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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार
बिहार, आसाम, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश ये मुख्यतः बाढ़ के इलाके जाने जाते हैं। परंतु पिछले कुछ वर्षों से प्रकृति ने बाढ़ के संदर्भ में ‘उल्टी गंगा बहना’ मुहावरे को साकार कर दिया है। इस वर्ष राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुई बारिश ने तबाही मचा दी है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ दिनों पहले इन इलाकों से पानी की कमी की खबरें आ रहीं थीं।
महाराष्ट्र को तो इस बार बाढ़ की प्राकृतिक विपदा रह-रहकर झेलनी पड़ी। राजस्थान में प्रत्येक साल जहां बूंद-बूंद के लिए लोग तरसते रहते हैं, वहीं इस बार प्रकृति ने उसे भी एक नए तरह की या यूं कहिये पारिस्थितिकी तंत्र में आ रहे जबरदस्त बदलाव से अनायास आए इस तरह की विपदा को झेलने की तैयारी की चेतावनी दे दी है।
इस साल बाढ़ ने अपना क्षेत्र बदला है और अगर हम इसे पहली चेतावनी के रूप में लेते हैं तो यह एक बड़ी भूल होगी। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों के कारण पिछले 10 सालों में प्रकृति ने हमें अपने विकास की दिशा को पहचानने के लिए कई खतरे की घंटी सुनाई है। इस क्रम में ‘लू’ के क्षेत्र में दिन-ब-दिन विस्तार होना बहुत महत्वपूर्ण है। 2001-02 में लू का उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में पहुंचने को वैज्ञानिकों और भूगोलविदों ने मानव समाज के लिए उभरते हुए एक बड़ी चिंता के रूप में रेखांकित किया था। मालूम हो कि 2 साल पूर्व कैलिफोर्निया लू की चपेट में आ गया था।
पेरिस का तापमान 32- 35 डिग्री तक पहुंच जाने से वहां कई लोगों की जान चली गई थी। सामान्यतः इन जगहों का तापमान शून्य से नीचे रहता है। लगभग इसी समय राजस्थान में नक्की झील के पूरी तरह से जम जाने को संघ आयोग सेवा के सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगे छात्र और उनका दिशा निर्देशन करने वाले कोचिंग संस्थान तक ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया और हॉट टॉपिक के रूप में विशेष महत्व दिया था।
ऐसी गड़बडि़यों के लिए पर्यावरणविद् व लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं - “राज्य सरकार ने हमारी वर्षों से चली आ रही पारंपरिक व्यवस्था को बचाने की कभी कोई कोशिश नहीं की। बल्कि उसे बाधा ही पहुंचाई है। हमारे समाज की उन पारंपरिक व्यवस्थाओं को खारिज करने के लिए सरकार व उसके पर्यावरण मंत्रालय ने बस कुछ सुंदर व आकर्षक लगने वाले शब्द और मुहावरे के गढ़ने की दिशा में ही काम किया है।’ देश के अंदर तबाही मचेगी तो राष्ट्रव्यापी चिंता तो जाहिर सी बात होगी ही। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते इस खतरे को कम करने की दिशा में केद्र और किसी राज्य के सरकार ने बहुत महत्वपूर्ण कुछ कदम उठाए हों, ऐसा नहीं जान पड़ता है। बल्कि सरकार की मशीनरियों ने बाढ़-सुखाड़ के इस सालाना खतरे को एक उद्योग के रूप में स्थापित करके जहां मौका मिला वहां इसका भरपूर लाभ उठाया गया।
इस संदर्भ में कई धांधलियां समाज के सामने अब तक उजागर हो चुकी हैं। यही वजह है कि आजादी के छह दशक के बाद भी हम इतने पानी वाले देश होने के बावजूद कभी पानी को तरसते नजर आते हैं और कभी तो औसत के आसपास बारिश होने पर भी पानी से तौबा करते नजर आते हैं। इसको नियंत्रित करने के नाम पर ऐसी नीतियां समाज पर थोपीं गई हैं, जो निहायत ही घटिया और अवैज्ञानिक है। बाढ़ से बचने के लिए ‘बाढ़ -नियंत्रण समिति’ और ‘नदी -जोड़ो’ आदि की योजना लाई गई। बाढ़ नियंत्रण समिति के निर्माण के बाद बाढ़ के क्षेत्र में व्यापक रूप से वृद्धि हुई है।
सरकार ने इस खतरे से बचने के लिए जो उपाय समाज के सामने प्रस्तुत किये हैं, उसकी समीक्षा अभी आयी बाढ़ के परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। वर्ष 2002 में एक बहुत बड़ी लगभग 560 करोड़ की लागत वाली परियोजना ‘नदी जोड़ो’ का प्रस्ताव सुरेश प्रभु के नेतृत्व में यह तर्क देकर आया था कि इससे हर साल आने वाली बाढ़ और सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकेगा। उस समय यह तर्क दिया गया था कि हिमालय से निकलने वाली पूर्व में बहने वाली नदियों की अतिरिक्त जलराशि को प्रायद्वीपीय पश्चिम और द़िक्षण की नदियों को दे देंगेे।
अब यहां सवाल यह उठता है कि जब सामान्य बारिश में इन राज्यों की हालत इतनी बिगड़ जा रही है तब पूर्व की सदानीरा नदियों से पश्चिम और दक्षिण की नदियां अतिरिक्त जलराशि लेने को किस माद्दे पर सक्षम होगी? ऐसे तमाम अनुभवों के होते हुए नदियों को जोड़ने और तोड़ने का खेल जारी है। केन और बेतवा नदी को जोड़ने के लिए हरी झंडी पिछले ही साल 25 अगस्त को मुलायम सिंह यादव की सरकार ने तमाम पर्यावरणीय, राहत और पुनर्वास संबंधी आशंकाओं के रहते दे दिया।
इसी मौके पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने चंबल और पार्वती नदी को जोड़ने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मुलायम सिंह यादव की तात्कालिक आशंकाएं वाजिब थीं क्योंकि पर्यावरणीय परिवर्तन एक लंबी प्रक्रिया के तहत स्वाभाविक तौर पर हो तो अनुकूल परिणाम देती है, अन्यथा ऐसी आपदाएं उत्पन्न करती हैं, जिसकी भरपाई कर पाना किसी भी समाज के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है। राजस्थान के बाड़मेर जिला और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों को अगर छोड़ दें तो प्रत्येक साल की औसत वर्षा से इस साल कहीं भी ज्यादा वर्षा नहीं हुई है।
यह जरूर हुआ है कि दस-पन्द्रह दिन में गिरने वाली औसत वर्षा इस साल दो-चार दिन में गिर गई। इन राज्यों के ऐसे छोटे-छोटे बांध जिनके नाम समाज में कुछ कम प्रतिष्ठित रहें हैं उन्हें अचानक खोलने की नौबत के आ जाने से समाज को बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ रही है। देश के अंदर अभी कई ऐसी बड़ी प्रतिष्ठित परियोजना काम कर रहीं हैं, कभी उसे खोलना पड़ा तो उसकी तबाही का अंदाजा शायद हम नहीं लगा सकते हैं।
दरअसल सिद्धांत यह है कि नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी ले जाने का काम करती हैं। नदियों के कारण आए बाढ़ से पुराने समय में तबाही नहीं के बराबर हुआ करती थीं। नदियों को जगह-जगह बांध दिए जाने से उनमें अवसाद ज्यादा टिकना शुरू हो गया है।
परिणामतः नदियों का तल उथला होता चला जा रहा है। अब औसत या औसत से थेाड़ी कम बारिश से ही नदियां प्रलंयकारी हो उठती हैं। इसलिए हमें सिंचाई और पीने के पानी की निर्भरता नहरों पर कम करके अपनी पुरानी पारंपरिक तरीकों को पुर्नजीवित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ताल-तलैयों, पाटपानी, जातकुड़ी, कुओं आदि की ओर लौट जाना ही बेहतरी होगी।
यहां पर राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी से संबंधित एक किस्से का स्मरण हो आया है। राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी को दूर करने के लिए ‘तरूण भारत संघ’ को आमंत्रित किया गया कि वे यहां आएं और पानी की कमी के लिए उपयुक्त जगह ढूंढ़कर बताएं। राजेन्द्र सिंह ने इस काम में निपुण राजस्थान के एक ग्रामीण गोपाल सिंह को बुलवाया। और गोपाल सिंह के बताए जगह पर तालाब खोदी गई और आज वहां पानी की दिक्कत नहीं है। कहानी कहने का तात्पर्य यह है कि लोग अपनी हजारों साल से मानी हुई व्यवस्था को यूं ही नहीं ठुकराएं।
अगर विकास की यही प्रक्रिया चलती रही तो आज नहीं तो कल उन्हें मुड़कर अपनी व्यवस्था में लौटना होगा। क्योंकि जल को रिचार्ज करने की सबसे अच्छी पद्धति ताल-तलैयों द्वारा ही हो सकती है।
जिन छोटे बांधों को खोला गया उनमें उकाई के खोले जाने से सूरत, धारोई और वानकवोरी से गुजरात, कोटा बांध से पानी के छोड़े जाने के कारण राजस्थान और मध्य प्रदेश के भिंड जिले के लगभग 10 गांव, सांगली और खड़गवासला के पास कोई छोटे बांध खोले जाने से महाराष्ट्र में बाढ़ आई है। पंचमहाल और आणंद की बाढ़ भी इसी तरीके के छोटे और मंझोले किस्म के बांध खोले जाने से आई है।
दुर्भाग्य तो यह है कि अगस्त का महीना समाप्त हो चुका है लेकिन बिहार, बंगाल और आसाम में इतनी भी बारिश नहीं हुई कि किसान धान की रोपाई कर सकेे। इन हिस्सों में राज्य सरकार की नीतियों और मानव समुदाय की कुछ लाचारियों की वजह से बाढ़ से निश्चित तौर पर प्रत्येक साल तबाही आती है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बाढ़ का इंतजार यहां के किसान करते हैं। बाढ़ प्रकृति के चक्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है। परंतु हमारे विकास के मानदंड प्रकृति की दिनचर्या के साथ तालमेल बिठाकर तय नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए वह हमारे लिए कभी सुखद या बाट जोहे जाने वाले स्थिति का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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