पर्यावरणविद् व लेखक अनुपम मिश्र से स्वतंत्र मिश्र की बातचीत पर आधारित साक्षात्कार
बाढ़-सुखाड़ तो अब उद्योग के रूप में पहचाना जा रहा है। क्या कारण है कि इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सका है?
यह एक कारण हो सकता है। कुछ लोगों को बाढ़ का इंतजार रहता है। यह बुरी बात है कि जिस कारण से हजारों लोगों की जान जाती है, उसी का इंतजार कुछ नेताओं में से और कुछ अधिकारियों में से लोगों को होता है। इसमें से कुछ समाजसेवी भी हो सकते हैं। उनको अपने एक-दो मकान बनाने के लिए लाखों के घर उजड़ जाने का इंतजार रहता है। यह बहुत शर्म की बात है।
आप जिलाधिकारियों एवं राज्य के अधिकारियों को बाढ़ की पूर्व तैयारी के बाबत कुछ सलाह देना चाहते हैं? वे सलाह क्या हैं?
यह बहुत ही अनौपचारिक है। मेरे मन में यह है कि इन लोगों से कोई संस्था बात कर पाती। अप्रैल, मई, जून में ऐसी योजना बना पाते ताकि खाद्य सामग्री को सस्ते वाहनों से पहुंचाया जा सकता। उनके लिए हेलिकॉप्टर जैसे मंहगे वाहन इस्तेमाल नहीं किए जाते। पिछले साल बिहार में दो करोड़ की पूरी और आलू 52 करोड़ रुपए खर्च करके हेलिकॉप्टर से लोगों तक पहुंचाए गए थे। इस तरह की बेवकूफी का क्या मतलब है? क्या आप हजार नाविक इस काम के लिए तैयार नहीं कर सकते हैं?
आजकल तो बिहार में इस तरह के बोट (नावों, स्टीमर) पर लोगों का बड़ा जोर है। उनके घाट इन तरह के तीन-चार के तरह के बोटों से भरने वाले हैं। उनका ऐसा सपना है। क्यों नहीं वह आपस में मिलकर हजार लोगों को तैयार करते हैं? उनको मुंहमांगा दाम देते। हम उनकी विपत्ति की घड़ी में सेवा ले रहे हैं। उनसे अपील करते कि भाई ईमानदारी से काम करो। 2000 रुपए की पूरी और सब्जी 100 रुपए के बदले 200 रुपए में पहुंचा देने की प्रार्थना उनसे करते। क्या नुकसान हो जाता?
हमने देखा जिन्हें सबसे सक्षम अधिकारी माना जाता है, जिनके नाम अखबारों में छपते थे, कुल 12 महीनों में उनकी कलई खुल जाती है। वह इस बाढ़ में डूब जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी से क्या अपील करना? मुझे लगता है धीरज रखकर इस बात को समाज में फैलाना चाहिए। इसमें मीडिया का सहयोग भी जरूरी है। हम धीरज के साथ काम करेंगें तो अधिकारियों में भी एक-आध लोग संवेदनशील मिल जाएंगे, जो इन बातों को उठाकर अपने आप आगें चल पड़ेंगे।
राष्ट्रीय जल नीति में जो प्रस्ताव आए, उन पर व्यापक तौर पर काम नहीं हो पाया है। क्या इसे सरकार की इच्छाशक्ति के कमजोर होने के रूप में देखा जाना चाहिए?
सबसे पहले तो इसकी पृष्ठभूमि समझनी होगी कि जल-नीति वगैरह अचानक कैसे बनने लगे? पहले सरकार ऐसा कुछ कभी भी करती नहीं थी। इतिहास देखें तो यह 1985 के आसपास से शुरू हुई है। देश में पहले भी पानी था और उसका प्रबंध भी था। लेकिन उस समय बगैर नीति का प्रबंध होता था, यह कहना गलत होगा। जैसे-जैसे अनीति का दौर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे आपको उसे ढकने के लिए एक ढाल चाहिए होता है। यह शब्द वगैरह इतने मीठे होते हैं कि उसके नीचे कुछ भी डाल दीजिए, सब चल जाता है।
मौटे तौर पर लोगों का यह कहना है कि विश्व बैंक, आई. एम. एफ. वगैरह ने जब इनको कसना शुरू किया, उनके पानी, जंगल, वगैरह पर नजर रखनी शुरू की, उसको बाजार में बेचना शुरू किया, तब पुराने कानूनों पर पट्टा लगाकर, साफ करके नया कानून बना दिया गया। उन्होंने पूछा कि दिखाओ किसकी नीति अच्छी है? दरअसल ये नीतियां उसी दौर की है। पहली बात तो यह कि हमें अपना भम्र मिटा देना चाहिए कि उन जल नीतियों से हमारा कुछ भला हो सकता है? इसलिए जितने भी जनआंदोलन, स्वयंसेवी संस्था या गैर-सरकारी या सामाजिक संस्थाएं पानी पर काम करती हैं, वे इन राष्ट्रीय जलनीति को अस्वीकृत करके जन-जल-नीति तैयार करके काम करती हैं।
वे अनुप्रास वाला एक कठिन नाम तैयार कर लेते हैं। उनकी नीतियां लागू हो जाती हैं। मुझे लगता है कि जलनीति पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। वह बुरे कामों को ढंकने का एक हथियार है। उन नीतियों में अच्छे काम करने की धार नहीं बची है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकारें दो-तीन, चार-पांच साल के लिए आती हैं। उनसे कोई नीति नहीं बनेगी। जलनीति की जगह पहले जलदर्शन की नीति का चलन हमारे यहां रहा है।
वह अतिरिक्त होती थी। किसी को संविधान की तरह हक नहीं दिया गया कि वह उसमें परिवर्तन कर ले। अलग-अलग इलाकों में प्रकृति ने कितना पानी दिया है, उसे देखकर दस-पांच पीढ़ियों के अनुभव के आधार पर जल-दर्शन बनता था और वह पांच सौ हजार वर्ष तक चलता रहा होगा। अभी तीन साल की जलनीति पूरी ताकत रखती है और उसने जल-दर्शन के सिद्धांत को चोट पहुंचाई है।
नदियों में गाद जमा होने से बचाने के लिए कोई स्थायी योजना बन सकती है?
मौटेतौर पर उसकी योजना नदी ने अपने जन्म के समय से ही बनाई है। नदी को प्रकृति ने कभी भी नहर की तरह सीधा नहीं दौड़ाया है। आड़ी, तिरछी, बलखाती हुई ये सारी उपमाएं जो कवियों को प्रेरणा देने का काम करती हैं, वास्तविक तौर पर उसके अंदर गाद जमा न हों, उसके लिए होती है। हम उसके आस-पास कई तरह की विकास की योजनाएं (बांध) बनाते हैं, जिसमें गाद टिकना शुरू हो जाता है। अन्यथा आड़ी-तिरछी बहने वाली नदियां अपने साथ बहने वाली गाद को एक कोने में पटकती हैं और फिर जब उसे यहां लगने लगता है कि यहां गाद ज्यादा मात्रा में इकट्ठा हो गई है, तब उसे उठाकर फिर दूसरे कोने में पटक देती है।
लोग जरूरत के अनुसार रेता, रेत, या गाद उठाकर भवन-निर्माण में लगाते हैं। इससे तलछट की सफाई हो जाती है। यह काम समाज और प्रकृति दोनों मिलकर करते हैं। लेकिन जब आप नदी को कैनाल और चैनल में बदलना चाहते हैं, तब नई दिक्कतें सामने आती हैं। ऐसी दिक्कतों को दूर करने के लिए हमें बड़ी-बड़ी मशीनों का या फिर किसी तकनीक की खोज करनी पड़ती है।
क्या हमने तटबंधों को बनाने में अप्राकृतिक तरीके अपनाए हैं?
नदी के दोनों तरफ तट होता ही है। प्रकृति उसके दोनों तरफ तट बनाती है। उसको किसी भी इलाके में नीचे रखकर ही नदी अपना रास्ता तय करती है। ऐसा वह इसलिए करती है ताकि वर्षा का जल उसमें आ जाए। कभी-कभी वर्षा का पानी ज्यादा हो जाता है, तब वह अपने तटों को तोड़कर उससे ऊपर होकर बहने लगती हैं।
आस-पास बाढ़ इस घटना से आती है। लेकिन यह काम कभी-कभी होता है। परंतु जब हम पत्थर, सीमेंट, क्रंकीट आदि से उसके आस-पास दीवार बनाने की कोशिश करते हैं और उसे तटबंध का नाम देते हैं। ऐसे तट तो अप्राकृतिक हैं ही। इन तटबंधों के निर्माण में बेईमानी और ईमानदारी का प्रश्न न भी लगाएं तो भी अव्यवहारिकता तो उसमें शत-प्रतिशत है ही।
बाढ़ प्रकृति का एक हिस्सा है। बाढ़ उतरने के बाद वहां खेती करना आसान हो जाता है। इसलिए उसकी प्रतीक्षा की जाती है। मुझे लगता है कि बाढ़ से जितनी तबाही नहीं होती है, उससे ज्यादा तबाही बांध, तटबंध और पुलों के टूटने से होती है? आपकी क्या राय है?
जी हां, बाढ़ प्रकृति का एक हिस्सा है। वह जीवन का एक हिस्सा है। इन तीन-चार महीनों में गिरे पानी से हमारा जीवन चलता है। लेकिन जब हम अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए नदियों के रास्ते में अड़चन डालते हैं, कभी यह जरूरी भी हो सकता है कि नदी भी आपके किए गए कामों को याद रखती है और वह भी उसका बदला चुकाने के लिए कुछ खेल खेलती है। उसके कारण बाढ़ आती है। लेकिन एक समय में बाढ़ केवल तबाही का कारण नहीं थी, वह निर्माण का भी काम करती थी।
इसमें बहुत सच्चाई है कि देश के बहुत सारे हिस्सों में बाढ़ का आज भी लोग इंतजार करते हैं। वह अच्छी गाद के लिए, मछलियों के अंडे (जीरे) के लिए उपयुक्त होती है। एक अंग्रेज अधिकारी ने 1936 में लिखा था कि मलेरिया का हल बाढ़ में है, क्योंकि मछलियों के अंडे पूरे इलाके में फैल जाते हैं और जैसे ही मछलियां बननी शुरू होती थीं, वे मलेरिया के लार्वा को चट करने का काम करती हैं। उनके प्रसिद्ध भाषण का शीर्षक ही था - उड़ीसा, बंगाल और बिहार (उस समय एक ही था) में जल प्रबंध कैसे हो? उनका नाम सर विलियम वेलॉक्स था।
उन्होंने यह व्यवस्थित ढंग से हमारे सामने रखा था कि हमारी समस्याओं का हल कैसे हो? अंग्रेजो ने बिना सोचे-समझे इस पद्धति को तोड़ा है और नहरों को लाकर उनकी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके उस इलाके की गरीबी बढ़ाई है। एक प्रकार से पुरानी पद्धति को तोड़कर नई को स्थापित करना मात्र उनका उद्देश्य भर था। हिन्दी में बाढ़ के लिए जो दूसरा शब्द ‘पूर’ है। नदी पूरी हो गई, इस अर्थ में है। पूरी होना अच्छे अर्थों में लिया जाता है। किसी का पूरा होना, संपूर्ण होना अच्छी बात है। नदी के पूरा होने से तब का समाज डरता नहीं था।
बाढ़ कभी भी डरावनी नहीं होती थी। घुटने तक पानी आ गया, एक - आध घरों में पानी घुस गया। मजबूरी में हम निचले हिस्सों में फैलते चले गए। ‘चौर’ या ‘चौरा’ नाम के तालाब बाढ़ के पानी से भरते थे। कुछ तालाब देश में ऐसे मिलेंगे जो वर्षा के जल से भरने वाले मिलेंगे। ये सब जगह-जगह पानी को रोककर बाढ़ की भयावहता को कम करने का काम करते थे। अभी हमने इन जगहों में बसावट की है। प्रकृति ने इतना पानी कहीं भी नहीं गिराया है। 20 इंच की जगह 30 इंच भी पानी गिरा दिया जाए तो इतना पानी कहीं नहीं भर सकता है। इसका मतलब है कि पानी के जो परंपरागत रास्ते हैं, उनको भी छेड़ा है, तोड़ा-मरोड़ा है। इसलिए वह डुुबो रहा है। वह बावला हो गया है।
बाढ़-सुखाड़ तो अब उद्योग के रूप में पहचाना जा रहा है। क्या कारण है कि इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सका है?
यह एक कारण हो सकता है। कुछ लोगों को बाढ़ का इंतजार रहता है। यह बुरी बात है कि जिस कारण से हजारों लोगों की जान जाती है, उसी का इंतजार कुछ नेताओं में से और कुछ अधिकारियों में से लोगों को होता है। इसमें से कुछ समाजसेवी भी हो सकते हैं। उनको अपने एक-दो मकान बनाने के लिए लाखों के घर उजड़ जाने का इंतजार रहता है। यह बहुत शर्म की बात है।
आप जिलाधिकारियों एवं राज्य के अधिकारियों को बाढ़ की पूर्व तैयारी के बाबत कुछ सलाह देना चाहते हैं? वे सलाह क्या हैं?
यह बहुत ही अनौपचारिक है। मेरे मन में यह है कि इन लोगों से कोई संस्था बात कर पाती। अप्रैल, मई, जून में ऐसी योजना बना पाते ताकि खाद्य सामग्री को सस्ते वाहनों से पहुंचाया जा सकता। उनके लिए हेलिकॉप्टर जैसे मंहगे वाहन इस्तेमाल नहीं किए जाते। पिछले साल बिहार में दो करोड़ की पूरी और आलू 52 करोड़ रुपए खर्च करके हेलिकॉप्टर से लोगों तक पहुंचाए गए थे। इस तरह की बेवकूफी का क्या मतलब है? क्या आप हजार नाविक इस काम के लिए तैयार नहीं कर सकते हैं?
आजकल तो बिहार में इस तरह के बोट (नावों, स्टीमर) पर लोगों का बड़ा जोर है। उनके घाट इन तरह के तीन-चार के तरह के बोटों से भरने वाले हैं। उनका ऐसा सपना है। क्यों नहीं वह आपस में मिलकर हजार लोगों को तैयार करते हैं? उनको मुंहमांगा दाम देते। हम उनकी विपत्ति की घड़ी में सेवा ले रहे हैं। उनसे अपील करते कि भाई ईमानदारी से काम करो। 2000 रुपए की पूरी और सब्जी 100 रुपए के बदले 200 रुपए में पहुंचा देने की प्रार्थना उनसे करते। क्या नुकसान हो जाता?
हमने देखा जिन्हें सबसे सक्षम अधिकारी माना जाता है, जिनके नाम अखबारों में छपते थे, कुल 12 महीनों में उनकी कलई खुल जाती है। वह इस बाढ़ में डूब जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी से क्या अपील करना? मुझे लगता है धीरज रखकर इस बात को समाज में फैलाना चाहिए। इसमें मीडिया का सहयोग भी जरूरी है। हम धीरज के साथ काम करेंगें तो अधिकारियों में भी एक-आध लोग संवेदनशील मिल जाएंगे, जो इन बातों को उठाकर अपने आप आगें चल पड़ेंगे।
राष्ट्रीय जल नीति में जो प्रस्ताव आए, उन पर व्यापक तौर पर काम नहीं हो पाया है। क्या इसे सरकार की इच्छाशक्ति के कमजोर होने के रूप में देखा जाना चाहिए?
सबसे पहले तो इसकी पृष्ठभूमि समझनी होगी कि जल-नीति वगैरह अचानक कैसे बनने लगे? पहले सरकार ऐसा कुछ कभी भी करती नहीं थी। इतिहास देखें तो यह 1985 के आसपास से शुरू हुई है। देश में पहले भी पानी था और उसका प्रबंध भी था। लेकिन उस समय बगैर नीति का प्रबंध होता था, यह कहना गलत होगा। जैसे-जैसे अनीति का दौर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे आपको उसे ढकने के लिए एक ढाल चाहिए होता है। यह शब्द वगैरह इतने मीठे होते हैं कि उसके नीचे कुछ भी डाल दीजिए, सब चल जाता है।
मौटे तौर पर लोगों का यह कहना है कि विश्व बैंक, आई. एम. एफ. वगैरह ने जब इनको कसना शुरू किया, उनके पानी, जंगल, वगैरह पर नजर रखनी शुरू की, उसको बाजार में बेचना शुरू किया, तब पुराने कानूनों पर पट्टा लगाकर, साफ करके नया कानून बना दिया गया। उन्होंने पूछा कि दिखाओ किसकी नीति अच्छी है? दरअसल ये नीतियां उसी दौर की है। पहली बात तो यह कि हमें अपना भम्र मिटा देना चाहिए कि उन जल नीतियों से हमारा कुछ भला हो सकता है? इसलिए जितने भी जनआंदोलन, स्वयंसेवी संस्था या गैर-सरकारी या सामाजिक संस्थाएं पानी पर काम करती हैं, वे इन राष्ट्रीय जलनीति को अस्वीकृत करके जन-जल-नीति तैयार करके काम करती हैं।
वे अनुप्रास वाला एक कठिन नाम तैयार कर लेते हैं। उनकी नीतियां लागू हो जाती हैं। मुझे लगता है कि जलनीति पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। वह बुरे कामों को ढंकने का एक हथियार है। उन नीतियों में अच्छे काम करने की धार नहीं बची है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकारें दो-तीन, चार-पांच साल के लिए आती हैं। उनसे कोई नीति नहीं बनेगी। जलनीति की जगह पहले जलदर्शन की नीति का चलन हमारे यहां रहा है।
वह अतिरिक्त होती थी। किसी को संविधान की तरह हक नहीं दिया गया कि वह उसमें परिवर्तन कर ले। अलग-अलग इलाकों में प्रकृति ने कितना पानी दिया है, उसे देखकर दस-पांच पीढ़ियों के अनुभव के आधार पर जल-दर्शन बनता था और वह पांच सौ हजार वर्ष तक चलता रहा होगा। अभी तीन साल की जलनीति पूरी ताकत रखती है और उसने जल-दर्शन के सिद्धांत को चोट पहुंचाई है।
नदियों में गाद जमा होने से बचाने के लिए कोई स्थायी योजना बन सकती है?
मौटेतौर पर उसकी योजना नदी ने अपने जन्म के समय से ही बनाई है। नदी को प्रकृति ने कभी भी नहर की तरह सीधा नहीं दौड़ाया है। आड़ी, तिरछी, बलखाती हुई ये सारी उपमाएं जो कवियों को प्रेरणा देने का काम करती हैं, वास्तविक तौर पर उसके अंदर गाद जमा न हों, उसके लिए होती है। हम उसके आस-पास कई तरह की विकास की योजनाएं (बांध) बनाते हैं, जिसमें गाद टिकना शुरू हो जाता है। अन्यथा आड़ी-तिरछी बहने वाली नदियां अपने साथ बहने वाली गाद को एक कोने में पटकती हैं और फिर जब उसे यहां लगने लगता है कि यहां गाद ज्यादा मात्रा में इकट्ठा हो गई है, तब उसे उठाकर फिर दूसरे कोने में पटक देती है।
लोग जरूरत के अनुसार रेता, रेत, या गाद उठाकर भवन-निर्माण में लगाते हैं। इससे तलछट की सफाई हो जाती है। यह काम समाज और प्रकृति दोनों मिलकर करते हैं। लेकिन जब आप नदी को कैनाल और चैनल में बदलना चाहते हैं, तब नई दिक्कतें सामने आती हैं। ऐसी दिक्कतों को दूर करने के लिए हमें बड़ी-बड़ी मशीनों का या फिर किसी तकनीक की खोज करनी पड़ती है।
क्या हमने तटबंधों को बनाने में अप्राकृतिक तरीके अपनाए हैं?
नदी के दोनों तरफ तट होता ही है। प्रकृति उसके दोनों तरफ तट बनाती है। उसको किसी भी इलाके में नीचे रखकर ही नदी अपना रास्ता तय करती है। ऐसा वह इसलिए करती है ताकि वर्षा का जल उसमें आ जाए। कभी-कभी वर्षा का पानी ज्यादा हो जाता है, तब वह अपने तटों को तोड़कर उससे ऊपर होकर बहने लगती हैं।
आस-पास बाढ़ इस घटना से आती है। लेकिन यह काम कभी-कभी होता है। परंतु जब हम पत्थर, सीमेंट, क्रंकीट आदि से उसके आस-पास दीवार बनाने की कोशिश करते हैं और उसे तटबंध का नाम देते हैं। ऐसे तट तो अप्राकृतिक हैं ही। इन तटबंधों के निर्माण में बेईमानी और ईमानदारी का प्रश्न न भी लगाएं तो भी अव्यवहारिकता तो उसमें शत-प्रतिशत है ही।
बाढ़ प्रकृति का एक हिस्सा है। बाढ़ उतरने के बाद वहां खेती करना आसान हो जाता है। इसलिए उसकी प्रतीक्षा की जाती है। मुझे लगता है कि बाढ़ से जितनी तबाही नहीं होती है, उससे ज्यादा तबाही बांध, तटबंध और पुलों के टूटने से होती है? आपकी क्या राय है?
जी हां, बाढ़ प्रकृति का एक हिस्सा है। वह जीवन का एक हिस्सा है। इन तीन-चार महीनों में गिरे पानी से हमारा जीवन चलता है। लेकिन जब हम अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए नदियों के रास्ते में अड़चन डालते हैं, कभी यह जरूरी भी हो सकता है कि नदी भी आपके किए गए कामों को याद रखती है और वह भी उसका बदला चुकाने के लिए कुछ खेल खेलती है। उसके कारण बाढ़ आती है। लेकिन एक समय में बाढ़ केवल तबाही का कारण नहीं थी, वह निर्माण का भी काम करती थी।
इसमें बहुत सच्चाई है कि देश के बहुत सारे हिस्सों में बाढ़ का आज भी लोग इंतजार करते हैं। वह अच्छी गाद के लिए, मछलियों के अंडे (जीरे) के लिए उपयुक्त होती है। एक अंग्रेज अधिकारी ने 1936 में लिखा था कि मलेरिया का हल बाढ़ में है, क्योंकि मछलियों के अंडे पूरे इलाके में फैल जाते हैं और जैसे ही मछलियां बननी शुरू होती थीं, वे मलेरिया के लार्वा को चट करने का काम करती हैं। उनके प्रसिद्ध भाषण का शीर्षक ही था - उड़ीसा, बंगाल और बिहार (उस समय एक ही था) में जल प्रबंध कैसे हो? उनका नाम सर विलियम वेलॉक्स था।
उन्होंने यह व्यवस्थित ढंग से हमारे सामने रखा था कि हमारी समस्याओं का हल कैसे हो? अंग्रेजो ने बिना सोचे-समझे इस पद्धति को तोड़ा है और नहरों को लाकर उनकी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके उस इलाके की गरीबी बढ़ाई है। एक प्रकार से पुरानी पद्धति को तोड़कर नई को स्थापित करना मात्र उनका उद्देश्य भर था। हिन्दी में बाढ़ के लिए जो दूसरा शब्द ‘पूर’ है। नदी पूरी हो गई, इस अर्थ में है। पूरी होना अच्छे अर्थों में लिया जाता है। किसी का पूरा होना, संपूर्ण होना अच्छी बात है। नदी के पूरा होने से तब का समाज डरता नहीं था।
बाढ़ कभी भी डरावनी नहीं होती थी। घुटने तक पानी आ गया, एक - आध घरों में पानी घुस गया। मजबूरी में हम निचले हिस्सों में फैलते चले गए। ‘चौर’ या ‘चौरा’ नाम के तालाब बाढ़ के पानी से भरते थे। कुछ तालाब देश में ऐसे मिलेंगे जो वर्षा के जल से भरने वाले मिलेंगे। ये सब जगह-जगह पानी को रोककर बाढ़ की भयावहता को कम करने का काम करते थे। अभी हमने इन जगहों में बसावट की है। प्रकृति ने इतना पानी कहीं भी नहीं गिराया है। 20 इंच की जगह 30 इंच भी पानी गिरा दिया जाए तो इतना पानी कहीं नहीं भर सकता है। इसका मतलब है कि पानी के जो परंपरागत रास्ते हैं, उनको भी छेड़ा है, तोड़ा-मरोड़ा है। इसलिए वह डुुबो रहा है। वह बावला हो गया है।