बाराबंकी-नवीन कृषि पद्धति से संवरता भविष्य

Submitted by Hindi on Mon, 08/01/2016 - 15:11
Source
अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका), 2015

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद मंडल के चार जिलों में से एक है। यह घाघरा व गोमती की सम्यांतर धाराओं के बीच स्थित है। कृषि वातावरण तालिका में बाराबंकी को उत्तर प्रदेश पूर्वी समतल क्षेत्र में रखा गया है। बाराबंकी में औसत वार्षिक वर्षा 1002.7 मिमी होती है, जो कि जून से लेकर अक्टूबर के बीच होती है (तालिका-1)।

 

तालिका-1 : वर्षा की स्थिति (जिला बाराबंकी)

वर्षा

औसत वर्षा (मिमी)

जून से सितम्‍बर

883.3

अक्‍टूबर से दिसम्‍बर

54.8

जनवरी से मार्च

44.4

अप्रैल से मई

120.2

वार्षिक

1002.7

 

भू-उपयोग – बाराबंकी का कुल क्षेत्रफल 442.8 हेक्‍टेयर है जिसमें 258.4 हेक्‍टेयर क्षेत्र में फसल उगाई जाती है। (तालिका-2) जबकि 250.6 हेक्‍टेयर क्षेत्रफल में वर्ष में एक बार से अधिक बुआई की जाती है। जिले का 460.9 हेक्‍टेयर क्षेत्रफल विभिन्‍न साधनों द्वारा सिंचित है। जबकि 24.3 हेक्‍टेयर क्षेत्रफल सिंचाई के लिये वर्षा पर निर्भर है।

 

तालिका-2: भू उपयोग की स्थिति (जिला बाराबंकी)

बाराबंकी जिले में भूउपयोग की स्थिति (वर्तमान)

क्षेत्रफल (हेक्‍टेयर)

भौगोलिक क्षेत्रफल

442.8

कृषि कार्य हेतु

258.4

वन क्षेत्र

5.9

गैर कृषि हेतु

56.3

बंजर क्षेत्र

3.1

 

मृदा प्रकार- कुल कृषि भूमि का 39 प्रतिशत गहरी लोम मृदा है, 28 प्रतिशत गहरी महीन मिट्टी जिसमें लोम मिट्टी थोड़ी क्षारीय है, 16 प्रतिशत मिट्टी गहरी स्लिट है जोकि थोड़ी क्षारीय मिट्टी है।

परम्परागत कृषि फसलें- पराम्परागत कृषि में यहाँ चावल, गेहूँ, मक्का, मसूर, सरसों, गन्ना, आलू, मटर, प्याज व सब्जियों को उत्पन्न किया जाता है (तालिका-3) जोकि अक्सर सूखे, पाला व घाघरा नदी में आने वाली बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो जाती है, और किसानों को अत्यधिक आर्थिक हानि होती है। जिले के कृषक अपनी आजीविका में होने वाले लगातार नुकसान से परेशान रहते हैं। भरपूर मेहनत के बाद भी उनको उगाई गई फसल से लाभ की आशा कम ही रहती है। अत: अब जिले के विभिन्न भागों के कुछ नवोन्मेषी कृषक कुछ नये तरीके से कृषि के क्षेत्र में प्रयोग करने लगे हैं।

इन विधियों में फसलों का चक्रिय क्रम, टपका पद्धति से सिंचाई व जैविक खाद का प्रयोग व तापमान नियंत्रण हेतु पॉली हाउस का प्रयोग मुख्य है। इनमें से कुछ कृषक अन्य कृषकों के लिये प्रेरणास्रोत के रूप में उभर कर सामने आये हैं। इन कृषकों में कुछ उच्च शिक्षित हैं तो कुछ अल्प शिक्षित हैं परंतु कुछ नया करने की प्रयोगधर्मिता के कारण आज दोनों ही सफलता के सौपान पर खड़े हैं तथा अन्य कृषकों को भी अपनी तकनीक से लाभान्वित कर रहे हैं। इन कृषकों ने परम्परागत कृषि को त्याग कर फूलों, फलों व सब्जियों की खेती पर ध्यान दिया है, और इस क्षेत्र में अत्यधिक सफलता प्राप्त कर बाराबंकी का नाम न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी अपने फूलों की खुशबू के कारण चर्चित किया है, कुछ ऐसे चर्चित कृषक हैं-

 

तालिका-3 : महत्त्वपूर्ण फसलों/सब्जियों का उत्पादन (जिला बाराबंकी)

महत्त्‍वपूर्ण फसल व सब्जियाँ

कुल उत्‍पादन

उत्‍पादन (टन)

उत्‍पादकता (किग्रा/हेक्‍ट)

चावल

384.7

2207

मक्‍का

2.5

551

गेहूँ

516.8

3179

मसूर

13.0

802

सरसों

12.2

834

गन्‍ना

550.0

53693

(सब्जियाँ-कुल एकड औसत के आधार पर)

आलू

182.40

13.20

प्‍याज

7.400

22.90

मटर

10.70

5.90

अन्‍य सब्जियाँ

30.20

29.80

 

1. राम शरण वर्मा - ग्राम दौलतपुर
2. अनिल कुमार - ग्राम मलूक पुर
3. राहुल व रचना मिश्रा - ग्राम सरैया
4. मुइनुद्दीन - ग्राम दफेदार पुरवा

दौलतपुर (बाराबंकी) : रामशरण ईजार करते हैं किसानी के नये-नये तरीके - लखनऊ-फैजाबाद हाइवे पर, बाराबंकी से पूर्व की ओर 20 किमी दूर दौलतपुर गाँव का ये किसान अब लोगों का प्रेरणास्रोत बन चुका है। किसानों को हाईटेक खेती करने की सलाह देने के साथ ही खुद भी रामशरण उन्नत तरीकों को काफी अपनाते है, मिट्टी की जाँच, अच्छे किस्म के बीज, उन्नत तकनीक और उचित खाद का प्रयोग कर भरपूर सफलता पाई। रामशरण बताते हैं, शुरूआत धान, गेहूँ की खेती से की लेकिन उसमें भी प्रयोगों को जारी रखा। खेती में कुछ नया करने की चाह हमेशा ही बनी रही, फिर एक मैगज़ीन से केले की खेती के बारे में जानकारी मिली और केले की खेती करने की ठान ली।

केले की खेती के लिये वर्ष 1990 में सबसे पहले एक कंपनी से पौध खरीदी और खेती शुरू की, बाद में टिश्यूकल्चर से ग्रीन हाउस में पौध तैयार करनी भी शुरू कर दी जिसमें अपार सफलता मिली। मात्र 6 एकड़ पैत्रक भूमि पर उन्नत खेती शुरू करने वाले रामशरण आज करीब 90 एकड़ के कास्तकार हैं, जिसमें से 84 बीघा भूमि लीज पर ले रखी है इस समय 50 एकड़ केला, 10 एकड़ टमाटर, 15 एकड़ मेन्था और 25 एकड़ में आलू की खेती कर रहे हैं। रामशरण वेबसाइट के जरिए भी किसानों को खेती के नये प्रयोगों से अवगत कराते हैं। वेबसाइट को अपडेट करने में लखनऊ में बीबीए कर रहा उनका बेटा भी मदद करता है। उनकी तमन्ना है कि बेटा भी खेती से जुड़े और उसे आगे बढ़ाए।

रामशरण बाते हैं, बाहर जाने के लिये हमेशा हवाई जहाज में सफर करना और ब्रांडेड कपड़े पहनना मेरा शौक है। हवाई जहाज का टिकट खरीदना, मेरे लिये बस का टिकट खरीदने जैसा है मेरे परिवार सालाना खर्च करीब 10 लाख रूपये है। खेती के साथ-साथ रामशरण सलाहकार की भूमिका में भी सक्रिय रहते हैं, आस-पास के गाँवों के अलावा पूरे राज्य से लोग उनसे खेती के गुर सीखने के लिये आते रहते हैं, और वे भी उनसे खुशी-खुशी अपने अनुभवों को साझा करते हैं। जो नि:शुक्ल फोन पर जानकारी चाहते हैं उनकी फोन से मदद करते हैं।

रायबरेली से खेती के गुर सीखने आए विवेक सिंह बताते हैं, ‘‘रामशरण के बारे में जानकारी इंटरनेट से मिली जिसके बाद फोन पर बात होने के बाद उनसे मिलने आए हैं, मैं भी केले की खेती शुरू करना चाहता हूँ’’।

इतना ही नहीं रामशरण किसानों को पौध भी तैयार करके देते हैं जिसके लिये अग्रिम बुकिंग करनी पड़ती है। फार्म हाउस पर अपने संसाधनों से साल में एक बार किसान मेला भी आयोजित करते हैं जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। जिला, राज्य व भारत सरकार की कई कमेटियों के सदसय रामशरण को समय-समय पर योजना आयोग की बैठक में भी शामिल होना होता है, साथ ही राज्य सरकार के लिये भी सलाहकार की भूमिका निभा रहे हैं। राज्यपाल बीएल जोशी समेत देश-विदेश के कई नेता और वैज्ञानिक उनकी सफलता का राज जानने उनके फार्म हाउस पर आ चुके हैं। कृषि में उनकी अपार सफलता के चलते उन्हें जगजीवन राम पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से नवाजा भी जा चुका है।

साल 2011-12 में कृषि का योगदान 12.9 फीसदी रहा, अगर आँकड़ों पर गौर करें तो 2001 की जनगणना के हिसाब से करीब 58 फीसदी को कृषि क्षेत्र से रोजगार मिलता है साफ है कि कृषि पर आश्रित लोगों की अपेक्षा जीडीपी में अनुपात बहुत कम है। अगर उन्नत खेती को अपनाया जाए तो जीडीपी में कृषि के अनुपात में काफी बढ़ोत्तरी हो सकती है। रामशरण चाहते हैं कि अधिक से अधिक लोग परंपरागत खेती को छोड़कर उन्नत खेती के तरीके अपनाएँ ताकि इसे घाटे का सौदा न कहा जाए ऐसा नहीं है कि कम पढ़े-लिखे लोग इस तरह से खेती नहीं कर सकते हैं।

फसल चक्र अपनाने की सलाह- रामशरण अपने खेतों में फसल चक्र के हिसाब से खेती करते हैं। उनका मानना है कि इसे अपनाकर अगर खेती की जाए तो कम लागत में ज्यादा कमाया जा सकता है। यह चक्र तीन साल का होता है। फसल चक्र समझाते हुए कहते हैं कि अगर एक खेत में केले की खेती की जाती है और पेड़ी की फसल को मिलाकर 25 महीने खेत में फसल खड़ी रहती है उसके बाद आलू बो दिया जाता है जिसमें 4 माह का समय लगता है और खेत की जुताई भी ठीक से हो जाती है फिर मेथा लगा दिया जाता है जिसमें 3 माह लगते हैं बाकी समय में टमाटर या फिर हरित खाद के लिये धैन्चा बो देते हैं या परती छोड़ दिया जाता है, जिससे कम खाद और पानी से अधिक पैदावार की जा सकती है इस तरह से एक फसल चक्र पूरा हो जाता है।

पौधों पर करते हैं शोध- रामशरण कोई नई प्रजाति का बीज या पौध अपनाने से पहले उस पर शोध भी करते हैं जैसे अलग-अलग किस्म के पौधों को समान खाद और पानी दिया जाता है। इन पौधों को एक ही तापमान में भी रखा जाता है जिसमें सबसे ज्यादा पैदावार होती है, पौधे के उसी किस्म की आगे खेती की जाती है साथ ही इन्हीं पौधों को दूसरे किसानों को भी खेती करने के लिये दिया जाता है।

मलूकपुर (बाराबंकी) : बूँद-बूँद पानी से सिंचाई कर बढ़ा रहे मुनाफा- जिले के कई गाँवों में कई किसान खेती में सिंचाई के लिये टपका सिंचाई जैसी नवीन पद्धति को अपना रहे हैं, इससे न सिर्फ उनकी लागत घटी और मुनाफा भी बढ़ा। बाराबंकी जिला मुख्यालय के पश्चिम में मलूकपुर के अनिल कुमार, राजेश कुमार, शशिकांत व विमल कुमार जैसे कई किसान ड्रिप सिंचाई विधि से खेती कर रहे हैं। अनिल कुमार कहते हैं, ‘‘मैं केले व सब्जी की खेती ड्रिप सिंचाई विधि से करता हूँ, खरबूजे की खेती के ड्रिप के साथ-साथ मलचिंग भी की थी जिससे लगभग 1,00,000 रूपए प्रति एकड़ का शुद्ध लाभ केवल तीन माह की फसल में हुआ था।’’ प्राकृतिक पानी का 70 प्रतिशत उपयोग कृषि के लिये होता है।

.टपका तकनीक की मदद से सिंचाई के दौरान पानी की बर्बादी को रोका जा सकता है। ड्रिप प्रणाली या टपका सिंचाई प्रणाली में सीधे पौधे की जड़ के पास ड्रिप लगाकर बूँद-बूँद कर पानी दिया जाता है। फसलों की पैदावार बढ़ने के साथ-सथ ड्रिप सिंचाई तकनीक की विधि से रसायन एवं उर्वरकों का दक्ष उपयोग करते हुए खरपतवारों की वृद्धि में कमी सुनिश्चित की जा सकती है। ड्रिप विधि की सिंचाई 80-90 प्रतिशत सफल होती है। यह विधि मृदा के प्रकार, खेत के ढाल, जलस्रोत और किसान की दक्षता के अनुसार अधिकतर फसलों के लिये अपनाई जा सकती है। यह एक ऐसा सिंचाई तंत्र है जिसमें जल को पौधों के मूलक्षेत्र के आस-पास दिया जाता है।

ड्रिप सिंचाई से लाभ


1. जरूरत के अनुरूप पौधों को प्रतिदिन पानी मिलता है।

2. पानी को पूरे खेत में न भरकर केवल पौधों की जड़ के पास डाला जाता है जिससे पानी की 70 प्रतिशत तक की बचत होती है।

3. समय कम लगने से ईंधन अथवा बिजली की बचत होती है।

4. उर्वरकों व रसायनों का प्रोग वेंचुरी द्वारा पूरे खेत में न करके केवल पौधों की जड़ में किया जाता है जिससे उर्वरक की लगभग 30 प्रतिशत तक की बचत होती है।

5. चूँकि इस पद्धति में पानी पूरे खेत में न देकर केवल पौधों के जड़ क्षेत्र में दिया जाता है इसलिए खर-पतवार न के बराबर होते हैं।

6. इस विधि में क्योंकि पानी पूरे खेत में नहीं भरा जाता है इसलिए खेत की मिट्टी भुरभुरी व उपजाऊ बनी रहती है तथा फसल की जड़ों में हवा पहुँचती रहती है और हमें गुड़ाई की जरूरत नहीं पड़ती है।

7. पानी लगाने में, खाद देने में, निराई करने व गुड़ाई करने आदि में 50 प्रतिशत तक की मजदूरी लागत की बचत होती है।

8. मलूकपुर के ही निवासी राजेश कुमार ने केले के खेत में ड्रिप सिंचाई तकनीक लगाई है। वो बताते हैं, ‘‘इससे पानी की तो बचत होती ही है साथ में लेबर व खाद में भी बचत होती है। खाद देने के लिये हमें खेत के अंदर नहीं जाना पड़ता है। बोरिंग से ही खाद बिना किसी लेबर के खेत के हर एक पेड़ को 15-20 मिनट में मिल जाती है।’’

पास के गाँव सफीपुर के निवासी किसान पंकज वर्मा मुख्यत: सब्जियाँ उगा रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैंने खरबूजे व शिमला मिर्च, टमाटर व अन्य सब्जियों में ड्रिप सिंचाई अपनाई है। मेरे पास केवल 15 बीघे खेत हैं जिसमें मैंने पूरे खेत में ड्रिप सिंचाई तकनीक लगाई है। मैं अपना बिजनेस भी करता हूँ, जिसक वजह से खेती को मैं ज्यादा समय नहीं दे पाता। ड्रिप सिंचाई विधि से खेती करने पर मेरा काम आसान हो जाता है।’’ मसौली ब्लॉक के सिसवारा गाँव के अनूप कुमार बताते हैं। अनूप ने केले के खेतों में ड्रिप सिंचाई तकनीक लगवाई हुई है।

फतेहपुर (बाराबंकी) : विदेश जाकर समझ आई खेती की अहमियत


एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से इस्तीफा देने के बाद 3 नवंबर 2008 को राहुल मिश्रा (40) ने अपनी गाड़ी में गैस चूल्हा और सिलेंडर, पानी की दो बड़ी बोतलें रखीं, दो पालतू कुत्तों को बैठाया और पत्नी बेटे के साथ दिल्ली से अपने गाँव पहुँचकर खेत में तम्बू गाड़ दिया। राहुल उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के गाँव सरैंया में खेती करने पहुँचे थे। अपने गाँव लौटकर खेती करने का यह फैसला उन्होंने विदेश भ्रमण के दौरान लिया, जब वहाँ देखा कि कैसे खेती को व्यापारिक रूप दिया जा सकता है। इनोवेटिव फॉर्मर्स अवार्ड और उद्यान रतन अवार्ड पा चुके राहुल मिश्रा का अपने गाँव से लगाव बचपन से ही रहा है। वह बाते हैं पिताजी सेना में थे और इस कारण हम पूरे देश में घूमते रहते थे, पर गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जरूर आते थे। जिससे गाँव से लगाव शुरू से ही था।

पढ़ाई लिखाई पूरी करने के बाद 15 साल चार बड़ी कंपनियों में नौकरी भी की, पर अपने गाँव की मिट्टी की खुशबू कभी भूल नहीं सका। यही कारण है जब मौका मिला तुरंत ही गाँव पहुँच गया। एमबीए पास मैनेजर से किसान बनने का राहुल का सफर बड़ा ही रोचक रहा। वह यादों को ताजा करते हुए बताते हैं, जब मैं गाँव पहुँचा तो लोग बड़े अचंभे में थे, वह सोच रहे थे कि मैं कर पाऊंगा भी कि नहीं, लेकिन मैंने अपने इरादों से साफ जता दिया कि भैया पीठ तो नहीं दिखाऊंगा। गाँव पहुँचने पर मैंने तालाब भरवाया और दो एकड़ जमीन पर खेती शुरू की। एक पॉली हाउस लगाया और बाकी खुले में खेती करना शुरू कर दिया। जरबरो की खेती पॉली हाउस में और रजनी गंधा की खुले में शुरू की। कभी खेती तो की नहीं थी, इसके लिये भी अलग तजुर्बा है इनका, कहते हैं, हमने पूरी खेती इंटरनेट से सीख-सीख कर ही की।

.जहाँ कहीं भी फँसते थे इंटरनेट पर सर्च कर लेते थे। राहुल आज विदेशों को फूल सप्लाई करते हैं, और उनके देश में बड़े-बड़े कस्टमर भी हैं, जैसे- बड़ी कंपनियों में और होटलों में इनके खेत के फूल खुशबू बिखेर रहे हैं। लोगों के ड्राइंग रूम में खुशबू बिखेरने के बाद अब राहुल फल और सब्जी की खेती के जरिए रसोईघर तक पहुँचने की तैयारी में हैं। जिसकी तैयारी उनहोंने कर ली है, और बहुत जल्द इसे शुरू कर देंगे। राहुल के इस मिशन में उनकी पत्नी रचना मिश्रा का पूरा साथ मिला। अपने नाम के अनुरूप आठ किताबों की रचना कर चुकी रचना को कभी गाँव जाने से परहेज नहीं रहा। वह अकेले ही खेतों में जाकर वहाँ से फूल और पौधे ले आती हैं। हालाँकि गाँव तक पक्की सड़क न होने की वजह से कार नहीं जाती। यह पूछने पर कि वह कैसे जाती हैं? तो दुकान के बाहर माल ढोने की गाड़ी की ओर इशारा करते हुए रचना कहती हैं, मैं इससे ही जाती हूँ, क्योंकि कार नहीं जा सकती वहाँ तक।

दफेदार पुरवा (बाराबंकी) : फूलों की खेती


फूलों की मनमोहक खुशबू और कुदरती डिजाइन पर शायद ही कोई ऐसा होगा जो फिदा न हो। लेकिन कमाल की बात तो तब है जब खूबसूरती के साथ अच्छी कमाई भी हो। ऐसे ही एक शख्स हैं मुइनुद्दीन जिन्होंने महज 35 साल की उम्र में फूलों की खेती में वो मुकाम हासिल किया है जो अन्य किसानों के लिये मिसाल है। लखनऊ से करीब 20 किमी की दूरी पर बाराबंकी जिले में दफेदार पुरवा गाँव है। यहाँ लगभग 25 एकड़ के क्षेत्र में मुइनुद्दीन ने फूलों की खेती को एक नया आयाम दिया है। सिर्फ फूल ही नहीं साथ में ऐसी कई और फसलें भी मुइनुद्दीन उगाते हैं जिनकी बाजार में भारी मांग होती है यानि काफी अच्छे पैसे मिल जाते हैं। सामान्य खेती को कारोबार में बदलने वाले मुइनुद्दीन ने कई रोचक बातों से रूबरू कराया। मुइद्दीन बताते हैं, मैंने सन 2000 में डिग्री के तौर पर एलएलबी तो कर ली लेकिन मेरा मन वकालत में नहीं लगता था। हमेशा से कुछ नया और अलग करने की चाह रहती थी।
मुझे फूल बहुत अच्छे लगते थे तो मैंने सोचा कि अगर इनकी खेती की जाए तो कैसा रहेगा। फिर मैंने एक बीघा जमीन में ग्लाइडोलस जोकि हॉलैण्ड का फूल है उसकी खेती की। ये मेरी शुरूआत थी। पहली फसल में कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ लेकिन एक नया बाजार तैयार होता नजर आने लगा। मैंने फिर ग्लाइडोलस, जरवेरा, रजनीगंधा जैसे फूलों की उपज शुरू कर दी आज ये आलम है कि मेरा सालाना टर्नओवर लगभग 50 लाख रूपये का हो चुका है और लगातार बढ़ रहा है।
.आज पूरे देश में ग्लाइडोलस की सबसे ज्यादा पैदावार उनके पास होती है। विधानसभा से लेकर संसद भवन तक इन्हीं के फूलों की खुशबू है। उत्तर प्रदेश के अलावा मुंबई, गुजरात, दिल्ली सहित कई प्रदेशों में मुइनुद्दीन के फूलों का जलवा कायम है। इसके साथ ही साथ मुइनुद्दीन के फूलों कुवैत, शारजाह आदि देशों में भी अपनी खुशबू फैलाते हैं। उनका कहना है जिले के अधिकारियों से भी खेती के संबंध में काफी मदद मिलती है। फूलों की ये सफल दुनिया बसाने में मुइनुद्दीन की जी तोड़ मेहनत शामिल है। मुइनुद्दीन लखनऊ में रहते हैं और इनके खेत बाराबंकी जिले में हैं। यानि घर से खेत तक की दूरी करीब 35 किमी है जो की रोज ही इनको तय करनी होती है। खेत में लगभग 100 लोगों का समूह काम करता है।
साथ में कभी-कभी खुद भी लगना पड़ता है। दूसरे शहरों तक इन फूलों को भेजने के लिये उनकी पैकिंग, भेजने के साधन का इंतजाम मुइनुद्दीन को खुद ही दुरुस्त करना होता है। अब जरवेरा को ही ले लीजिए हॉलैण्ड का फूल होने के कारण इसको कम तापमान की जरूरत होती है जोकि गर्मियों में सबसे बड़ी चुनौती है। इसका हल मुइनुद्दीन ने पॉलीहाउस से निकाला है। ये वो तकनीक है जिससे इजरायल में खेती की जाती है। उसी तर्ज पर मुइनुद्दीन ने यहाँ करीब 11000 वर्ग फुट में एक खास तरह की प्लास्टिक और जाल से पॉली हाउस बनाया गया है। जोकि इजराइल से मंगाई जाती है। इसमें पानी को प्रेशर पंप के जरिए महीन फुहारों और बूँद-बूँद के रूप में छोड़ा जाता है। पॉली हाउस में बाहर के मुकाबले तापमान कम होता है जिसको तापमान मीटर से नियंत्रित किया जाता है। इसमें थोड़ी भी लापरवाही हुई तो फूलों का सूखना तय है और भारी नुकसान भी। इतनी मेहनत का ही नतीजा है कि मुइनुद्दीन का नाम बाबू जगजीवन राम पुरस्कार के लिये नामांकित किया गया है। ये पुरस्कार किसानों को फसल की सर्वश्रेष्ठ पैदावार के लिये दिया जाता है।
आज गाँव के ज्यादातर किसान पारंपरिक फसलों को छोड़ कर जरवेरा और ग्लाइडोलस उगा रहे हैं और अच्छे पैसे भी कमा रहे हैं। कुछ अलग करने की चाह ने ही एक वकील को किसान और किसान को व्यापारी बना दिया। इस क्षेत्र में जो मुकाम मुइनुद्दीन नें हासिल किया है वो एक मिसाल है पूरे देश के किसानों के लिये। अगर वे भी इस राह को अपनाते हैं तो वो दिन दूर नहीं जब हर गाँव में मुदनुद्दीन जैसे कई किसान बाबू जगजीवन राम की दौड़ में शामिल होंगे।

 

इनकी खेती है फायदे का सौदा

 

केला

मेंथा

संकर टमाटर

आलू

क्षेत्रफल

1 एकड़

1 एकड़

1 एकड़

1 एकड़

पैदावार

400 कुंतल

1 कुंतल

450 कुंतल

250 कुंतल

खर्च

70,000 रुपये

20,000 रुपये

62,000 रुपये

45,000 रुपये

बिक्री मूल्‍य

615 रु. प्रति किलो

1200 रु. प्रति किलो

500 रु. प्रति किलो

700 रु. प्रति कुंतल

कुल लाभ

2,46,000 रुपये

1,20,00 रुपये

2,25,000 रुपये

1,75,000 रुपये

शुद्ध लाभ

1,76,000 रुपये

1,00,000 रुपये

1,63,000 रुपये

1,30,000 रुपये

 

 
संदर्भ
1. जागरण.कॉम
2. यात्रा.कॉम
3. बाराबंकी - भारतकोश ज्ञान का महासागर
4. बाराबंकी - विकिपीडिया

सम्पर्क


अर्चना राजन एवं धर्मवीर
रीडर, वनस्पति विज्ञान, प्रवक्ता वाणिज्य विभाग, संत कवि बाबा बैजनाथ राजकीय स्रातकोत्तर महाविद्यालय, हरख, बाराबंकी-225121, युपी, भारत, Rajanarchana2572@gmail.com, dvsgunja@gmail.com


प्राप्त तिथि- 17.06.2015, स्वीकृत तिथि-20.08.2015