बेखौफ हाइड्रो-फ्लोरोसिस के कहर से त्रस्त ग्रामीण भारत, नियंत्रण बेहद जरूरी

Submitted by editorial on Thu, 01/03/2019 - 13:36

युवक के दाँतों पर हाइड्रो-फ्लोरोसिस का दुष्प्रभावयुवक के दाँतों पर हाइड्रो-फ्लोरोसिस का दुष्प्रभावदीर्घकालीन फ्लोराइड युक्त पानी पीने से न केवल इंसानों में बल्कि घरेलू पालतू पशुओं में भी कई तरह की शारीरिक विकृतियाँ एक के बाद एक विकसित हो जाती है इन्हें हाइड्रो-फ्लोरोसिस (फ्लोरोसिस) कहतें हैं। ये विकृतियाँ मूल रूप से पानी में मौजूद फ्लोराइड रसायन के दुष्प्रभाव अथवा इसके विषैलेपन के कारण विकसित होती हैं। इसका असर सबसे पहले दाँतों व हड्डियों पर दिखाई पड़ता है। इसके विषैलेपन से दाँत बदरंग एवं कमजोर हो कर जल्दी से टूटने-गिरने लगतें हैं, वहीं मजबूत हड्डियाँ भारी, कमजोर व खोखली हो कर बांकी-टेढ़ी होने लगती है जो थोड़े से दबाव में ही अक्सर टूट जाती हैं। धीरे-धीरे इससे व्यक्ति कुबड़ा, लूला–लंगड़ा या फिर अपंग व अपाहिज भी हो जाता है। इसके दीर्घकालीन दुष्प्रभाव से हड्डियों के जोड़ों में जकड़न और इससे जुड़ी मांसपेशियाँ भी सख्त होने से व्यक्ति न तो ठीक से चल पाता है और न ही उठ-बैठ पाता है। वो अपनी दैनिक क्रियाएँ भी ठीक से नहीं कर पाता है। एक बार फ्लोराइड विष के दुष्प्रभाव से दाँतों और हड्डियों में जो विकृतियाँ विकसित हो गईं वो फिर कभी किसी औषधि से ठीक नहीं होती हैं।

हाइड्रो-फ्लोरोसिस से पीड़ित महिलाएँहाइड्रो-फ्लोरोसिस से पीड़ित महिलाएँफ्लोराइड जनित फ्लोरोसिस का असर सिर्फ दाँतों और हड्डियों में ही नहीं बल्कि शरीर के लगभग सभी अंगों पर पड़ता है। जिससे अनेक प्रकार की शारीरिक समस्याएँ (दुर्बलता एवं शारीरिक कमजोरी, पेट दर्द, अपचन, दस्त, अधिक प्यास लगना, बार-बार मूत्र का आना, खून की कमी, मृत शिशु का होना, गर्भपात, बांझपन, अन्धापन, प्रजनन क्षमता कम होना, बच्चों में बौद्धिक स्तर (आई. क्यू.) में कमी, थायराइड इत्यादि) एक के बाद एक उभर कर आती हैं। फ्लोरोसिस के असर से सिकल सेल एनीमिया व थैलेसीमिया के रोगियों में जान जाने का खतरा और अधिक बढ़ जाता है। यद्यपि इसकी प्रामाणिकता हेतु देश में इस विषय पर और गहन शोध करने की आवश्यकता है।

गर्भवती महिलाएँ फ्लोरोसिस की चपेट में जल्दी व सबसे पहले आती हैं, वहीं गर्भस्थ शिशु भी इसके कहर से बच नहीं पाते हैं। यह किसी भी उम्र में बगैर लिंग भेद भाव किये किसी को भी हो सकती है। यदि घरेलू मवेशी भी दीर्घकाल तक फ्लोराइड युक्त पानी पीने लगे तो उनमें भी यह हाइड्रो-फ्लोरोसिस बीमारी आसानी से विकसित हो जाती है। ऐसे मवेशी अक्सर अति दुर्बल होते हैं तथा लंगड़ा कर चलते हैं।

बछड़े के दाँतों पर हाइड्रो-फ्लोरोसिस का दुष्प्रभावबछड़े के दाँतों पर हाइड्रो-फ्लोरोसिस का दुष्प्रभावप्रकाशित आंकड़ों के अनुसार हाइड्रो-फ्लोरोसिस का प्रकोप भारत समेत लगभग 25 देशों में है। शोध आंकड़ों के मुताबिक देश में 75 मिलियन से कई अधिक ग्रामीण लोग फ्लोरोसिस से पीड़ित व इसकी हद में हैं, जिसमें 10 मिलियन से अधिक 14 वर्ष से कम आयु के लड़के-लड़कियाँ भी शामिल हैं। यदि देश में अभी शोध सर्वेक्षण कराया जाय तो ये आंकड़े और अधिक चौंकाने वाले आ सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में हाइड्रो-फ्लोरोसिस का प्रकोप सिर्फ ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित है। क्योंकि लोग यहाँ के गहरे कुओं, बावड़ियों, हैंडपम्पों व बोरवेल का फ्लोराइडयुक्त पानी न केवल पीने के लिये बल्कि खाना बनाने में भी काम लेते हैं। लेकिन यह बीमारी तभी विकसित होती है जब पीने के पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.0 पी.पी.एम. अथवा 1.5 पी.पी.एम. से अधिक हो। यह मानक क्रमश: भारतीय मानक ब्यूरो (बी.आई.एस.) व विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) द्वारा निर्धारित किया गया है।

चूँकि भारत की जलवायु गर्म होने से लोग पानी का तुलनात्मक अधिक मात्रा में सेवन करतें हैं। इसीलिये यहाँ के पानी में फ्लोराइड की मात्रा यदि 1.0 पी.पी.एम. हो तो भी हाइड्रो-फ्लोरोसिस विकसित हो जाती है। देश के ख्यातनाम वैज्ञानिकों एवं प्रभुत्व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी यह माना कि अब पीने के पानी में फ्लोराइड की अधिकतम सुरक्षित मात्रा 1.0 पी.पी.एम. निर्धारित करने की जरुरत है। लेकिन भारत में इस मानक को तय करने के पूर्व पर्याप्त शोध अध्ययन करने की जरूरत है।

Map of India showing fluoride (in ppm) distribution in states and union territories. (Environmental Geochemistry and Health, 2018; 40:99–114. https://doi.org/10.1007/s10653-017-9913-x)Map of India showing fluoride (in ppm) distribution in states and union territories. (Environmental Geochemistry and Health, 2018; 40:99–114. https://doi.org/10.1007/s10653-017-9913-x)ताजा शोध रिपोर्ट के अनुसार देश के 36 राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में से 23 (प्रदेशों के नाम नक्शे में ) ऐसे हैं जिनका भूमिगत जल फ्लोराइड से दूषित है अर्थात इनके कुओं, बावड़ियों, हैड-पम्पों व बोरवेल का पानी फ्लोराइडयुक्त है जो सेहत के लिये विषैला एवं बेहद नुकसानदेह हैं। राजस्थान समेत गुजरात, आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना ऐसे राज्य है जहाँ के करीब-करीब सभी जिलों का भूमिगत जल फ्लोराइड से दूषित है वहीं इसकी मात्रा भी निर्धारित मापदंडों से अन्य राज्यों की तुलना में कई गुना अधिक है। इन चार राज्यों में हाइड्रो-फ्लोरोसिस का प्रकोप अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा होने के पीछे नारू-उन्मूलन की देन भी रही है।

अस्सी के दशक में इन राज्यों के हजारों गाँव व छोटी-बड़ी सभी ढाणियाँ मानव नारू-कृमि (नारू–रोग अथवा ड्रेकनकुलियेसिस) के प्रकोप से भयंकर पीड़ित थे। इसके उन्मूलन के दौरान लोगों को स्वच्छ जल मुहैया कराने हेतु यहाँ जगह-जगह हजारों हैंडपम्प व बोरवेल खोद दिए गए। परन्तु उस वक्त किसी को यह नहीं पता था कि इन जल-स्त्रोंतों के पानी में फ्लोराइड विष है। इन जल-स्त्रोतों का पानी पीने से न केवल ग्रामीण बल्कि इनके पालतू मवेशियों में भी हाइड्रो-फ्लोरोसिस बीमारी विकसित होने लग गई।

हाइड्रो-फ्लोरोसिस से पीड़ित बछड़ाहाइड्रो-फ्लोरोसिस से पीड़ित बछड़ाफ्लोरोसिस से पशुओं के वजन और दूध दोनों में घिरावट आती है, वहीं दन्त-फ्लोरोसिस के कारण इनकी अक्सर भूख से जल्दी मृत्यु हो जाती है जिससे पशु पालकों को कई बार भारी आर्थिक नुकसान वहन करना पड़ जाता है। बावजूद देश में पशुओं को फ्लोरोसिस से बचाने के कहीं भी कोई भी प्रयास किसी भी स्तर पर अभी तक नहीं हुए। यहाँ तक कि सम्बन्धित जिम्मेदार विभाग यह बताने में अक्षम है कि देश में किस प्रजाति के कितने पशु इस बीमारी से पीड़ित हैं।

हाइड्रो-फ्लोरोसिस का नियंत्रण सम्भव:

भारत में हाइड्रो-फ्लोरोसिस का नियंत्रण एक जबर्दस्त चुनौती है, इसके कहर को हल्के में लेना बड़ी भूल साबित हो सकती है। यद्यपि इसके नियंत्रण हेतु कई राज्यों में सरकारी स्तर पर अनेक परियोजनाएँ सालों-साल चलती आ रही है और इन पर पैसा भी अन्धाधुन्ध खर्च हुआ और हो भी रहा है। इसके बावजूद परिणाम कहीं से भी कोई उत्साहवर्धक नहीं है और इसकी ताजा स्थिति में कोई विशेष बदलाव भी नहीं आया है यानी हर जगह स्थिति ढाक के तीन पात जैसी ही है। सैकड़ों गाँव आज भी इस बीमारी के चंगुल में है और हजारों-लाखों लोग इसके कहर से त्रस्त हैं वहीं इसके आतंक का दायरा घटने के बजाय और बढ़ा है।

पर्याप्त सरकारी वितीय सहायता एवं भरपूर संसाधन व श्रमशक्ति उपलब्ध होने के बावजूद फ्लोरोसिस को नियंत्रित न कर पाना मतलब कहीं-न-कहीं नियंत्रण प्रणाली में गड़बड़ अथवा खामियां जरुर हैं। इन खामियों को दूर करने हेतु विषय विशेषज्ञों के साथ गहन चिन्तन की आवश्यकता है। ऐसी वृहद परियोजनाओं के प्रभावी संचालन एवं सफलता के लिये ऊर्जावान व कर्तव्यनिष्ठ नेतृत्व, बेहतर प्रबन्धन, कारगर रणनीति व समयबद्ध निगरानी के साथ भरपूर जन सहयोग होना भी आवश्यक है। देश में कई एक एन.जी.ओ. ऐसे भी हैं जो फ्लोरोसिस नियंत्रण के नाम से सरकार व फंडिंग एजेंसियों से काफी अच्छा पैसा ऐंठ तो लेतें है परन्तु काम के नाम पर सिर्फ ढेला, दिखावा और लीपा–पोती के सिवाय और कुछ नहीं होता है। इन पर अधिक यकीन कर लेना सिर्फ बेवकूफी साबित होगी।

फ्लोरोसिस नियंत्रण के लिये जरूरी सबक यह है कि किसी भी परिस्थिति व अवस्था में फ्लोराइड को शरीर में जाने से रोकना होता है जो प्रमुख रूप से पानी द्वारा जाता है। फ्लोराइड का मुख्य स्रोत भूमिगत जल है जो गहरे कुओं, बावड़ियों, हैंडपम्पों व बोरवेल में मिलता है। इसलिये लोगों को इन जलस्रोतों का पानी न तो खाना बनाने और न ही पीने देने के प्रति जागरूक करना अहम व तुलनात्मक रूप से ज्यादा कारगर है। फ्लोराइड मुक्त स्वच्छ जल सुलभ कराने के लिये रेनवाटर हार्वेस्टिंग या वर्षाजल संरक्षण भी बेहतर उपाय है। नालगोंडा डिफ्लोराइडेशन तकनीक भी अपनाई जा सकती है जो पानी को फ्लोराइड रहित बनाने की सक्षम तकनीक है। लेकिन यह तकनीक सरकारी स्तर पर असफल साबित हुई है।

तालाब, झील, बाँध, नदी जैसे सतही जल-स्रोतों का पानी फ्लोराइड मुक्त होता है इसे सरकारी स्तर पर या फिर जन सहयोग द्वारा मुहैया करा देने से फ्लोरोसिस समस्या का स्थाई निदान आसानी से हल किया जा सकता है। लोगों में समय-समय पर फ्लोरोसिस से बचाव की जानकारियाँ देना एवं इनमें जागृति पैदा करने से इसके नियंत्रण में अपेक्षित सफलता में मदद मिलती है। इसमें स्कूली शिक्षकों व छात्र-छात्राओं की भागीदारी भी ज्यादा लाभदायक साबित होती है, वहीं इसके नियंत्रण में मीडिया की भूमिका जबर्दस्त असरदार होती है। देश में फ्लोरोसिस का खात्मा अब बेहद जरूरी है अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ी को स्वास्थ्य सम्बन्धी कई गम्भीर खतरे तो हैं ही पर हमारे युवा कहीं कुबड़े, लूले-लंगड़े अथवा अपंग व मानसिक रूप से कमजोर न हो जाएँ वो और अधिक चिन्ताजनक है। इसके नियंत्रण में सिर्फ सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है बल्कि हम सब की भागीदारी की भी जरुरत है।

देश में फ्लोरोसिस का एक और खतरा:

भारत में कम ही लोगों को यह जानकारी है कि फ्लोराइडयुक्त पानी पीने के अलावा औद्योगिक फ्लोराइड प्रदूषण (फ्लोराइडयुक्त धुआँ) से भी फ्लोरोसिस हो सकती है जिसको नेबरहुड-फ्लोरोसिस कहते हैं। दरअसल, देश में हजारों छोटे-बड़े कल-कारखाने ऐसे हैं जो औद्योगिक फ्लोराइड प्रदूषण के जिम्मेदार हैं। डब्ल्यू.एच.ओ. के अनुसार बिजली उत्पादन करने वाले व पत्थर के कोयलों से संचालित थर्मल पावर प्लांट्स तथा स्टील, आयरन, एल्युमिनियम, जिंक, फॉस्फोरस, केमिकल फर्टिलाइजर्स, ईंट-भट्ठे, ग्लास, सीमेंट, प्लास्टिक व हाइड्रोफ्लोरिक एसिड का निर्माण करने वाले उद्योग-कारखाने अपने धुएँ के साथ-साथ फ्लोराइड को भी गैस व कणों के रूप में वायुमंडल में उत्सर्जित करते हैं। यह फ्लोराइड युक्त धुआँ इन कारखानों के आस-पास के क्षेत्रों में कई किलोमीटर की परिधि में फैलता रहता है।

सर्दी में रात्रि व सुबह के वक्त यह फ्लोराइड युक्त धुआँ विषैले स्मॉग में बदल जाता है जो स्वास्थ्य के लिये बेहद खतरनाक होता है। इस तीव्र गन्धयुक्त औद्योगिक फ्लोराइड प्रदूषण के कारण इन कारखानों में काम करने वाले व इनके आस-पास बसे लोगों में साँस लेना दूभर हो जाता है वहीं इनकी आँखे लाल होकर जलने लगती हैं तथा नाक में तेज जलन व खुजली, अस्थमा के दौरे पड़ना, उल्टी व जी-मचलना, बैचेनी जैसी शिकायतें भी देखने को मिलती हैं। दीर्घकालीन औद्योगिक फ्लोराइड प्रदूषण के सम्पर्क में रहने से भी हाइड्रो-फ्लोरोसिस की तरह ही शारीरिक विकृतियाँ लोगों में विकसित हो जाती हैं। देश में नेबरहुड-फ्लोरोसिस से बचाव के प्रति लोगों में जागरूकता अभियान वृहद स्तर पर चलाने की भी जरूरत है।

प्रो. शांतिलाल चौबीसाप्रो. शांतिलाल चौबीसाफ्लोरोसिस से सम्बन्धित और जानकारियाँ निम्न प्रकाशित शोध पत्रों से भी ली जा सकती हैं:

1. Chronic fluoride intoxication (fluorosis) in tribes and their domestic animals. Int J Environ Stud 1999;56(5):703-716.
2. Some observations on endemic fluorosis in domestic animals of southern Rajasthan (India). Vet Res Commun 1999;23(7):457-465.
3. Neighbourhood fluorosis in people residing in the vicinity of superphosphate fertilizer plants near Udaipur city of Rajasthan (India). Environ Monit Assess, 2015,187(8) : 497, DOI: 10.1007/s10661-015-4723-z
4. Status of industrial fluoride pollution and its diverse adverse health effects in man and domestic animals in India. Environ Sci Pollut Res, 2016; 23(8):7244-7254, DOI: 10.1007/s11356-016-6319-8.
5. A brief and critical review on hydrofluorosis in diverse species of domestic animals in India. Environ Geochem Health, 2018; 40(1): 99-114. doi 10/1007/s 10653-017-9913-x.
6. A brief and critical review of endemic hydrofluorosis in Rajasthan, India. Fluoride 2018; 51(1):13-33.

(डॉ. शांतिलाल चौबीसा, एमेरिटस प्रोफेसर, निम्स विश्वविद्यालय राजस्थान, जयपुर व अन्तरराष्ट्रीय जर्नल फ्लोराइड के क्षेत्रीय सम्पादक हैं।)

 

 

 

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