कभी पग-पग रोटी, डग-डग नीर के नाम से पहचाना जाने वाला मालवा इलाका इन दिनों देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही बूँद-बूँद पानी को मोहताज होता जा रहा है। करीब 40 साल पहले तक जहाँ इसकी आबो हवा शब-ए-मालवा के रूप में पहचानी-सराही जाती थी, आज यहाँ जलवायु परिवर्तन के खतरे मँडराने लगे हैं। गर्मियों में जहाँ का तापमान कभी 30 डिग्री सेंटीग्रेट के ऊपर नहीं जाया करता था, वहीं अब 45 से ऊपर तक जाने लगा है।
कभी बावड़ियों का शहर कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के शहर देवास के बाशिन्दे आज बूँद–बूँद पानी के लिये यहाँ–वहाँ भटकते रहते हैं। यह शहर जल संकट के लिये बहुत पहले से बदनाम रहा है। कभी यहाँ की नगर निगम के पास पानी का कोई बड़ा स्रोत नहीं होने से यहाँ के लोगों को 8 से 15 दिन में एक बार पानी मिल पाता था, कभी सवा सौ किमी दूर नेमावर की नर्मदा नदी से पानी लाना पड़ा तो कभी प्रशासन ने यहाँ के लोगों को पानी पिलवाने के लिये दूर शहरों से रेलवे वैगनों में भरकर पानी मँगवाया।
पानी के प्रति नकारात्मक और उपेक्षित सोच ने आज यहाँ के लोगों को बड़े संकट का सामना करने को मजबूर कर दिया है। हालात इतने बुरे हैं कि बरसात जाते ही यहाँ के लोग पानी के लिये परेशान होना शुरू हो जाते हैं। क्षिप्रा नदी पर बने एक छोटे बाँध से पाँच लाख की आबादी वाले शहर को नगर निगम बमुश्किल पानी दे पाती है।
बीते साल सिंहस्थ होने से क्षिप्रा में नर्मदा लिंक से पानी लगातार दिया जाता रहा, इसलिये यहाँ के लोगों को भी पानी मिलता रहा, लेकिन इस बार क्षिप्रा पर भी ज्यादा निर्भर नहीं रह सकते। अब भी कुछ मोहल्ले और बस्तियाँ ऐसी हैं, जहाँ अभी से पानी के लिये जद्दोजहद शुरू हो चुकी है।
कभी देवास की पहचान बावड़ियों वाले शहर के रूप में रही है। रियासतकाल में यहाँ करीब-करीब हर मोहल्ले की अपनी एक बावड़ी हुआ करती थी और साल भर लोग उसका पानी इस्तेमाल करते रहते थे। अब भी पुरानी पीढ़ी के लोगों में बावड़ियों की यादें ताजा है पर सबसे दुखद यह है कि आज इनमें से ज्यादातर बावड़ियाँ कचराघर में तब्दील होकर जमींदोज हो चुकी या खण्डहर और कचराघर में बदल चुकी हैं।
बुजुर्ग कहते हैं कि कभी किसी ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा कि बावड़ियों के शहर की भी पानी के मामले में ऐसी दुर्गति भी होगी। असीम जलराशि अपने में समेटे हुए ये पक्की, कलात्मक और नक्काशीदार विहंगम बावड़ियाँ लबालब भरी रहती थीं। आज उनका कोई अस्तित्व ही नहीं बचा।
यहाँ कई मोहल्लों को तो आज भी उन बावड़ियों के नाम से ही पहचाना जाता है, बावड़ियाँ भले न हो लेकिन अब भी मीरा बावड़ी, खारी बावड़ी, गंगा बावड़ी, चोपड़ा बावड़ी, भट्ट बावड़ी, रानी बाग बावड़ी के नाम से ही इनके पूरे मोहल्ले को जनमानस और नगर निगम के रिकॉर्ड में पहचाना जाता है।
नदियों-तालाबों के लिये तो फिर भी कई बार साफ करने और पुनर्जीवित करने जैसे प्रयास हुए लेकिन बावड़ियों को लेकर अब तक कहीं कोई प्रयास देखने में नहीं आता। इसलिये शहर में नल जल योजना के आते ही इन कुएँ-कुण्डियों के साथ ही बावड़ियों का अस्तित्व भी खत्म होता गया।
घर-घर पानी नलों से आने लगा तो लोगों ने अपने मोहल्ले की सामुदायिक बावड़ियों की चिन्ता करना ही छोड़ दिया। बावड़ियों के पानी से शहर में जलस्तर बना रहता था, इससे दूसरे कुएँ–कुण्डियों को भी मदद मिलती थी। बावड़ियों के नहीं होने से कुएँ-कुण्डियाँ भी खत्म होती चली गईं। लगातार बोरवेल खनन से यहाँ का जलस्तर अब काफी नीचे चला गया है।
इससे बुरी बात और क्या होगी कि घड़े–घड़े पानी के संकट के बावजूद यहाँ लोगों ने कभी अपनी समृद्ध बावड़ियों और कुओं की सुध नहीं ली। वक्त के साथ बावड़ियाँ और कुएँ इतिहास में तब्दील होकर खत्म होते जा रहे हैं। जल संकट से सामना करने के लिये तमाम योजनाएँ बनती रहीं। जलाभिषेक अभियान में कुएँ बावड़ियों को सहेजने की औपचारिक कोशिशें भी हुईं लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा।
शहर भर की करीब चार दर्जन से अधिक बावड़ियों और कुओं तक पहुँचकर इनकी बदहाली का जायजा लिया। इनमें से कुछ में तो अब भी ठंडा पानी भरा है। यदि समय रहते इस विरासत को सम्भाल पाते तो शायद कुछ हद तक आसपास के लोगों को राहत मिल सकती थी। समय अब भी है। ईमानदार कोशिशों के साथ विरासत का लाभ मिल सकता है।
शहर के बीचोंबीच मीरा बावड़ी में करीब 10 साल पहले कई ट्रक गाद निकाली गई थी। बावजूद इसके अब भी यह बावड़ी आसपास के लोगों के लिये कचरा फेंकने के लिये ही काम आ रही है। इसे पानी से भरा देखना अब भी एक सपना ही है। इसी के पास चिमनाबाई स्कूल कैम्पस का कुआँ भी कचरागाह बना हुआ है। गोयल कालोनी से सटे केवड़ी बावड़ी का भी यही हाल है। बड़ा बाजार की बावड़ियाँ हों या खारी बावड़ी क्षेत्र के कुएँ। सुतार बाखल क्षेत्र के कुएँ हों या पठान कुआँ क्षेत्र के बड़े-बड़े कुएँ। मेंढकी वाटर वर्क्स की बावड़ी खंडहर में बदल रही है। सभी बावड़ियाँ बदहाली की कगार पर हैं। राधागंज में तो बावड़ी को पूर ही दिया। आबादी बढ़ने के साथ जरूरतें बढ़ीं और इसी के साथ कुएँ-बावड़ियों की देखभाल बन्द हो गई।
मीराबावड़ी के समीप रहने वाले शिरीष चांदोलीकर बताते हैं कि 30 साल पहले तक यहाँ नगर निगम की मोटर से मोहल्ले के लोगों को जल प्रदाय किया जाता था। अब तो यह केवल कचरा पेटी ही है। भेरुगढ़ स्थित कृष्णा और गंगा बावड़ियाँ गर्मी के नवतपे में भी ठंडे पानी से भरी रहती हैं।
यहाँ खेती करने वाले दीपक चौहान बताते हैं कि तत्कालीन रियासत के राजा कृष्णाजीराव पवार ने करीब 80 साल पहले इसे बनवाया था। यहाँ से मोहल्ले के रहवासी सालों तक पानी भरते रहे। ये बावड़ियाँ 25 साल पहले तक बारहों महीने पानी पिलाती रहीं। लेकिन अब तो इनका पानी ही सड़ जाता है। गोयल कॉलोनी के प्रद्युम्न सिंह बताते हैं कि केवड़ी बावड़ी पानी होने पर भी असामाजिक तत्वों और नशेड़ियों का अड्डा बना हुआ है। आस पास के लोग पानी भरा होने पर भी कचरा डाल देते हैं।
देवास को बसाया 17वीं शताब्दी में शिवाजी के अग्रिम सेनापति साबूसिंह पवार ने। तब इस छोटे से कस्बे में बड़ी तादाद में तालाब, कुएँ, कुण्डियाँ, बावड़ियाँ, चौपड़े और ओढ़ियाँ हुआ करती थीं, जिनमें से कई अब भी मौजूद हैं। पानी के अधिकांश साधन तत्कालीन रियासत ने बनवाए थे और कुछ लोगों ने अपने निजी खर्च पर भी। तब लोग पानी के महत्त्व और उसके मोल को भली–भाँति जानते थे।
रिकॉर्ड बताते हैं कि देवास और उसके आसपास 79 तालाब, 872 कुएँ, 60 से ज्यादा बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ और 209 ओढ़ियाँ हुआ करती थीं। इनसे करीब 4450 एकड़ जमीन में सिंचाई भी होती थी और इनका पानी पीने में भी काम आता था। दो बड़े कुएँ ही पूरे देवास की प्यास बुझाने में सक्षम हुआ करते थे। स्पष्ट है कि तब पानी की कोई कमी नहीं हुआ करती थी। इसकी पुष्टि 90 साल तक के बुजुर्ग आज भी करते हैं।
माता टेकरी से हर साल बारिश में बहकर आने वाले पानी को सहेजने के लिये भी तब रियासत ने बड़े इन्तजाम किये थे। टेकरी पर कई जगह ऐसी संरचनाएँ थीं जिनमें पानी एकत्रित होता था और फिर धीरे-धीरे रिसते हुए जमीन में चला जाता था। जल संसाधन अलग-अलग दिशाओं में बहने वाले पानी को समेटते रहते थे। अब तो जलस्रोतों के ऊपर खड़ा है सीमेंट–कंक्रीट का दमकता-चमकता झिलमिलाता शहर। नई बसाहट के दौर में जलस्रोतों की सीमाएँ सिकुड़ती गईं।
बीते कुछ दशकों में जल संरचनाएँ जिस अन्धाधुन्ध और अनियोजित विकास के तेजी से दौड़ते चक्र से धराशाई हुई उसके बुरे परिणाम जल्दी ही सामने आने लगे। 70 के दशक में देवास का औद्योगिक विकास शुरू हुआ और अनायास यहाँ की जनसंख्या दो-तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ गई। पुराने स्रोत उपेक्षित होकर खत्म होने लगे और इधर बढ़ती जनसंख्या के लिये पानी उपलब्ध कराना कठिन होता गया।
निगमायुक्त हिमांशु सिंह कहते हैं- 'जल संरक्षण के प्रयास लगातार जारी हैं। शहर के हर घर में बारिश के पानी को सहेजने के लिये रुफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम जरूरी किया गया है। प्राचीन जलस्रोतों को सहेजने के प्रयास भी किये जाएँगे। कुछ जल स्रोत चिन्हांकित कर उनकी सफाई की जाएगी ताकि स्थानीय लोगों को उसके पानी का लाभ मिल सके।'
बीते दशकों में पानी के नाम पर कई तरह की साजिशें की जा रही हैं। लोगों की प्यास बुझाने के नाम पर करोड़ों रुपए सिर्फ बोरवेल, हैण्डपम्प, टैंकर, बड़ी परियोजनाओं और पाइपलाइन से नदी जोड़ जैसे अस्थायी संसाधनों पर खर्च किये जा रहे हैं। जबकि पहले भी लोग पानी पीते ही थे, उनके क्या परम्परागत संसाधन और स्रोत थे और बीते कुछ सालों में इनका किस तरह दुरुपयोग हुआ या उपेक्षा हुई, जैसे सवालों को लगभग दरकिनार करते हुए यही सोच और मान लिया गया है कि पानी की कमी होने पर बस यही एकमेव विकल्प हैं। यहाँ तक कि भौगोलिक और भूगर्भीय स्थितियों का अध्ययन तक नहीं किया जा रहा है। तभी तो देवास जैसे बावड़ियों के शहर में अब बावड़ियाँ यादों में ही सिमट गई हैं।
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