बेहतर कृषि प्रबंधन समय की आवश्यकता

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 09/29/2014 - 15:58
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कुरुक्षेत्र, जुलाई 2011
भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्रों का योगदान लगभग 22 प्रतिशत है जबकि 65-70 प्रतिशत जनसंख्या वर्तमान में कृषि पर निर्भर है। ऐसी स्थिति के फलस्वरूप बेहतर कृषि प्रबंधन पर जोर देना नितांत आवश्यक हो गया है। बेहतर कृषि प्रबंधन के द्वारा ही ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में लक्षित चार प्रतिशत की वृद्धि दर को प्राप्त किया जा सकता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत के सभी राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी क्योंकि कृषि राज्य का विषय है। लक्षित दर को प्राप्त करने की समयावधि समाप्त होने में अब ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है। राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केन्द्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी समय-समय पर लागू की गई जिससे देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की जा सके और देश को भविष्य में खाद्य संकट की स्थिति से बचाया जा सके।राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा मिशन में 17 राज्यों के 311 जिले रखे गए हैं। यह वर्ष 2007-08 से प्रभावी हो गया है। यह परियोजना कृषि आयोजन के क्षेत्र में एक लम्बी छलांग है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस मिशन का कुल परिव्यय 4882.5 करोड़ रुपये है।

कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रबंधन के लिए कृषि क्षेत्र की शिथिलता को दूर करने तथा उत्पादकता में वृद्धि के लिए 25,000 करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा भी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी ने एनडीसी की बैठक में 29 मई, 2007 को नई दिल्ली में की। कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रबंधन को सफल बनाने के लिए सर्वाधिक प्रमुख कारक वर्षा और जलाशय भंडारण है क्योंकि वर्षा व जलाशय भंडारण कृषि को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। वार्षिक वर्षा का 75 प्रतिशत से अधिक भाग पश्चिम मानसून (जून-सितम्बर) के दौरान प्राप्त होता है। वर्ष 2009 की शीत ऋतु (जनवरी-फरवरी) के दौरान देश में समग्र रूप से औसत लम्बी अवधि (एलपीए) की 46 प्रतिशत कम वर्षा हुई।

कृषि ऋण


किसान क्रेडिट कार्ड योजना (केसीसी) अगस्त 1998 में किसानों को उनकी कृषि आवश्यकताओं हेतु बैंकिंग प्रणाली से पर्याप्त और समय पर ऋण सहायता उपलब्ध कराने के लिए प्रारम्भ की गई है जिसमें परिवर्तित और किफायती रूप में सभी निविष्टियों की खरीद शामिल है। लगभग 878.30 लाख केसीसी नवम्बर, 2009 तक जारी किए गए हैं।

वर्ष 2006-07 से किसान 7 प्रतिशत की ब्याज दर से तीन लाख रुपये मूल धनराशि का फसल ऋण ले रहे हैं। एक प्रतिशत की अतिरिक्त सहायता भी दी जा रही है। यह उन किसानों को प्रेरक के रूप में दी जाएगी जो अल्पावधि ऋण समय पर चुका देंगे। इसके परिणामस्वरूप ब्याज दर घटकर 6 प्रतिशत प्रति वर्ष हो गई है।

ऋण संरचना के पुनर्जीवन हेतु विशेष पैकेज


जनवरी 2006 में सरकार ने अल्पावधि ग्रामीण सहकारी ऋण संरचना के पुनर्जीवन हेतु एक पैकेज की घोषणा की है जिसमें 13596 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता शामिल है। नाबार्ड को इस उद्देश्य हेतु कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में नामित किया गया है। वर्ष 2010 तक 25 राज्यों ने भारत सरकार तथा नाबार्ड के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं। यह देश में प्राथमिक ऋण सोसाइटी का 96 प्रतिशत तथा केन्द्रीय सहकारी बैंक का 96 प्रतिशत है। नवम्बर 2009 की स्थिति के अनुसार 7051.75 करोड़ रुपये की राशि 37,303 पीएसीएस के पुनः पूंजीकरण के लिए भारत सरकार के हिस्से के रूप में नाबार्ड द्वारा जारी की गई है।

पायलट मौसम आधारित फसल बीमा योजना (डब्ल्यूबीसी-आईएस)


खराब मौसम की घटनाएं जो फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डालती हैं, से निपटने के लिए किसानों को बीमा संरक्षण प्रदान करने के लिए इस योजना को 13 राज्यों में क्रियान्वित किया जा रहा है। पांच फसल मौसम (खरीफ 2007 से खरीफ 2009 तक) के दौरान इसके तहत 21.77 लाख किसानों को कवर किया गया है और 444 करोड़ रुपये की प्रीमियम के एवज में 388 करोड़ रुपये चुकाए गए हैं।

कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना


केन्द्रीय बजट 2008-09 में सरकार ने किसानों हेतु इस योजना को शुरू किया। अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी ऋण संस्थानों ने 31 मार्च, 2007 तक प्रत्यक्ष कृषि ऋणों का संवितरण किया। 31 मार्च, 2007 को अतिदेय, जिसमें 29 फरवरी 2008 तक नहीं चुकाए वे ऋण माफी या ऋण राहत जैसा जो भी मामला हो, के पात्र हैं। 65,318.33 करोड़ रुपये की ऋण माफी और ऋण राहत सहित इस योजना से लगभग 3.68 करोड़ किसान लाभान्वित हुए हैं।

कृषि बीमा


भारत में कृषि उत्पादन और पशुधन संख्या में अनिश्चितता, अकाल, बाढ़, चक्रवात और अनियत जलवायु परिवर्तन की बारम्बारता आदि की गम्भीर समस्या हमेशा किसानों को भयभीत करती रहती है। इसी जोखिम प्रबंध के रूप में कृषि बीमा योजना (एनएआईएस) कार्यान्वित की जा रही है। यह योजना 25 राज्यों और 2 संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा कार्यान्वित की जा रही है। वर्ष 2008-09 तक 1347 लाख किसानों का 1,48,250 करोड़ रुपये की राशि का बीमा कराते हुए 2,109 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को कवर किया गया है।

कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी)


यह विधान निजी बाजारों/यार्डों की स्थापना, प्रत्यक्ष क्रय केन्द्र, प्रत्यक्ष क्रय के लिए ग्राहक/किसान बाजार, प्रबंधन में सरकारी-निजी भागीदारी संवर्धन और देश में कृषि बाजारों के विकास की व्यवस्था करता है। कृषि उत्पादन के ग्रेड, मानक और गुणवत्ता प्रमाणन प्रोत्साहन के लिए राज्य कृषि उत्पादन विपणन मानक ब्यूरो के संविधान के लिए अधिनियम में प्रावधान भी किया गया है।

रूरल नॉलेज सेंटर


केन्द्र सरकार ने ग्रामीण विकास बैंक ‘‘नाबार्ड’’ के जरिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रूरल नॉलेज सेंटर्स की स्थापना की है। इन केन्द्रों में आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी व दूरसंचार तकनीक का उपयोग किसानों को वांछित जानकारी उपलब्ध कराने के लिए किया जाता है। एक-एक लाख रुपये की लागत से कुल एक हजार नॉलेज सेंटर स्थापित करने की केन्द्र की योजना है।

किसान कॉल सेंटर


तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने 21 जनवरी, 2004 को नई दिल्ली में इस सेंटर का उद्घाटन किया। वर्तमान में 144 किसान कॉल सेंटर काम कर रहे हैं। प्रारम्भ में ये कॉल सेंटर देश के आठ महानगरों में शुरू किए गए हैं। किसान बिना शुल्क दिए गए नम्बर पर डॉयल करके कृषि सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

बेहतर कृषि प्रबंधन के लिए कृषि दक्षता और उत्पादन बहुत कुछ कृषि आदानों और उत्पादन की विधियों पर निर्भर करते हैं। जैसे-भूमि सिंचाई, उर्वरक और खाद, कृषि का यंत्रीकरण इत्यादि।

भूमि सिंचाई


उत्तम कृषि के लिए जल अनिवार्य तत्व है। यह वर्षा द्वारा या कृत्रिम सिंचाई से प्राप्त किया जाता है। देश के विभिन्न भागों में वर्ष भर में एक न एक समय अकाल की स्थिति विद्यमान रहती है। इन क्षेत्रों को अकाल से बचाना आवश्यक है। कृषि उपज में वृद्धि कराने के लिए भी पानी प्रचुर मात्रा में निरन्तर उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है।

सिंचाई क्षेत्रों को निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए खोल दिया जाए। दूसरे शब्दों में, राज्य आधारित सिंचाई व्यवस्था से सिंचाई विकास के निजीकृत ढांचे में परिवर्तन किया जा सके जिससे बेहतर कृषि प्रबंध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या को शीघ्रातिशीघ्र दूर किया जा सके।36 मौसमी उपमंडलों में से 23 में दक्षिण-पश्चिम मानसून 2009 के दौरान कम वर्षा दर्ज की गई, शेष 13 उपमंडलों में से केवल 3 उपमंडलों में अत्यधिक वर्षा, शेष 10 में सामान्य वर्षा दर्ज की गई। 526 मौसमी जिलों में से जिनके आंकड़ें उपलब्ध हैं, 215 जिलों (41 प्रतिशत) में अत्यधिक/सामान्य वर्षा और शेष 311 जिलों (59 प्रतिशत) में कम/बहुत कम वर्षा दर्ज की गई।

इस बात की सख्त आवश्यकता है कि राज्यों को जल दरों के युक्तिकरण के लिए राजी किया जाए। सिंचाई क्षेत्रों को निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए खोल दिया जाए। दूसरे शब्दों में, राज्य आधारित सिंचाई व्यवस्था से सिंचाई विकास के निजीकृत ढांचे में परिवर्तन किया जा सके जिससे बेहतर कृषि प्रबंध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या को शीघ्रातिशीघ्र दूर किया जा सके।

सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना


सरकार को सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को विशेषतः वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में न्यूनतम समर्थन मूल्य उचित समय पर प्राप्त हो सके।

मार्केट रिस्क स्टेबलाइजेशन फण्ड का गठन


13 अप्रैल, 2006 को राष्ट्रीय कृषक आयोग एवं नई राष्ट्रीय कृषि नीति की प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया है कि बेहतर कृषि प्रबंधन को सफल बनाने के लिए कृषिगत उपजों के मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों से किसानों की सुरक्षा के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों के साथ-साथ वित्तीय संस्थानों द्वारा नियंत्रित मार्केट रिस्क स्टेबलाइजेशन फंड का गठन किया जाना चाहिए।

नई प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता


जैव प्रौद्योगिकी सहित आसूचना और संचार प्रौद्योगिकी, नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष अनुप्रयोग और नैनो प्रौद्योगिकी इत्यादि भूमि और जल की प्रति यूनिट उत्पादकता बढ़ाने में सहायक हो सकती हैं।

जैविक उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा


कृषि विशेषज्ञों के अनुसार कृषि में विभिन्न किस्मों के उर्वरकों (नाइट्रोजनी, फॉस्फेटी, तथा पोटाशी-एनपीके) का उपयोग एक संतुलित अनुपात में ही किया जाना चाहिए। भारत के लिए अन्न फसलों हेतु मानक अनुपात 4, 2, 1 माना जाता है। नाइट्रोजनी और फास्फेटी उर्वरकों के घरेलू उत्पादन में कमी को आयातों से पूरा किया जाता है। पोटाशी के मामले में सम्पूर्ण आवश्यकता आयात द्वारा ही पूरी की जाती है। उर्वरक उपभोग में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है।

उर्वरकों के संतुलित उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए जैविक उर्वरकों के उत्पादन में तीव्र वृद्धि की आवश्यकता है। रसायनिक उर्वरकों के बजाए जैविक उर्वरकों का उपयोग कृषि कार्य में करना अति आवश्यक है। कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, लेमन ग्रास, ग्रीन मेन्योर ये सभी जैविक खाद में शामिल हैं। जैविक खाद के प्रयोग से मृदा की उर्वरता में वृद्धि, भूजल धारण क्षमता में वृद्धि, जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी सुरक्षित होते हैं, फसल अधिक गुणवत्ता वाली, मृदा में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं की संख्या के ह्रास में कमी, पर्यावरण प्रदूषण में कमी, भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित करना, रसायनिक खादों के मुकाबले सस्ती, टिकाऊ आदि अनेक गुण विद्यमान होते हैं।भारत अभी नाइट्रोजनी उर्वरकों की अपनी खपत का 34 प्रतिशत व फास्फेटी उर्वरकों की खपत का 82 प्रतिशत उत्पादन कर पाता है। पोटाशी उर्वरकों के लिए भारत पूरी तरह से आयात पर ही निर्भर है। अतः उर्वरकों के संतुलित उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए जैविक उर्वरकों के उत्पादन में तीव्र वृद्धि की आवश्यकता है। रसायनिक उर्वरकों के बजाए जैविक उर्वरकों का उपयोग कृषि कार्य में करना अति आवश्यक है। कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, लेमन ग्रास, ग्रीन मेन्योर ये सभी जैविक खाद में शामिल हैं। जैविक खाद के प्रयोग से मृदा की उर्वरता में वृद्धि, भूजल धारण क्षमता में वृद्धि, जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी सुरक्षित होते हैं, फसल अधिक गुणवत्ता वाली, मृदा में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं की संख्या के ह्रास में कमी, पर्यावरण प्रदूषण में कमी, भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित करना, रसायनिक खादों के मुकाबले सस्ती, टिकाऊ आदि अनेक गुण विद्यमान होते हैं।

स्प्रिंगलर सिस्टम को बढ़ावा


सिंचाई को प्रोत्साहन देने हेतु स्प्रिंगलर सिस्टम को व्यापक रूप से कृषि क्षेत्र में लागू करना चाहिए। इस सिस्टम में जमीन के अंदर पानी के पाईपों की फिटिंग करके उसमें भूमि के क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए एक या दो जगह निकासी द्वार बना दिया जाता है। इस निकास द्वार पर घुमावदार फव्वारों को लगा दिया जाता है जो चारों तरफ घूम-घूम कर फसलों की सिंचाई करते हैं। इस प्रणाली को अपनाने से फसलों की सिंचाई संतुलित रूप से होती है। भूमि के जलस्रोत का अत्यधिक दोहन नहीं होता है।

संक्षेप में कहा जाए तो बेहतर कृषि प्रबंधन के लिए किसानों को मौसम के अनुरूप खेती के तौर-तरीकों, खाली पड़ी अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ बनाने एवं किसानों को औद्योगिक खेती एवं औषधीय खेती का व्यापक प्रशिक्षण दिया जाए, ‘पुरा’ की अवधारणा यानी ‘ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराना’ को सार्थक रूप से लागू करने के साथ-साथ, किसान कॉल सेंटर एवं कृषि चैनल सभी जगह पर खोले जाएं। कृषि विश्वविद्यालय व कृषि विभाग की ओर से गांव-गांव प्रशिक्षण के लिए व्यापक योजना बनाए जाने की जरूरत है।

(लेखक आईसीडब्ल्यूएआई फाईनलिस्ट हैं)
ई-मेल: kumar.brijesh17@yahoo.com