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प्राचीन काल में जल का कार्य सबसे पवित्र एवं धर्मयुक्त समझा जाता था। पहले राहगीरों के लिए लोग रास्ते में घड़े भरकर रखते थे तथा प्रत्येक आने जाने वालों को उनसे पानी पिलाते थे। स्कूलों में स्काउट के बच्चों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर पेयजल शिविर लगाए जाते थे। जिससे बच्चों में सामुदायिक सहभागिता की आदत पड़ती थी। लेकिन अब ये सब देखने को नहीं मिलता। अगर बच्चों को अपनी प्राचीन जलाशयों की महत्ता के बारे में बताया जाए तथा उन पर अमल करे तो समाज में इन लुप्त होते जलाशयों का बचाया जा सकता है। मेरठ-करनाल मार्ग पर स्थित गांव खेड़ामस्तान कई ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए है। यह गांव प्राचीन काल से ही अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है। इस गांव में प्रतिवर्ष दो मेले आयोजित किए जाते हैं जिनमें से एक हनुमान मेला है। इस मेले की शुरूआत 32 साल पहले हुई थी। गांव के बसने से पहले यहां पर सघन वन हुआ करते थे। प्राचीन काल में पेयजल का मुख्य स्रोत कुएँ ही थे। ये कुएँ स्थानीय समुदाय के माध्यम से खोदे जाते थे। इनके किनारे छायादार वृक्ष लगाए जाते थे। बाहर से आने वाले लोग भी इनका इस्तेमाल करते थे। गांव के 80 वर्षीय बुजुर्ग जयपाल सिंह बताते हैं कि हमारे गांव में यह कुआं लगभग 670 वर्ष पुराना है। गांव के बसने से पहले ही यहां यह कुआं तथा एक इमली का पेड़ विद्यमान था। हमारी कई पीढ़ियों ने इस कुएँ के जल से अपनी प्यास को बुझाया। हमने कई बार इस कुएँ की साफ सफाई की थी। उस जमाने में सभी ग्रामीण इसी कुएँ का पानी पीते थे। कुएँ का जल साफ रहे इसलिए इसमें लाल दवा भी डालते थे।
गांव के बच्चे शाम को यहीं पर खेलते थे महिलाएं कुएँ से रस्सी व डोल से पानी खींचती थीं। इमली का विशाल वृक्ष कुएँ को छाया प्रदान करता था। धार्मिक अवसरों पर प्राचीन काल में इन कुओं की पूजा की जाती थी। लेकिन मुझे दुख है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इस कुएँ को जिंदा नहीं रख सके। गांव के ही धर्मपाल दुकानदार जो बिल्कुल इसी कुएँ के पास रहते है उन्होंने बताया कि हमारे बुजुर्ग बताते थे कि इस कुएँ का पानी बहुत ही ठंडा व मीठा था। गांव से 56 किलोमीटर दूर मेरठ की बेगम के लिए यहां से पानी जाता था। यह कुआं लखोरी ईटों से बना हुआ है। जो इसके प्राचीन काल की महत्ता एवं शैली को दर्शाता हैं। कुएँ के महत्ता को देखते हुए ग्रामीणों ने 32 वर्ष पहले यहां हनुमान जी का मंदिर बनाया। इसी कुएं का जल मंदिर के काम भी आने लगा।
धीरे-धीरे समय बीतता गया और कुआं भी बदहाल होता चला गया। लोगों ने अपने घरों में हैण्डपम्प लगाने शुरू कर दिये। सिंचाई के लिए ट्यूबवेल का प्रयोग होने लगा। कुआं भूजल स्तर नीचे जाने से सूख गया। गांव के लोगों ने इसमें कूड़ा-करकट डालकर भर दिया हैं। जय हनुमान पुनरूत्थान समिति के द्वारा इसका जीर्णोद्धार कराया गया। इसके ऊपरी हिस्से को ठीक कराकर इस पर जाल डाल दिया गया है। भारत उदय एजुकेशन सोसाइटी के निदेशक संजीव कुमार ने इस कुएँ पर वर्षा जल संरक्षण करने का बीड़ा उठाया है ताकि दोबारा इस कुएँ को पुनर्जीवित किया जा सके। संस्था प्राचीन ऐतिहासिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए कार्य कर रही है। जल संरक्षण का कार्य समस्त स्थानीय बिरादरी का है इसके लिए हमें विशेष प्रयास करने होंगे। भारतीय संस्कृति ने अपने जन्मकाल से ही जल से जुड़ी भावना को सर्वोपरि रखा है।
प्राचीन काल में जल का कार्य सबसे पवित्र एवं धर्मयुक्त समझा जाता था। पहले राहगीरों के लिए लोग रास्ते में घड़े भरकर रखते थे तथा प्रत्येक आने जाने वालों को उनसे पानी पिलाते थे। स्कूलों में स्काउट के बच्चों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर पेयजल शिविर लगाए जाते थे। जिससे बच्चों में सामुदायिक सहभागिता की आदत पड़ती थी। लेकिन अब ये सब देखने को नहीं मिलता। अगर बच्चों को अपनी प्राचीन जलाशयों की महत्ता के बारे में बताया जाए तथा उन पर अमल करे तो समाज में इन लुप्त होते जलाशयों का बचाया जा सकता है। इन जलाशयों एवं प्राचीन इमारतों के लिए स्थानीय स्तर पर ग्राम पंचायत भी अगर इनके संरक्षण में लगे तो इसके बेहतर परिणाम हो सकते हैं।
गांव के बच्चे शाम को यहीं पर खेलते थे महिलाएं कुएँ से रस्सी व डोल से पानी खींचती थीं। इमली का विशाल वृक्ष कुएँ को छाया प्रदान करता था। धार्मिक अवसरों पर प्राचीन काल में इन कुओं की पूजा की जाती थी। लेकिन मुझे दुख है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इस कुएँ को जिंदा नहीं रख सके। गांव के ही धर्मपाल दुकानदार जो बिल्कुल इसी कुएँ के पास रहते है उन्होंने बताया कि हमारे बुजुर्ग बताते थे कि इस कुएँ का पानी बहुत ही ठंडा व मीठा था। गांव से 56 किलोमीटर दूर मेरठ की बेगम के लिए यहां से पानी जाता था। यह कुआं लखोरी ईटों से बना हुआ है। जो इसके प्राचीन काल की महत्ता एवं शैली को दर्शाता हैं। कुएँ के महत्ता को देखते हुए ग्रामीणों ने 32 वर्ष पहले यहां हनुमान जी का मंदिर बनाया। इसी कुएं का जल मंदिर के काम भी आने लगा।
धीरे-धीरे समय बीतता गया और कुआं भी बदहाल होता चला गया। लोगों ने अपने घरों में हैण्डपम्प लगाने शुरू कर दिये। सिंचाई के लिए ट्यूबवेल का प्रयोग होने लगा। कुआं भूजल स्तर नीचे जाने से सूख गया। गांव के लोगों ने इसमें कूड़ा-करकट डालकर भर दिया हैं। जय हनुमान पुनरूत्थान समिति के द्वारा इसका जीर्णोद्धार कराया गया। इसके ऊपरी हिस्से को ठीक कराकर इस पर जाल डाल दिया गया है। भारत उदय एजुकेशन सोसाइटी के निदेशक संजीव कुमार ने इस कुएँ पर वर्षा जल संरक्षण करने का बीड़ा उठाया है ताकि दोबारा इस कुएँ को पुनर्जीवित किया जा सके। संस्था प्राचीन ऐतिहासिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए कार्य कर रही है। जल संरक्षण का कार्य समस्त स्थानीय बिरादरी का है इसके लिए हमें विशेष प्रयास करने होंगे। भारतीय संस्कृति ने अपने जन्मकाल से ही जल से जुड़ी भावना को सर्वोपरि रखा है।
प्राचीन काल में जल का कार्य सबसे पवित्र एवं धर्मयुक्त समझा जाता था। पहले राहगीरों के लिए लोग रास्ते में घड़े भरकर रखते थे तथा प्रत्येक आने जाने वालों को उनसे पानी पिलाते थे। स्कूलों में स्काउट के बच्चों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर पेयजल शिविर लगाए जाते थे। जिससे बच्चों में सामुदायिक सहभागिता की आदत पड़ती थी। लेकिन अब ये सब देखने को नहीं मिलता। अगर बच्चों को अपनी प्राचीन जलाशयों की महत्ता के बारे में बताया जाए तथा उन पर अमल करे तो समाज में इन लुप्त होते जलाशयों का बचाया जा सकता है। इन जलाशयों एवं प्राचीन इमारतों के लिए स्थानीय स्तर पर ग्राम पंचायत भी अगर इनके संरक्षण में लगे तो इसके बेहतर परिणाम हो सकते हैं।