जल संचयन के कार्य में जस्त चढ़े लोहे के तारों के जाल औरे पोलीथीन के बोरों का नवीन प्रयोग किया गया है। यह तरीका किफायती है और भारतीय परिस्थितियों में उपयोगी भी। प्रस्तुत है पदमपुरा पनढाल में हुए इस प्रयोग का विवरण खुद इसके प्रवर्तक की कलम से।
आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-संरक्षण का एक बड़ा कार्यक्रम चलाया गया है। यह हमारे सूखाग्रस्त क्षेत्रों के बहुमुखी विकास को गति प्रदान करेगा।
पशुपालन, कृषि वानिकी, बागवानी, मत्स्यपालन, रेशम-उत्पादन व प्राथमिक कृषि प्रसंस्करण आदि विविध गतिविधियों को भी मृदा और जल संरक्षण कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। एक खास बात और मृदा और जल संरक्षण के लिए मात्र अभियांत्रिक ढांचे की बजाय अब जोर वानस्पतिक उपायों पर है।
मुख्य उद्देश्य मृदा और जल संरक्षण के वानस्पतिक विधि स्थापित करने के लिए भी कम कीमत के अभियांत्रिक ढांचों की जरूरत पड़ जाती है। इसके पीछे मुख्य विचार यह है कि आरम्भ के कुछ वर्षों में मृदा और जल संरक्षण का काम यांत्रिक ढांचे प्रभावी रूप से करते हैं, तब तक वानस्पतिक साधनों को जड़ जमाने का समय मिल जाता है।
यही सोच कर इस लेखक और उसके साथियों ने पदमपुरा राष्ट्रीय पनढाल (पदमपुरा नेशनल वाटरशेड), जयपुर में कम कीमत के अभियांत्रिक ढांचों की कल्पना की, उनकी डिजाइन बनाई और निर्माण किया जिनमें जी. आई. (जस्ते चढ़े लोहे के) तारों के जाल और पौलीबैगों का प्रयोग किया गया।
ढांचे में सीमेंट के खाली पोलीबैगों को प्रयोग किया गया। ये बैग सबडिवीजनल और डिवीजन कार्यालयों में बहुतायात से मिल जाते हैं और इनका कोई अन्य महत्वपूर्ण उपयोग भी नहीं है। इस प्रकार यह नई पध्दति परम्परागत पक्के अधिप्लवन मार्ग (ड्रापस्पिल वे) की अपेक्षा मात्र 20 प्रतिशत लागत में तैयार हो जाती है। यदि परम्परागत ढांचे का निर्माण कम-से-कम एक महीने में हो तो अपेक्षाकृत इस ढांचक के निर्माण में दो दिन से अधिक नहीं लगते। इस ढांचे की धारण शक्ति बिना अधिक लागत व समय के बढ़ाई व घटाई जा सकती है।
इस द्वारा चलाए जा रहे मृदा और जल संरक्षण कार्यक्रम का एक प्रमुख काम नालियों का उपचार करना है। इस उपचार के मुख्य उद्देश्य हैं
(1) नालियों का मजबूती प्रदान करना।
(2) मृदा और जल को नाली में रोकना ताकि वहां लगाए गए वानस्पतिक को मजबूती मिले।
(3) पानी के बहाव को सुरक्षापूर्वक प्रमुख नाली में मोड़ना। नाली में मिट्टी को रोकने वाले ढांचे वानस्पतिक उपायों को जमने में सहायता करते हैं। या उन स्थानों को सुरक्षा प्रदान करते हैं जिनका संरक्षण और किसी तरीके से सम्भव नहीं।
जब पानी का बहाव अधिक नहीं होता और सुस्थापित वानस्पतिक उपायों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है तो वनस्पति की जड़ें गहरी होने तक अल्पकालिक ढांचे भी नाली में बनाए जाते हैं। स्थायी ढांचों का प्रयोग केवल तब किया जाता है जब कम लागत वाले तरीके अव्यावहारिक होते हैं।
पदमपुरा मामले में पानी का बहाव तेज रहा है तो भी स्थायी ढांचों के बदले कम लागत के उपकरणों को प्रयोग सम्भव हो सका।
डिज़ाईन सम्बन्धी विचार
सामान : कम लागत की तकनीकों के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध सामान का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया गया। कार्यस्थल से 35 किलोमीटर दूर अच्छी किस्म के पत्थर उपलब्ध हैं। चूंकि इस क्षेत्र में चींटियों की समस्या है इसलिए लकड़ी के लट्ठों के ढांचे उचित नहीं। इसीलिए इस लेखक ने सीमेंट के खाली प्लास्टिक बैगों (बोरों) के प्रयोग के बारे में सोचा। ये बैग भी आसानी से बहुतायात में उपलब्ध हैं।
सर्वेक्षण और अन्वेषण : नाली का सर्वेक्षण किया गया। एल सेक्शन और क्रास सेक्शन की डिजाईनें बनाई गईं। नाली के आरंभ से अन्त तक ऐसे एल सेक्षन और क्रास सेक्शन वाले ढांचें अभिकल्पित किए गए जिनमें खर्च कम-से-कम आए और पानी ज्यादा-से-ज्यादा जमा हो।
कार्यप्रणाली : ढीली मिट्टी और जैव पदार्थ को हटाने के लिए 15 से 20 सें.मी. तक जमीन खोदी गई। इस पर जी.आई. नैट (जस्ते चढे लोहे के तार से बने जाल) को इस प्रकार फैलाया गया ताकि पोलीबैगों का समस्त ढांचा इसमें लपेटा जा सके। रेत से भरे और प्लास्टिक के धागे से सिले बैगों को इस प्रकार रखा गया जैसे सूखी चिनाई की दीवाल में ईंटें रखी जाती हैं। डिजाइन के अनुसार इन बोरों को रखने का कार्य पूरा होते ही इनको जी.आई तार के जाल में लपेट दिया जाता है ताकि यह एक इकाई बन जाए।
ढांचे के सामने का हिस्सा (ऐप्रन) सूखे गोल पत्थरों का बनाया जाता है। इन पत्थरों को भी जी. आई. तारों के जाल में लपेट देते हैं। इसकी नींव के लिए 10 से 20 सें.मी. जमीन खोदी जाती है। जी. आई. नैट को उस नींव पर फैला दिया जाता है। 20 से 30 सैं.मी. आकार के पत्थरों की सूखी चिनाई को जाल में लपेट दिया जाता है। नीचे के जाल के जोड़ को छोड़ कर एक ऊपर के जाल के जोड़ों से बाँध दिए जाते हैं। इस काम में भी जी.आई. तार प्रयुक्त किया जाता है। ऐसा पत्थरों को अपनी जगह जमने रहने के लिए किया जाता है। एप्रन के जाल को ड्राप के जाल से भी बाँध दिया जाता है। एक बारिष के बाद ढाँचे पर पानी के ऊपरी बहाव की ओर जब मिट्टी और पानी इकट्ठा हो जाएं तो वानस्पतिक अवरोधक लगा दिए जाते हैं।
विवेचन : ढाँचा जून के अन्तिम सप्ताह में बनाया गया था। इसके बाद वर्षा की दो ऋतएँ आईं। ढाँचा ज्यों-का-त्यों रहा। ऊपरी हिस्से में गाद भर गई और पानी इकट्ठा हुआ। एक बारिश के तुरन्त बाद ढाँचा और इसका कार्य निष्पादन चित्र संख्या 1 व 2 में दर्शाया गया है।
ऊपरी बहाव वाले हिस्से में पानी और गाद जमा हो जाने से ढाँचे के ऊपर व नीचे व दोनों और लगाए गए वानस्पतिक अवरोध अच्छी तरह से जक गए।
दूसरी वर्षा ऋतु में 25 जुलाई, 1992 को सांगानेर में तीन घन्टों में 180 मि.मी. बारिश हुई जो पनढाल से 20 कि.मी. दूर है। इस तेज बारिष ने सांगानेर के तमाम जलाषयों को तोड़ दिया और इसके कारण आई बाढ़ ने सांगानेर से लेकर पनढाल तक नीचे के लगभग समस्त जलाशयों और ढाँचों को तोड़ दिया लेकिन जी.आई. नैट और पोलीबैग से बने ढाँचे बचे रहे। पनढाल में भी तीन में से एक ढाँचा, बाढ़ के पानी में बह गया। ऐसा मिट्टी की अत्यधिक क्षरणीयता के कारण हुआ।
लाभ : इस प्रकार के ढाँचे अपेक्षाकृत कम ऊंचाई तक साधारणतया लगभग एक मीटर तक, काफी प्रभावी होते हैं। ये निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए भी प्रभावी तौर से प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
प्रमुख जल निकासी प्रणाली में 'ग्रेड की स्थिरता' कायम करने के लिए।
मृदा क्षरण नियन्त्रण के लिए।
मिट्टी और पानी का बहाव रोकने के लिए।
वानस्पतिक उपचार को सहायता देने के लिए।
तेजी से गाद जमा करने के लिए, जहां भी ऐसा जरूरी हो।
इस नवीन पद्धति के अनेक लाभ हैं :-
इस पद्धति में स्थायित्व अधिक है।
परम्परागत ढाँचों की अपेक्षा इसकी लागत कम आती है।
परम्परागत पक्के 'ड्रीपस्टिल वे' के चार या छ: सप्ताह के मुकाबले इसके निर्माण में एक या दो दिन लगते हैं।
पूर्व प्रयोग किए हुए सीमेंट के पोली बैगों का अच्छा उपयोग हो जाता है।
ढाँचे की धारणशक्ति बिना अधिक पैसा और समय खर्च किए बढ़ाई जा सकती है।
तुलनात्मक लागत : यह परम्परागत ढाँचों की तुलना में कम लागत का तरीका है। इसकी लागत लगभग आठ हजार रूपए आती है। जो परम्परागत ढाँचे की पाँचवाँ भाग है।
सीमा : यदि यह ढाँचा बिना वानस्पतिक अवरोध के बनाया जाता है तो यह अल्पजीवी होता है। अत: यह ढाँचा बरसात से पहले बना लेना चाहिए। ढाँचे के ऊपरी प्रवाह तथा निचले प्रवाह की ओर तथा नाली के दोनों ओर वानस्पतिक अवरोध बारिष के दौरान बाद लगा देने चाहिए। यह वनस्पति ऐसी हो जो जल्दी बढे अौर इसे पशु आदि न खाएं।
बुन्देलखण्ड के पठारों में मृदा एवं नमी संरक्षण
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसका प्रमुख व्यवसाय है कृषि एवं पशुपालन। कृषि पर निर्भर जनसंख्या की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं है जिसका प्रमुख कारण है खेती की अपनुपयुक्तता। इसका अर्थ है - 60 से 80 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई के साधनों की कमी, खेती योग्य भूमि का ढालू होना, समुचित खाद एवं उन्नत किस्म के बीजों का समय पर उपलब्ध न होना, वर्षा की अनियमितता आदि।
सामान्यत: सूखी अवस्थाओं में तथा विशेषत: सीमान्त बारानी क्षेत्रों में प्राय: कम, अस्थिर और लाभहीन उत्पादन होता है। इस प्रकार की भूमि की उत्पादन क्षमता की किसी-न-किसी तरह से ह्रास होता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ऐसे भूमि को उपयोग में लाना बहुत आवश्यक हो गया है। पेड़ों की निरन्तर कटाई से वानस्पतिक परत में कमी हो रही है जिससे भूमि का कटाव होता है जिसके कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है।
आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-संरक्षण का एक बड़ा कार्यक्रम चलाया गया है। यह हमारे सूखाग्रस्त क्षेत्रों के बहुमुखी विकास को गति प्रदान करेगा।
पशुपालन, कृषि वानिकी, बागवानी, मत्स्यपालन, रेशम-उत्पादन व प्राथमिक कृषि प्रसंस्करण आदि विविध गतिविधियों को भी मृदा और जल संरक्षण कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। एक खास बात और मृदा और जल संरक्षण के लिए मात्र अभियांत्रिक ढांचे की बजाय अब जोर वानस्पतिक उपायों पर है।
मुख्य उद्देश्य मृदा और जल संरक्षण के वानस्पतिक विधि स्थापित करने के लिए भी कम कीमत के अभियांत्रिक ढांचों की जरूरत पड़ जाती है। इसके पीछे मुख्य विचार यह है कि आरम्भ के कुछ वर्षों में मृदा और जल संरक्षण का काम यांत्रिक ढांचे प्रभावी रूप से करते हैं, तब तक वानस्पतिक साधनों को जड़ जमाने का समय मिल जाता है।
यही सोच कर इस लेखक और उसके साथियों ने पदमपुरा राष्ट्रीय पनढाल (पदमपुरा नेशनल वाटरशेड), जयपुर में कम कीमत के अभियांत्रिक ढांचों की कल्पना की, उनकी डिजाइन बनाई और निर्माण किया जिनमें जी. आई. (जस्ते चढ़े लोहे के) तारों के जाल और पौलीबैगों का प्रयोग किया गया।
ढांचे में सीमेंट के खाली पोलीबैगों को प्रयोग किया गया। ये बैग सबडिवीजनल और डिवीजन कार्यालयों में बहुतायात से मिल जाते हैं और इनका कोई अन्य महत्वपूर्ण उपयोग भी नहीं है। इस प्रकार यह नई पध्दति परम्परागत पक्के अधिप्लवन मार्ग (ड्रापस्पिल वे) की अपेक्षा मात्र 20 प्रतिशत लागत में तैयार हो जाती है। यदि परम्परागत ढांचे का निर्माण कम-से-कम एक महीने में हो तो अपेक्षाकृत इस ढांचक के निर्माण में दो दिन से अधिक नहीं लगते। इस ढांचे की धारण शक्ति बिना अधिक लागत व समय के बढ़ाई व घटाई जा सकती है।
इस द्वारा चलाए जा रहे मृदा और जल संरक्षण कार्यक्रम का एक प्रमुख काम नालियों का उपचार करना है। इस उपचार के मुख्य उद्देश्य हैं
(1) नालियों का मजबूती प्रदान करना।
(2) मृदा और जल को नाली में रोकना ताकि वहां लगाए गए वानस्पतिक को मजबूती मिले।
(3) पानी के बहाव को सुरक्षापूर्वक प्रमुख नाली में मोड़ना। नाली में मिट्टी को रोकने वाले ढांचे वानस्पतिक उपायों को जमने में सहायता करते हैं। या उन स्थानों को सुरक्षा प्रदान करते हैं जिनका संरक्षण और किसी तरीके से सम्भव नहीं।
जब पानी का बहाव अधिक नहीं होता और सुस्थापित वानस्पतिक उपायों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है तो वनस्पति की जड़ें गहरी होने तक अल्पकालिक ढांचे भी नाली में बनाए जाते हैं। स्थायी ढांचों का प्रयोग केवल तब किया जाता है जब कम लागत वाले तरीके अव्यावहारिक होते हैं।
पदमपुरा मामले में पानी का बहाव तेज रहा है तो भी स्थायी ढांचों के बदले कम लागत के उपकरणों को प्रयोग सम्भव हो सका।
डिज़ाईन सम्बन्धी विचार
सामान : कम लागत की तकनीकों के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध सामान का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया गया। कार्यस्थल से 35 किलोमीटर दूर अच्छी किस्म के पत्थर उपलब्ध हैं। चूंकि इस क्षेत्र में चींटियों की समस्या है इसलिए लकड़ी के लट्ठों के ढांचे उचित नहीं। इसीलिए इस लेखक ने सीमेंट के खाली प्लास्टिक बैगों (बोरों) के प्रयोग के बारे में सोचा। ये बैग भी आसानी से बहुतायात में उपलब्ध हैं।
सर्वेक्षण और अन्वेषण : नाली का सर्वेक्षण किया गया। एल सेक्शन और क्रास सेक्शन की डिजाईनें बनाई गईं। नाली के आरंभ से अन्त तक ऐसे एल सेक्षन और क्रास सेक्शन वाले ढांचें अभिकल्पित किए गए जिनमें खर्च कम-से-कम आए और पानी ज्यादा-से-ज्यादा जमा हो।
कार्यप्रणाली : ढीली मिट्टी और जैव पदार्थ को हटाने के लिए 15 से 20 सें.मी. तक जमीन खोदी गई। इस पर जी.आई. नैट (जस्ते चढे लोहे के तार से बने जाल) को इस प्रकार फैलाया गया ताकि पोलीबैगों का समस्त ढांचा इसमें लपेटा जा सके। रेत से भरे और प्लास्टिक के धागे से सिले बैगों को इस प्रकार रखा गया जैसे सूखी चिनाई की दीवाल में ईंटें रखी जाती हैं। डिजाइन के अनुसार इन बोरों को रखने का कार्य पूरा होते ही इनको जी.आई तार के जाल में लपेट दिया जाता है ताकि यह एक इकाई बन जाए।
ढांचे के सामने का हिस्सा (ऐप्रन) सूखे गोल पत्थरों का बनाया जाता है। इन पत्थरों को भी जी. आई. तारों के जाल में लपेट देते हैं। इसकी नींव के लिए 10 से 20 सें.मी. जमीन खोदी जाती है। जी. आई. नैट को उस नींव पर फैला दिया जाता है। 20 से 30 सैं.मी. आकार के पत्थरों की सूखी चिनाई को जाल में लपेट दिया जाता है। नीचे के जाल के जोड़ को छोड़ कर एक ऊपर के जाल के जोड़ों से बाँध दिए जाते हैं। इस काम में भी जी.आई. तार प्रयुक्त किया जाता है। ऐसा पत्थरों को अपनी जगह जमने रहने के लिए किया जाता है। एप्रन के जाल को ड्राप के जाल से भी बाँध दिया जाता है। एक बारिष के बाद ढाँचे पर पानी के ऊपरी बहाव की ओर जब मिट्टी और पानी इकट्ठा हो जाएं तो वानस्पतिक अवरोधक लगा दिए जाते हैं।
विवेचन : ढाँचा जून के अन्तिम सप्ताह में बनाया गया था। इसके बाद वर्षा की दो ऋतएँ आईं। ढाँचा ज्यों-का-त्यों रहा। ऊपरी हिस्से में गाद भर गई और पानी इकट्ठा हुआ। एक बारिश के तुरन्त बाद ढाँचा और इसका कार्य निष्पादन चित्र संख्या 1 व 2 में दर्शाया गया है।
ऊपरी बहाव वाले हिस्से में पानी और गाद जमा हो जाने से ढाँचे के ऊपर व नीचे व दोनों और लगाए गए वानस्पतिक अवरोध अच्छी तरह से जक गए।
दूसरी वर्षा ऋतु में 25 जुलाई, 1992 को सांगानेर में तीन घन्टों में 180 मि.मी. बारिश हुई जो पनढाल से 20 कि.मी. दूर है। इस तेज बारिष ने सांगानेर के तमाम जलाषयों को तोड़ दिया और इसके कारण आई बाढ़ ने सांगानेर से लेकर पनढाल तक नीचे के लगभग समस्त जलाशयों और ढाँचों को तोड़ दिया लेकिन जी.आई. नैट और पोलीबैग से बने ढाँचे बचे रहे। पनढाल में भी तीन में से एक ढाँचा, बाढ़ के पानी में बह गया। ऐसा मिट्टी की अत्यधिक क्षरणीयता के कारण हुआ।
लाभ : इस प्रकार के ढाँचे अपेक्षाकृत कम ऊंचाई तक साधारणतया लगभग एक मीटर तक, काफी प्रभावी होते हैं। ये निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए भी प्रभावी तौर से प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
प्रमुख जल निकासी प्रणाली में 'ग्रेड की स्थिरता' कायम करने के लिए।
मृदा क्षरण नियन्त्रण के लिए।
मिट्टी और पानी का बहाव रोकने के लिए।
वानस्पतिक उपचार को सहायता देने के लिए।
तेजी से गाद जमा करने के लिए, जहां भी ऐसा जरूरी हो।
इस नवीन पद्धति के अनेक लाभ हैं :-
इस पद्धति में स्थायित्व अधिक है।
परम्परागत ढाँचों की अपेक्षा इसकी लागत कम आती है।
परम्परागत पक्के 'ड्रीपस्टिल वे' के चार या छ: सप्ताह के मुकाबले इसके निर्माण में एक या दो दिन लगते हैं।
पूर्व प्रयोग किए हुए सीमेंट के पोली बैगों का अच्छा उपयोग हो जाता है।
ढाँचे की धारणशक्ति बिना अधिक पैसा और समय खर्च किए बढ़ाई जा सकती है।
तुलनात्मक लागत : यह परम्परागत ढाँचों की तुलना में कम लागत का तरीका है। इसकी लागत लगभग आठ हजार रूपए आती है। जो परम्परागत ढाँचे की पाँचवाँ भाग है।
सीमा : यदि यह ढाँचा बिना वानस्पतिक अवरोध के बनाया जाता है तो यह अल्पजीवी होता है। अत: यह ढाँचा बरसात से पहले बना लेना चाहिए। ढाँचे के ऊपरी प्रवाह तथा निचले प्रवाह की ओर तथा नाली के दोनों ओर वानस्पतिक अवरोध बारिष के दौरान बाद लगा देने चाहिए। यह वनस्पति ऐसी हो जो जल्दी बढे अौर इसे पशु आदि न खाएं।
बुन्देलखण्ड के पठारों में मृदा एवं नमी संरक्षण
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसका प्रमुख व्यवसाय है कृषि एवं पशुपालन। कृषि पर निर्भर जनसंख्या की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं है जिसका प्रमुख कारण है खेती की अपनुपयुक्तता। इसका अर्थ है - 60 से 80 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई के साधनों की कमी, खेती योग्य भूमि का ढालू होना, समुचित खाद एवं उन्नत किस्म के बीजों का समय पर उपलब्ध न होना, वर्षा की अनियमितता आदि।
सामान्यत: सूखी अवस्थाओं में तथा विशेषत: सीमान्त बारानी क्षेत्रों में प्राय: कम, अस्थिर और लाभहीन उत्पादन होता है। इस प्रकार की भूमि की उत्पादन क्षमता की किसी-न-किसी तरह से ह्रास होता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ऐसे भूमि को उपयोग में लाना बहुत आवश्यक हो गया है। पेड़ों की निरन्तर कटाई से वानस्पतिक परत में कमी हो रही है जिससे भूमि का कटाव होता है जिसके कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है।