दीप जोशी
धरती से जल के दोहन के बदले कितना जल वापस धरती में जाना चाहिए? इस संबंध में दुनिया भर के वैज्ञानिकों में आम राय यह है कि साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर रिचार्ज के लिए जाना चाहिए, तभी बिना हिमनद वाली नदियों और जल स्रोतों से लगातार पानी मिल सकेगा।
शोध के मुताबिक, कुल बारिश का औसतन 13 प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर जमा हो रहा है। देश के पूरे हिमालयी क्षेत्र में भी कमोबेश यही स्थिति है। जब हिमालयी क्षेत्र में ऐसा है, तो मैदानों को कैसे पर्याप्त जल मिलेगा? धरती के भीतर पानी जमा न होने के कारण एक ओर नदियां व जलस्रोत सूख रहे हैं, तो दूसरी ओर, बरसात में मैदानी इलाकों में बाढ़ की समस्या विकट होती जा रही है। वर्ष 1982 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने पूर्वी अमेरिका के कुछ घने वनों में शोध करके यह निष्कर्ष निकाला कि साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर जमा होना चाहिए, तभी संबंधित क्षेत्र की नदियों, जल स्रोतों आदि में पर्याप्त पानी रहेगा।
वैज्ञानिक भाषा में भूमिगत जल के तल को बढ़ाना रिचार्ज कहा जाता है। रिचार्ज का स्तर 31 प्रतिशत से थोड़ा नीचे रहे, तो ज्यादा चिंता की बात नहीं, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र के वनों में पानी के रिचार्ज के संबंध में कराए गए एक अध्ययन के जो परिणाम निकले हैं, वे अनुकूल नहीं हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के प्रोफेसर व नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम के प्रिंसिपल इंवेस्टीगेटर प्रो. जे.एस रावत ने छह साल तक पर्वतीय क्षेत्र पर केन्द्रित अपने एक अध्ययन में जो स्थिति पाई, वह वास्तव में चिंताजनक है। शोध में उन्होंने पाया कि बांज के वन क्षेत्र में बारिश के पानी का रिचार्ज 23 प्रतिशत, चीड़ के वन क्षेत्र में 16 प्रतिशत, कृषि भूमि में 18, बंजर भूमि में पांच तथा शहरी क्षेत्र में मात्र तीन प्रतिशत है। यदि औसत निकाला जाए, तो रिचार्ज का यह स्तर मात्र 13 प्रतिशत है, जो मानक से 18 प्रतिशत कम है। शहरी क्षेत्र में तो रिचार्ज की स्थिति और भी चिंताजनक है। सड़कें, भवन और अन्य निर्माण कार्यों के कारण शहरी इलाकों में बारिश का तीन प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर जमा हो पाता है, जबकि शहरों में पानी की खपत गांवों की अपेक्षा कई गुना अधिक है।
प्रो. रावत का कहना है कि बारिश से आने वाला पानी पर्याप्त मात्रा में धरती के भीतर जमा नहीं होगा, तो गरमी के दिनों में जलस्रोतों और गैर हिमनद नदियों का सूखना निश्चित है। उनका कहना है कि रिचार्ज का स्तर गिरने से ही पहाड़ में जल स्तर कम हो गया है, क्योंकि धरती के भीतर पानी जमा नहीं होगा, तो गरमी के मौसम में एक स्तर के बाद जल स्रोतों से पानी आना बंद हो जाएगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक नदियों का जलस्तर भी इसी कारण कम हो जाता है। यही आज की स्थिति है। वैज्ञानिकों के अनुसार, आबादी तेजी से बढ़ने और वनों का क्षेत्रफल घटने से रिचार्ज का स्तर घट रहा है। भवनों, सड़कों तथा अन्य निर्माण कार्यों से अधिकांश भूमि कवर हो जाती है। ऐसे में बारिश का पानी धऱती के भीतर नहीं जा पाता। इसलिए नगरीय क्षेत्रों में जल स्रोतों का पानी तेजी से कम होता जा रहा है।
दूसरी तरफ, सघन वनों में रिचार्ज का स्तर अधिक होता है, क्योंकि बारिश का पानी पत्तों से टकराकर धीरे-धीरे भूमि पर पहुंचता है और रिसकर भूमि के भीतर जमा हो जाता है। बर्फबारी से भी पानी का रिचार्ज बहुत अच्छा होता है। बर्फ की मोटी परत जमने के बाद पानी बहुत धीरे-धीरे पिघलता है और रिसकर धीरे-धीरे जमीन के भीतर चला जाता है। इसके अलावा चौड़ी पत्ती वाले वन क्षेत्रों में रिचार्ज का स्तर अधिक होता है, जबकि वृक्ष रहित स्थानों, आबादी क्षेत्रों में पानी तेजी से बहकर निकल जाता है। यह पानी नदियों के जरिये बहकर समुद्र में पहुंच जाता है। हिमालयी क्षेत्र में बारिश का अधिकांश पानी बह जाने से मैदानी इलाकों में बाढ़ की विकराल समस्या की वजह यही है।
उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या काफी बढ़ गई है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, यदि यही स्थिति रही, तो भविष्य में जहां हिमालयी क्षेत्र में पानी का संकट बढ़ेगा, वहीं मैदानी इलाकों में बाढ़ की समस्या और विकट हो सकती है। बीते दो-तीन दशकों में नदियों के इर्द-गिर्द आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है। नदियों व जलस्रोतों के आसपास निर्माण बढ़ने से भी पानी को नुकसान पहुंचा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि रिचार्ज का स्तर बढ़ाने के लिए वन क्षेत्र में निरंतर वृद्धि जरूरी है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में देवदार, बांज, काफल, आंवला जैसी प्रजाति के पौधे अधिक से अधिक लगाने की जरूरत है। साथ ही, चीड़ के वनों का प्रसार रोकना होगा तथा बारिश का पानी धरती पर रोकने के लिए प्रयास करने होंगें। उन्होंने इसके लिए नदियों के जल संग्रहण क्षेत्रों में चेक डैम व खनकी (गड्ढे) बनाने का भी सुझाव दिया है। इनमें बारिश का पानी भरने से अधिक से अधिक पानी धरती के भीतर जाता है। कुछ क्षेत्रों में इस तरह के काम शुरू भी हुए हैं, लेकिन अभी इसे व्यापक रूप देने की जरूरत है।
अमर उजाला (देहरादून), 22 May, 2006