़ाहट जो कि बहुत बड़े भूखण्ड के गिर जाने के कारण हुई, स्टेशन पर बहुत लोगों द्वारा सुनी गयी। जिस किसी को उस गड़गड़ाहटनुमा धमाके की दिशा में तुरंत देखने का अवसर मिल गया, वह एक बहुत बड़े धूल के बादल का उठना घटनास्थल से साफ देख सकता था। हुआ यह था कि अपर माल से पहाड़ी का एक बड़ा हिस्सा होटल के पीछे से बहुत तेजी से विनाश करता हुआ नीचे को आया था। जिसने होटल, अर्दली कक्ष, वेल्स की दुकान और एसेम्बली कक्ष को एक रौखड़ में बदल दिया था।

1893

1893 का वर्ष एक और विनाशकारी आपदा का कारण बना। चमोली जिले में अलकनंदा और उसकी एक सहायक नदी बिरही के संगम से 19 किमी. ऊपर बिरही की एक संकरी घाटी में एक विशाल चट्टान के टूट कर गिर जाने से बिरही का प्रवाह अवरूद्ध हो गया जिसके फलस्वरूप कुँवारी पर्वत से निकलने वाली बिरही व उसकी तीन अन्य सहायक नदियों का पानी बिरही की गहरी घाटी में भरता चला गया और उसका जलस्तर 900 गज ऊपर उठ गया। एक वर्ष बाद 25 अगस्त 1893 की रात्रि को झील (जिसे गौना ताल कहा जाता था) फूट पड़ी और 26 अगस्त को भारी विनाश ढाती हुई ऐतिहासिक नगर श्रीनगर व अलकनंदा घाटी के अन्य कई स्थानों को लीलती हुई हरिद्वार तक अपना भीषण प्रभाव छोड़ गयी, यद्यपि झील अभी भी बनी हुई थी और उसका जलस्तर अभी भी 390 फीट के लगभग बना हुआ था।

22 अगस्त 1893 को लैफ्टिनेंट क्रुक शैंक जो कि वहाँ पर सहायक अभियन्ता नियुक्त था, ने अपने छोटे ट्रांसमीटर सैट से सूचना भेजी कि 48 घंटे के अन्दर बाढ़ आ सकती है। तमाम नदी के किनारे की बस्तियां खाली करवा दी गयीं। 25 अगस्त की सुबह पानी झील के अवरोध में दरार बनाता हुआ बाहर निकलने लगा। धीरे-धीरे दरार का आकार बढ़ने लगा और आधी रात को अवरोध का एक हिस्सा तेज आवाज के साथ टूटा। 26 अगस्त की सुबह विनाश का ताण्डव पूरी अलकनंदा घाटी में देखा जा सकता थ। झील पूरी तरह साफ नहीं हुई। उसका जलस्तर घट कर 390 फीट रह गया और कुल 10 अरब क्यूबिक फीट पानी झील से बह गया। पूरे हादसे की पूर्व सूचना मिल जाने के कारण कोई जान नहीं गयी, एक फकीर और उसके परिवार के सिवा, जो बाढ़ झील के अवरोध के निकट एक भूस्खलन में दब गये थे।

1967


नानक सागर बाँध नैनीताल जनपद की तराई में जून 1962 में बनकर तैयार हुआ था। देवहा नदी पर 2.25 करोड़ रुपये की लागत से बने हुए इस बाँध का क्षेत्रफल 18.2 वर्ग मील और जल सम्भरण क्षमता 1,70,000 एकड़ फीट एवं पूर्ण जलस्तर समुद्र तल से 706 फीट था।

8 सितम्बर 1967 की प्रातः 2 बजे इस बाँध की नानकमत्ता गुरुद्वारे की तरफ वाली दीवार, जिसमें पिछले तीन दिनों से दरार आ गयी थी, टूट गयी और बाँध का पानी भीषण तबाही मचाता हुआ नैनीताल जिले के 35 गाँवों में विनाश रचा गया। सरकारी अनुमान से मृतकों की संख्या 50 बतायी गयी, जबकि गैर-सरकारी अनुमान इस संख्या को 1000 तक बताता है।

बाद में 12 सितम्बर 1967 की सायं तक कुमाऊँ व रूहेलखण्ड डिवीजन के आयुक्तों के द्वारा दी गयी जाँच में कहा गया कि इस आकस्मिक बाढ़ से नैनीताल जिले के 32 गाँव प्रभावित हुए। अकेले ‘कनकिया’ गाँव में ही 27 व्यक्ति इस बाढ़ के शिकार हुए। कुल 42 व्यक्ति, जिनमें 27 बच्चे, 9 महिलाऐं, 6 पुरूष हैं, मृत अथवा लापता हैं। नैनीताल जिले का 39 वर्गमील क्षेत्र बाढ़ से बह गया। 5 गाँव पूर्ण रूप से, 5 गम्भीर रूप से व 22 आंशिक रूप से नष्ट हो गये। 561 घर गिर गये व 330 क्षतिग्रस्त हो गये। 55,550 एकड़ भूमि में धान, मक्का व गन्ने की फसलें बरबाद हो गयीं, 522 पशु बाढ़ के शिकार हुए।

ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फेंक रही थीं, देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढक गया। अंधेरा हो गया था। हम लोग अपने घरों में बंद हो गये, घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी होकर रहेगी। खबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन हमसे 22 किमी. दूर था। घने अंधेरे ने इन गाँव वालों को उस अनहोनी का चश्मदीद गवाह न बनने दिया। पर इनके कान तो सब सुन रहे थे।

“विगत तीन-चार वर्षों से अधिक वर्षा न होने के कारण बाँध में जलस्तर बहुत कम होता था। 1962 में यह बाँध 692.8 फीट, 1963 में 695 फीट, 1964 में 690 फीट, 1965 में 695.5 फीट व 1966 में 701.6 फीट तक ही भर पाया था, इस वर्ष 26 अगस्त तक ही बाँध का जलस्तर 704 फीट पहुँच गया था और बाँध के पश्चिमी हिस्से के 1.5 किमी. पर बाँध के अन्दर कुछ स्थानों पर पानी तथा बालू उफनता हुआ दिखायी दिया। इसे तुरंत इनवर्टेड फिल्टर बना कर काबू कर लिया गया। हमने उच्चाधिकारियों को इसकी सूचना भी दे दी और जब 31 अगस्त को अधीक्षण अभियन्ता ने बाँध का निरीक्षण किया था तो बाँध का जलस्तर 705.3 फीट हो चुका था। उन्होंने उस दिन तीन निर्देश दिये थे कि जलाशय का स्तर अधिक न बढ़ने दिया जाये, यदि किसी उफान या इनवर्टेड फिल्डर में गंदला पानी निकलने लगे तो बाँध के स्पिल-वे चला कर उसे खाली करना शुरू कर दें और बाँध से 1.5 किमी. पर स्थित गैंग हट में ओवरसियर और काफी संख्या में मजदूर रहें तथा उफानों पर निरन्तर निगरानी रखी जाये। परन्तु सच्चाई तो यह है कि यहाँ पर मौजूद उच्चाधिकारियों ने इन सुझावों पर पहले तो कोई ध्यान नहीं दिया और जब स्थिति विस्फोटक हो गयी तब यह सुझाव किसी महत्त्व के नहीं रह गये थे। जिस समय बाँध टूटा उस समय हम 10 लोग वहाँ पर काम कर रहे थे। सिर्फ मैं और सुखीराम दो व्यक्ति ही उत्तर की तरफ भाग सके बाकी सभी बहाव की धारा में डूब गये।”

1970


70 के दशक की शुरूआत के बाद से तो उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदाओं का ताँता सा लग गया।

सन 1970 जुलाई का तीसरा सप्ताह अलकनंदा घाटी के लिए प्रलयंकारी सिद्ध हुआ। जब पाँच मील लम्बा, एक मील चौड़ा और तीन सौ फुट गहरा गौना ताल दूसरी बार 20 जुलाई को टूटा था। (ताल के एक किनारे गौना गाँव था और दूसरे किनारे दुरमी गाँव, अतः इसे दुरमीताल भी कहा जाता था। जबकि पर्यटकों के लिये यह बिरही झील थी।) पिछले तीन चार दिनों से लगातार वर्षा होने से ताल में आने वाली चारों नदियों के जलागम क्षेत्रों में भीषण भूस्खलन हुए थे। भूस्खलन के समय हजारों पेड़ उखड़ कर नीचे झील में समाते चले गये। सारा मलवा झील में भरता गया। अन्ततः झील के पानी के दबाव ने मुहाने पर जमी विशालकाय चट्टान को खिसका दिया और जमा हुआ यही पानी प्रलय मचाता हुआ 300 किमी. नीचे हरिद्वार तक दहशत फैला गया। 12 किमी. मोटर मार्ग 30 मोटर गाड़ियाँ व कारें व उनमें सवार लोग, 6 महत्त्वपूर्ण पुल, 15 पैदल पुल, नदी के किनारे बसे गाँव, उनके निवासी, सब इस भीषण बाढ़ की भेंट चढ़ गये, उत्तराखण्ड में हाल के इतिहास में अपनी तरह का यह भीषणतम हादसा था।

दुरमी गाँव के प्रधान जी उस दिन को याद करते हैं, तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था, पानी तो इन दिनों में हमेशा ही गिरता है, पर उस दिन का हवा कुछ और थी। ताल के पिछले हिस्से से बड़े-बड़े पेड़ बह-बह कर ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे, ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फेंक रही थीं, देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढक गया। अंधेरा हो गया था। हम लोग अपने घरों में बंद हो गये, घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी होकर रहेगी। खबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन हमसे 22 किमी. दूर था। घने अंधेरे ने इन गाँव वालों को उस अनहोनी का चश्मदीद गवाह न बनने दिया। पर इनके कान तो सब सुन रहे थे। प्रधान जी बताते हैं, रात भर भयानक आवाजें आती रहीं, फिर एक जोरदार गड़गड़ाहट हुई और फिर सब कुछ ठंडा पड़ गया। ताल के किनारे ऊँची चोटियों पर बसने वाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है। चारों तरफ बड़ी-बड़ी चट्टानें, हजारों पेड़ों का मलवा, और रेत ही रेत पड़ी है। ताल की पिछली तरफ से आने वाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगह-जगह भूस्खलन हुआ था, उसके साथ सैकड़ों पेड़ उखड़-उखड़ कर नीचे चले आये थे। इस सारे मलवे और टूट कर आने वाली बड़ी-बड़ी चट्टानों को गौनाताल अपनी 300 फुट की गहराई में समाता गया, सतह ऊँची होती गयी और फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मुँह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते ही देखते सारा ताल खाली हो गया। घटनास्थल से लगभग तीन सौ किमी. नीचे हरिद्वार तक इसका असर पड़ा था।