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हाल ही में गैर सरकारी संगठनों, संयुक्त वन प्रबंधन समिति, जल संग्रहण एवं प्रबंधन समिति, वन पंचायत, प्राकृतिक क्लब तथा अन्य हितग्राहियों के लिए भारतीय वन अनुसंधान संस्थान देहरादून में तीन दिवसीय प्रशिक्षण कृषि वानिकी पद्धतियों का विकास के विषय के दौरान केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान में जाने का अवसर मिला। जिसमें वहां पर मृदा एवं जल संरक्षण को देखकर लगा कि वास्तव में ऐसा भी कोई संस्थान है जो मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान के लिए भी कार्य कर रहा है। वहां पर कृषि वानिकी का अद्भुत मॉडल था जो कि किसानों के अनुसरण के योग्य है।
भारत उदय एजुकेशन सोसाइटी के निदेशक संजीव कुमार खेडामस्तान मुजफ्फरनगर एवं श्री राजकुमार फुगाना मुजफ्फरनगर क्षेत्र पंचायत सदस्य को कृषि वानिकी विषय पर प्रशिक्षण करने का मौका मिला। जिसमे चार राज्य उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के पंचायत प्रतिनिधि एवं गैर सरकारी संगठन व वन पंचायत के 35 लोगों ने प्रतिभाग किया। कृषि वानिकी वास्तव में आज की जरूरत है तभी वनों को बचाया जा सकता है साथ ही कृषि के अलावा किसानों की आय का स्रोत भी बनता है। इसके माध्यम से हम ईंधन व अन्य स्रोतों के लकड़ी भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं और गाय की गोबर को खाद के रूप में खेतों में इस्तेमाल करके अपनी उपज बढ़ा सकते हैं।
अंधाधुध जल दोहन से देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा हैं। कुएँ सूखते जा रहे हैं। हमारे देश में 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती हैं लेकिन अब भूजल की उपलब्धता को लेकर भारी कमी महसूस की जा रही है। पूरे देश में भूजल का स्तर प्रत्येक वर्ष औसतन एक मीटर नीचे सरकता जा रहा है। नीचे सरकता भूजल स्तर देश के लिए एक गंभीर चुनौती है। हमारे देश में कृषि उत्पादन में भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्षा पर आधारित खेती को सफल बनाने के लिए हमें सोचना पड़ेगा ताकि हम वर्षा की एक-एक बूंद को सहेज सकें और उसी को अपनी खेती का आधार बना सकें।
ऐसा ही अनुसंधान हमारे केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान ने किया है। जिसमें सिर्फ बारिश के पानी से ही फसलों को उगाया जाता है। बारिश के पानी का संचय किया जाता है और संचय किए गए पानी से ही फ़सलों को पानी दिया जाता है। उसी पानी से मछली पालन किया जाता है और उसे पानी से ही बाग-बगीचे हरे-भरे रहते हैं। ऐसा ही उदाहरण पेश किया है इस संस्थान ने। यह हमारे किसानों के लिए वास्तव में सौभाग्य की बात है और हमारे किसानों को ऐसे मॉडल से लाभ लेना चाहिए।
संस्थान के परिसर में छोटे-छोटे खेत बनाकर उनमें बारिश को रोकने के लिए गड्ढे बनाए हुए हैं। इन गड्ढों से पानी के स्प्रिकंलर के माध्यम से सब्जियों की सिंचाई की जाती है। इन गड्ढों में पन्नी डाल दी जाती है जिससे पानी भूमि में न जा सके तथा आवश्यकता पड़ने पर उनसे पानी निकाल दिया जाता है। गर्मी के दिनों में पानी का वाष्पीकरण न हो इसके लिए उन पर जाल भी डाल दिया जाता है। संस्थान के परिसर में बने भवनों की छतों का बारिश का पानी भी इन्ही गड्ढों में डाल दिया जाता है। जिससे ज्यादा से ज्यादा पानी को एकत्र किया जा सके।
पर्वतीय एवं ढालदार खेतों के लिए भी टेन्च बनाकर दिखाए गए हैं कि कैसे पहाड़ के तेज बहाव वाले पानी को रोक कर कृषि वानिकी के काम में लाया जा सकता है। बारिश के दिनों में अधिक बारिश होने पर कैसे खेत के पानी को एकत्र किया जाता है। इसका बहुत बेहतर मॉडल इस संस्थान ने किया। खेत से गड्ढे में कितना पानी गया? खेत की कितनी मिट्टी इस पानी के साथ बही, कितना पानी गड्ढे में गया? और कितना पानी बड़े गड्ढे में गया यह सब ब्यौरा एकत्र किया जाता है। फिर इस बारिश के एकत्र किए गए पानी से जब सर्दियों या गर्मियों में वर्षा नहीं होती दोबारा खेती के लिए प्रयोग किया जाता है।
बड़े खेतों के लिए चारों तरफ से पक्का बनाए गए विशाल गड्ढे को भरने के बाद उसका पानी लेमन घास को सिंचते हुए एक विशाल तालाब में एकत्र किया जाता है। जिसमें उसी बारिश के पानी से मछली पालन भी किया जाता है। यह अनुसंधान इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने किया है। यह मॉडल उत्तर प्रदेश के पानी के कमी वाले बुदेलखंड के क्षेत्र मे भी किया जा सकता है और वहां के किसानों को खुशहाल किया जा सकता है और वहां की धरती को भी हरा-भरा किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को भी इससे सीख लेनी चाहिए क्योंकि वहां काफी पानी खेती एवं पशुपालन के लिए बर्बाद किया जाता है। यह अनावश्यक प्रयोग किया हुआ पानी हमारे हाथ आने वाला नहीं है। भूगर्भ जल का एक मात्र स्रोत है जो पेयजल एवं सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है। वह अब धीरे-धीरे अधिक गहराई पर पहुंच चुका है। यह हमारे लिए खतरे की घंटी है। हमें समय रहते इस बर्बादी को रोकना होगा।
ऐसे संस्थान ही हमारे सूखाग्रस्त इलाकों में हमारी पृथ्वी की हरियाली व फसलों को बचा सकते है। पंचायत के लोगों को भी समझना होगा कि वह पानी के संचय के लिए काम करें तथा ग्रामीण इलाकों में जागरूकता पैदा करें।
भारत उदय एजुकेशन सोसाइटी के निदेशक संजीव कुमार खेडामस्तान मुजफ्फरनगर एवं श्री राजकुमार फुगाना मुजफ्फरनगर क्षेत्र पंचायत सदस्य को कृषि वानिकी विषय पर प्रशिक्षण करने का मौका मिला। जिसमे चार राज्य उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के पंचायत प्रतिनिधि एवं गैर सरकारी संगठन व वन पंचायत के 35 लोगों ने प्रतिभाग किया। कृषि वानिकी वास्तव में आज की जरूरत है तभी वनों को बचाया जा सकता है साथ ही कृषि के अलावा किसानों की आय का स्रोत भी बनता है। इसके माध्यम से हम ईंधन व अन्य स्रोतों के लकड़ी भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं और गाय की गोबर को खाद के रूप में खेतों में इस्तेमाल करके अपनी उपज बढ़ा सकते हैं।
अंधाधुध जल दोहन से देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा हैं। कुएँ सूखते जा रहे हैं। हमारे देश में 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती हैं लेकिन अब भूजल की उपलब्धता को लेकर भारी कमी महसूस की जा रही है। पूरे देश में भूजल का स्तर प्रत्येक वर्ष औसतन एक मीटर नीचे सरकता जा रहा है। नीचे सरकता भूजल स्तर देश के लिए एक गंभीर चुनौती है। हमारे देश में कृषि उत्पादन में भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्षा पर आधारित खेती को सफल बनाने के लिए हमें सोचना पड़ेगा ताकि हम वर्षा की एक-एक बूंद को सहेज सकें और उसी को अपनी खेती का आधार बना सकें।
ऐसा ही अनुसंधान हमारे केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान ने किया है। जिसमें सिर्फ बारिश के पानी से ही फसलों को उगाया जाता है। बारिश के पानी का संचय किया जाता है और संचय किए गए पानी से ही फ़सलों को पानी दिया जाता है। उसी पानी से मछली पालन किया जाता है और उसे पानी से ही बाग-बगीचे हरे-भरे रहते हैं। ऐसा ही उदाहरण पेश किया है इस संस्थान ने। यह हमारे किसानों के लिए वास्तव में सौभाग्य की बात है और हमारे किसानों को ऐसे मॉडल से लाभ लेना चाहिए।
संस्थान के परिसर में छोटे-छोटे खेत बनाकर उनमें बारिश को रोकने के लिए गड्ढे बनाए हुए हैं। इन गड्ढों से पानी के स्प्रिकंलर के माध्यम से सब्जियों की सिंचाई की जाती है। इन गड्ढों में पन्नी डाल दी जाती है जिससे पानी भूमि में न जा सके तथा आवश्यकता पड़ने पर उनसे पानी निकाल दिया जाता है। गर्मी के दिनों में पानी का वाष्पीकरण न हो इसके लिए उन पर जाल भी डाल दिया जाता है। संस्थान के परिसर में बने भवनों की छतों का बारिश का पानी भी इन्ही गड्ढों में डाल दिया जाता है। जिससे ज्यादा से ज्यादा पानी को एकत्र किया जा सके।
पर्वतीय एवं ढालदार खेतों के लिए भी टेन्च बनाकर दिखाए गए हैं कि कैसे पहाड़ के तेज बहाव वाले पानी को रोक कर कृषि वानिकी के काम में लाया जा सकता है। बारिश के दिनों में अधिक बारिश होने पर कैसे खेत के पानी को एकत्र किया जाता है। इसका बहुत बेहतर मॉडल इस संस्थान ने किया। खेत से गड्ढे में कितना पानी गया? खेत की कितनी मिट्टी इस पानी के साथ बही, कितना पानी गड्ढे में गया? और कितना पानी बड़े गड्ढे में गया यह सब ब्यौरा एकत्र किया जाता है। फिर इस बारिश के एकत्र किए गए पानी से जब सर्दियों या गर्मियों में वर्षा नहीं होती दोबारा खेती के लिए प्रयोग किया जाता है।
बड़े खेतों के लिए चारों तरफ से पक्का बनाए गए विशाल गड्ढे को भरने के बाद उसका पानी लेमन घास को सिंचते हुए एक विशाल तालाब में एकत्र किया जाता है। जिसमें उसी बारिश के पानी से मछली पालन भी किया जाता है। यह अनुसंधान इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने किया है। यह मॉडल उत्तर प्रदेश के पानी के कमी वाले बुदेलखंड के क्षेत्र मे भी किया जा सकता है और वहां के किसानों को खुशहाल किया जा सकता है और वहां की धरती को भी हरा-भरा किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को भी इससे सीख लेनी चाहिए क्योंकि वहां काफी पानी खेती एवं पशुपालन के लिए बर्बाद किया जाता है। यह अनावश्यक प्रयोग किया हुआ पानी हमारे हाथ आने वाला नहीं है। भूगर्भ जल का एक मात्र स्रोत है जो पेयजल एवं सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है। वह अब धीरे-धीरे अधिक गहराई पर पहुंच चुका है। यह हमारे लिए खतरे की घंटी है। हमें समय रहते इस बर्बादी को रोकना होगा।
ऐसे संस्थान ही हमारे सूखाग्रस्त इलाकों में हमारी पृथ्वी की हरियाली व फसलों को बचा सकते है। पंचायत के लोगों को भी समझना होगा कि वह पानी के संचय के लिए काम करें तथा ग्रामीण इलाकों में जागरूकता पैदा करें।