मृदा एवं जल संरक्षण विधियों द्वारा वर्षा की बूंदों को भूमि की सतह पर रोककर मृदा के विखराव को रोका जा सकता हैं। इसमें सतही अपवाह को रोककर भूमि में निस्तारण भी शामिल है। मृदा संरक्षण की व्यवहारिक विधियों को कृष्य एवं अकृष्य दोनों प्रकार की भूमि पर अपनाना चाहिए। इन विधियों द्वारा उपजाऊ ऊपरी मृदा परत के संरक्षण के साथ-साथ भूमि में जल का संरक्षण भी हो जाता है। ये विधियॉं वानस्पतिक या सस्य विज्ञानात्मक तथा अभियांत्रिक या यांत्रिक भी होती है, जिनका विवरण निम्नवत् है –
कृष्य भूमि पर वानस्पतिक विधियॉं -
• समोच्च-रेखीय कृषि कार्य अर्थात सभी कृषि कार्य जैसे जुताई, बुवाई, निराई-गुड़ाई आदि को समोच्च रेखाओं पर या भूमि के ढाल के विपरीत दिशा में करना (विशेषकर अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में)।
• एक खेत में विभिन्न फसलों की क्रमशः पट्टियां बनाकर खेती करना (स्ट्रिप क्रोपिंग)। इसमें भूक्षरणकारी फसलों (मक्का, कपास, आलू आदि) तथा भूक्षरणरोधी फसलों (सोयाबीन, बाजरा, मूंग आदि) को क्रमशः पट्टियों में बोया जाता है। फसलों को भूमि के ढाल के विपरीत दिशा में पट्टी बनाकर भी बोया जाता है, जिसे क्षेत्र-पट्टीदार खेती कहते हैं। कहीं पर समोच्च रेखीय पट्टियों की चौड़ाई समान रखी जाती है, जिसे बफर-पट्टीदार खेती कहते हैं तथा इसमें पट्टियों के बीच के स्थान पर घास या फलीदार फसलें बोयी जाती है।
समोच्च रेखीय पट्टीदार खेती
पलवार जुताई हेतु खेत में पूर्व फसलों के अवच्चेषों पर जुताई की जाती है ताकि भूक्षरण रोका जा सके। पूर्व फसलों के अवशेष खेत में पलवार का काम करते हैं जिससे भूमि संरक्षण के साथ नमी संरक्षण भी हो जाता है।
कृष्य भूमि पर यांत्रिक विधियॉं-
• छः प्रतिशत तक ढालू भूमि पर जहॉं भूमि की जल-शोषण क्षमता अधिक हो तथा 600 मिमी प्रतिवर्ष से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में समोच्च-बन्ध बनाकर खेती की जानी चाहिए ताकि एक समान ढाल की लम्बाई कम की जा सके तथा दो बन्धों के बीच की भूमि पर खेती की जा सके। इस प्रकार भूमि एवं नमी संरक्षण साथ-साथ हो जाते हैं।
• 600 मिमी0/वर्ष से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बन्धों को लम्बाई के अनुरूप थोड़ा ढालू बनाया जाता है ताकि अतिरिक्त अपवाह सुरक्षित रूप से बाहर निकाला जा सके।
• अधिक ढालू भूमि के ढाल की लम्बाई को कम करने की संरचना वेदिका कहलाती है तॉकि भूक्षरण न हो सके। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में ढाल की लम्बाई के साथ ढाल की तीव्रता भी कम की जाती है, ऐसी संरचना को बैंच वेदिका कहते हैं। बैंच वेदिका के चार भाग होते है- चबूतरा, राइजर, निकास नाली तथ कंधा-बन्ध। चबूतरे पर खेती की जाती है जिसका ढाल अन्दर की ओर (अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में) या बाहर की ओर (कम वर्षा वाले क्षेत्रों में)।
अकृष्य भूमि पर संरक्षण विधियां -
जलागम क्षेत्र से बड़ी मात्रा में बहने वाले अपवाह को बिना भूक्षरण किए सुरक्षित निकास हेतु संरक्षण संरचनाओं की आवश्यकता होती है। अकृष्य भूमि का निम्नीकरण रोकने हेतु स्थान विशेष की आवश्यकतानुसार वानस्पतिक एवं यांत्रिक विधियॉं अपनायी जा सकती है ताकि इस भूमि की उपयोगिता पेड़ (लकड़ी, फल व चारा हेतु) लगाकर बढ़ाई जा सके। इस कार्य हेतु निम्नलिखित विधियॉं शामिल हैं -
• समोच्च-रेखीय गड्ढे खोदना जो एक लाइन में या अलग भी हो सकते हैं।
• वनस्पति-रहित व क्षरित भूमि पर वृक्षारोपण करना ताकि आगे भूक्षरण न हो सके।
• गदेरों में स्थानीय वस्तुओं (वनस्पति, पत्थर, लकड़ी आदि) को प्रयोग करके लगभग 5 वर्षो तक अस्थाई संरचनाएं बनाकर भूक्षरण रोका जा सकता है ताकि प्राकृतिक व रोपित पौधों का विकास हो सके। ये संरचनाएं मुख्यतः हैं झाड़ी-लकड़ी डैम, पत्थर-डैम, लकड़ी-पट्टा डैम, जाली-पत्थर डैम आदि।
• जिन स्थानों पर अस्थाई संरचनाएं अपर्याप्त हैं तथा वहॉ भूक्षरण नियन्त्रण आर्थिक व सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक है, वहॉं स्थाई संरचनाएं बनायी जाती हैं, जिनकी कार्यावधि 25 वर्ष से अधिक है। इन संरचनाओं की बनावट गत कई वर्षो के आंकड़ों, गदेरे की नाम व आकार, ढाल, मृदा बनावट पर निर्भर करती है।
• स्थाई संरचनाएं मुख्यतः है - ड्राप संरचना (3 मी0 ऊंचाई से पानी गिराने हेतु), ड्राप-प्रवेश संरचना (3-4 मी0 ऊंचाई से पानी गिराने हेतु) तथा शूट संरचना (6 मी0 ऊंचाई से पानी गिराने हेतु)।
अपवाह नियंत्रण -
जलागम में खेतों के ऊपरी भाग पर अनियंत्रित अपवाह द्वारा सम्भावित भूक्षरण से खेतों को बचाने की दृष्टि से नालों का निर्माण आवश्यक है ताकि भूसंरक्षण के साथ-साथ निचले भाग में संरचनाओं की भी सुरक्षा हो सके। इनकी कार्यावधि लगभग 10 वर्ष है।